क्या एक पक्का मुसलमान पक्का भारतीय नहीं ?

 स्वतंत्र भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपसी संबंध कैसे हों, इस विषय पर लंबी-लंबी बहसें चलती रही हैं लेकिन जबसे नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार बनी है, देश और विदेश में यह डर फैलाया जा रहा है कि यह हिंदुत्व की सरकार भारत के अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच दुश्मनी की दीवार खड़ी कर रही है। इसी चश्मे से ही 5 अगस्त को हुए कश्मीर के पूर्ण विलय को भी देखा और दिखाया जा रहा है। पाकिस्तान के नेताओं ने  खुले-आम आरोप लगाया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फाशी राज से भी खतरनाक है। ये अलग बात है कि जनरल जिया-उल-हक, जनरल परवेज़ मुशर्रफ, बेनजीर भुट्टो, जरदारी और नवाज़ शरीफ, जिनसे मेरी सीधे बातचीत होती रही है, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम का सही उच्चारण भी नहीं कर पाते थे।

संघ और मुसलमान- संगठनों के बीच यह जो 36 का आंकड़ा बना हुआ था, उसे सबसे पहले नया रुप दिया सर संघचालक श्री कुप्प सी. सुदर्शन ने। उन्होंने न सिर्फ कुरान तथा अन्य इस्लामी साहित्य का अध्ययन किया, अपितु मुस्लिम नेताओं से भी बातचीत का सिलसिला चलाया। उनकी पहल पर ही ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ की स्थापना हुई। इसी मंच की पहल ने देश की करोड़ों मुस्लिम महिलाओं को तीन-तलाक की कुप्रथा से मुक्ति दिलाई। अब पिछले हफ्ते सर संघचालक मोहन भागवत और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के मुखिया मौलाना अर्शद मदनी की जो भेंट हुई है, वह इस बात का शुभ-संकेत है कि देश के प्रमुख हिंदू और मुस्लिम संगठनों में अब सीधा संवाद शुरु हो गया है।

दोनों प्रमुखों के बीच तात्कालिक मुद्दों पर बात हुई और यह वार्ता सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में हुई। हर मुद्दे पर पूर्ण सहमति हो, यह जरुरी नहीं है लेकिन जरुरी यह है कि उनके बीच बात बराबर होती रहे। यदि यह प्रक्रिया चलती रही तो वह दिन दूर नहीं जबकि संघ के दरवाजे सभी भारतीय नागरिकों के लिए खोल दिए जाएं। विज्ञान भवन में अभी कुछ हफ्ते पहले मोहन भागवत ने अपने भाषण में साफ-साफ कहा कि भारत के मुसलमान भी हिंदुत्व के दायरे से बाहर नहीं हैं। उन्होंने माना कि खुद ‘हिंदू’ शब्द हमें विदेशियों ने दिया है लेकिन अब यह हमसे चिपक गया है। हिंद में रहनेवाला हर व्यक्ति हिंदू है। ऐसा लगता है कि मोहन भागवत का यह सोच सावरकर और गोलवलकर के सोच के विपरीत है। ऐसा नहीं है। सावरकर ने अपनी पुस्तक हिंदुत्व में लिखा था कि हिंदू वही है, जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि भारत है और गोलवलकर ने ‘बंच आफ थाट्स’ में लिखा था कि मुसलमान और ईसाई अराष्ट्रीय हैं और वे संघ के स्वयंसेवक बनने लायक नहीं हैं। सावरकर और गोलवलकर की उक्त अवधारणाएं उस वक्त की परिस्थितियों में सही-सी लगती थीं क्योंकि मुस्लिम लीग ने मज़हब के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग शुरु कर दी थी और कांग्रेस ने गांधी के नेतृत्व में तुर्की के खलीफा (की खिलाफत) का समर्थन शुरु कर दिया था। लेकिन अब न तो भारत में मजहब के नाम पर अलग राष्ट्र की कोई मांग है और न ही किसी अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम आंदोलन के प्रति भारतीय मुसलमानों की निष्ठा है। हां, सावरकर जिसे ‘पुण्यभूमि’ कहते हैं, वह अब भी मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना है, ईसाइयों के लिए रोम हैं, यहूदियों के लिए यरुशलम है और सिखों के लिए कर्तारपुर साहब है। लेकिन इनमें से किसी से भी पूछिए कि क्या वह अपनी पुण्यभूमि में जाकर बसना चाहेगा ? जापानी और चीनी बौद्धों की पुण्यभूमि बुद्ध का भारत है लेकिन कितने जापानी और चीनी इसी कारण आकर भारत में बसना चाहेंगे या वे चीन और जापान के हितों को भारत पर कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाएंगे ? भारतीय मूल के लगभग दो करोड़ लोग विदेशों में रहते हैं और उनमें से ज्यादातर पैदा भी वहां हुए हैं। उनकी पितृभूमि तो वे ही दर्जनों देश हैं लेकिन उनकी उनकी पुण्यभूमि वे भारत को ही मानते हैं तो क्या उन राष्ट्रों की सरकारें उन्हें अराष्ट्रीय घोषित कर सकती हैं ? क्या उनकी देशभक्ति संदेहास्पद बन जाएगी ?  यदि मजहब ही राष्ट्र का आधार होता तो पाकिस्तान के टुकड़े क्यों होते ? बांग्लादेश क्यों बनता ? एराक और ईरान में युद्ध क्यों होता ? सउदी अरब और सीरिया आपस में क्यों भिड़ रहे हैं ?

