लाजिम है कि हम भी देखेंगे…

cak5az4pइकबाव बानो की गायकी से मुहब्बत रखने वाले जानते हैं कि फैज उनके पसंदीदा शायर थे। इस विद्रोही शायर को जब जिया उल हक की फौजी हुकूमत ने कैद कर लिया, तब उनकी शायरी को अवाम तक पहुंचाने का काम इकबाल बानो ने खूब निभाया था।यह बात अस्सी के दशक की है। इकबाल बानो ने लाहौर के स्टेडियम में पचास हजार श्रोताओं के सामने फैज के निषिद्ध नज्म खूब गाये थे। वह भी काली साड़ी पहनकर। तब वहां की सरकार ने फैज की शायरी पर ही नहीं बल्कि साड़ी पहनने पर भी पाबंदी लगा रखी थी। पर बानो ने इसकी परवाह नहीं की। वह नज्म इस प्रकार हैं-

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
हम देखेंगे …

जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम देखेंगे …

जब अर्ज़-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
हम देखेंगे …

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाजिर भी
जो नाजिर भी है मंज़र भी
उठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
हम देखेंगे …

इस पाकिस्तानी गायिका का तीन सप्ताह पूर्व निधन हो गया। उनका जन्म दिल्ली में ही सन् 1935 में हुआ था और वे उस्ताद चांद खां की शागिर्द थीं। लेकिन, सन् 1952 में निकाह के बाद वह शौहर के पास पाकिस्तान चली गई थीं।

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