इसीलिए भारत में किसी भी मजहब के माननेवाले हों, उनकी राष्ट्रभक्ति पर संदेह करना अनुचित है। जिन दिनों मुस्लिम लीग देश को तोड़ने और मुसलमानों को जोड़ने की बात कर रही थी, उन्हीं दिनों संघ ने यह निर्णय किया कि उसकी शाखाओं में ‘गैर-हिंदुओं’ को नहीं आने दिया जाएगा, वह निर्णय उस समय समयानुकूल लगता था लेकिन अब कोई आश्चर्य नहीं कि संघ के द्वार सभी हिंदवासियों के लिए खुल जाएं। खुद मोहन भागवत ने अपने विज्ञान भवन के भाषण में गुरु गोलवलकर का जिक्र करते हुए कहा कि देश और काल के हिसाब से विचार बदलते रहते हैं। मुझे खुशी है कि लगभग 10 साल पहले छपी मेरी पुस्तक ‘भाजपा, हिंदुत्व और मुसलमान’ में मैंने ‘हिंदुत्व’ की जो विवेचना की थी, वह मोहनजी के विचारों में प्रतिबिंबित हुई है। यदि भारत के तथाकथित अ-हिंदू संप्रदायों के बारे में संघ की अवधारणा ऐसी हो जाए कि भारतीयता ही हिंदुत्व है और हिंदुत्व ही भारतीयता है तो भारत सचमुच एक सबल और एकात्म महाशक्ति राष्ट्र बनकर उभर सकता है। लेकिन संघ से इतनी उदारता की अपेक्षा करनेवाले ‘तथा कथित अ-हिंदू’ संप्रदायों से भी बदलाव की उम्मीद करना अनुचति नहीं है। भारत में पैदा हुए और यहां रहनेवाले मुसलमान, ईसाई और यहूदी अपने-अपने धर्मों में पूर्ण निष्ठा रखें और उनमें पूर्ण भारतीयता भी रहे तो इसमें अजूबा क्या है ? कोई जरुरी नहीं है कि मुसलमान लोग हर बात में अरबों की, ईसाई लोग यूरोपीयों की और यहूदी लोग इस्राइलियों की नकल करें। वे अपने खान-पान, वेश-भूषा, नाम, शिक्षा, भाषा, तीज-त्यौहार और रिश्तों-नातों में यदि पूर्ण भारतीयता का आचरण करें तो भी वे स्वधर्मद्रोही नहीं बन जाएंगें। वे जरा इंडोनेशिया से सीखें। वह दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम देश है लेकिन उसकी ‘भाषा’ संस्कृतमय है। वहां गणेश, कृष्ण और अर्जुन की विशाल मूर्तियां पूरे इंडोनेशिया में पाई जाती हैं। मैंने स्वयं दो-दो सौं पात्रोंवाली महाभारत और रामायण इडोनेशियाई मंचों पर देखी है। उसके बाली नामक द्वीप में बहुसंख्यक हिंदुओं को पूर्ण स्वतंत्रता है। उसके विश्व प्रसिद्ध नेताओं के नाम सुनने लायक हैं। सुकर्ण, उनकी बेटी मेघावती और उसके पिता अली शास्त्रविद जोजो। उनके नाम संस्कृतनिष्ठ होने से क्या वे काफिर हो गए ? क्या उनकी मुसलमानियत में कोई संदेह पैदा हो गया ?
यदि भारत के मुसलमान, ईसाई और यहूदी अपने दैनंदिन जीवन में भारतीयता को आत्मसात करें तो वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मुसलमान, सर्वश्रेष्ठ ईसाई और सर्वश्रेष्ठ यहूदी अपने आप कहलाएंगें, क्योंकि वे अपने—अपने मजहबों के साथ—साथ महान भारतीय संस्कृति के भी उत्तराधिकारी हैं। पक्के मुसलमान होने और पक्के भारतीय होने में कोई अन्तर्विरोध नहीं है।

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