आधुनिक शल्य – लाल कृष्ण आडवानी

adwani

      मद्र देश के राजा शल्य नकुल-सहदेव के सगे मामा थे। वे चले थे यह संकल्प लेकर कि वे अपने भांजों यानि पाण्डवों की ओर से युद्ध करेंगे। पाण्डवों को पूरा विश्वास था कि उनके मामाजी उनके शिविर में अपने आप आ जायेंगे। उनका यह विश्वास स्वाभाविक भी था। दुर्योधन राजा शल्य की प्रत्येक गतिविधि पर नज़र रखे हुए था। यह तय हो गया था कि श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में शस्त्र नहीं उठायेंगे लेकिन अर्जुन के सारथि बनेंगे। युद्ध के निर्णायक पलों में सारथि का कौशल बहुत काम आता है। श्रीकृष्ण जैसा सारथि पूरे आर्यावर्त्त में दूसरा कोई नहीं था। राजा शल्य एक महारथी तो थे ही, श्रीकृष्ण के टक्कर के कुशल सारथि भी थे। दुर्योधन उन्हें कर्ण का सारथि बनाना चाहता था। लेकिन वे पाण्डवों के सगे मामा थे। उन्हें अपने पक्ष में ले आना कठिन ही नहीं असंभव भी लग रहा था। चिन्तित दुर्योधन को शकुनि ने सलाह दी – “शल्य को खातिरदारी और प्रशंसा अत्यन्त प्रिय है। हस्तिनापुर तक आनेवाले रास्ते में कालीन बिछा दो, गुलाब-जल का छिड़काव करा दो, स्थान-स्थान पर स्वागत-द्वार बनवा दो और अपने सचिवों को हर स्वागत द्वार पर फूल-मालाओं के साथ शल्य के स्वागत में तैनात कर दो। शल्य यह समझेंगे कि यह सारी व्यवस्था युधिष्ठिर ने की है। और इस तरह वे तुम्हारे निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर सीधे तुम्हारे पास पहुंच जायेंगे। उनके आने पर हम उनका इतना स्वागत करेंगे कि वे अपने भांजों को भूल जायेंगे और हमारी ओर से युद्ध करना स्वीकार कर लेंगे।” सारी घटनाएं शल्य की योजना के अनुसार ही घटीं। दुर्योधन की आवाभगत से प्रसन्न शल्य ने न सिर्फ दुर्योधन की ओर से लड़ना स्वीकार किया, अपितु कर्ण का सारथि बनने के लिए भी ‘हां’ कर दी। शल्य के निर्णय की सूचना पाकर पाण्डव बहुत चिन्तित हुए। लेकिन श्रीकृष्ण मुस्कुरा रहे थे। कारण पूछने पर उन्होंने स्पष्ट किया कि समय आने पर शल्य का यह निर्णय भी पाण्डवों का ही भला करेगा। हुआ भी यही। भीष्म पितामह के शर-शय्या पर जाने और द्रोणाचार्य के निधन के बाद कर्ण कौरव सेना का सेनापति बना और शल्य उसके सारथि। श्रीकृष्ण की सलाह पर पांचों पाण्डवों ने उनके नेतृत्व में शल्य के शिविर में जाकर मुलाकात की। अपने उपर हुए दुर्योधन के अत्याचारों से उन्हें अवगत कराया। साथ ही यह भी बताया कि  द्यूत-क्रीड़ा के समय कर्ण द्वारा ही दुशासन को यह निर्देश दिया गया था कि द्रौपदी को निर्वस्त्र कर दो। शल्य आखिर थे तो पाण्डवों के ही मामा। वे द्रवित हुए बिना नहीं रह सके। पाण्डवों ने उन्हें अपने पक्ष में आने का न्योता दिया। लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इसे अस्वीकार कर दिया कि वे दुर्योधन को वचन दे चुके हैं। अतः अन्त समय में वचनभंग नहीं कर सकते। श्रीकृष्ण ने उनसे दूसरे ढंग से सहायता पहुंचाने का प्रस्ताव किया किया जिसपर उन्होंने अपनी सहमति दे दी। प्रस्ताव था – अर्जुन और कर्ण के युद्ध के समय शल्य अर्जुन की प्रशंसा करेंगे और कर्ण की वीरता और सामर्थ्य की निन्दा। वे कर्ण के मनोबल को गिराने की हर संभव कोशिश करेंगे। हत मनोबल और हत उत्साह से कोई युद्ध नहीं जीत सकता। श्रीकृष्ण की यह युक्ति काम आई। ऐन वक्त पर अर्जुन-कर्ण के निर्णायक युद्ध के वक्त जब श्रीकृष्ण अपनी बातों से अर्जुन का मनोबल बढ़ा रहे थे, शल्य योजनाबद्ध ढंग से कर्ण का मनोबल गिरा रहे थे। परिणाम वही हुआ जो ऐसी दशा में होना था। शाम ढलते-ढलते कर्ण को पराजय के साथ-साथ मृत्यु का भी वरण करना पड़ा।

भाजपा के तथाकथित भीष्म पितामह लाल कृष्ण आडवानी आजकल शल्य की ही भूमिका निभा रहे हैं। उनके जैसे नेता अगर चुनाव अभियान संभालेंगे, तो कांग्रेस को किसी दिग्विजय सिंह की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भुज में अपने भाषण के दौरान नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ सत्य को अनावृत किया था। क्या लालकिले से दिया गया प्रधान मंत्री का भाषण राजनीतिक नहीं था? भारत के प्रधानमंत्रियों का उल्लेख करते समय लाल बहादुर शास्त्री या अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लेने से क्या स्वतंत्रता दिवस की फ़िज़ां खराब हो जाती? भारत की एकता और अखंडता के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करनेवाले लौह पुरुष सरदार पटेल का नाम ले लेने से भारत की मर्यादा घट जाती? देश के जवानों का सिर काट कर ले जानेवाले पाकिस्तान को कड़ी चेतावनी देने से विश्व शान्ति को खतरा उत्पन्न हो जाता? एक कठपुतली प्रधान मंत्री लाल किले की प्राचीर से भारत-विभाजन, आधे कश्मीर को पाकिस्तान को भेंट देनेवाले, १९४७ में हुए विश्व के सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगे, तिब्बत को चीन को गिफ़्ट देनेवाले, १९६२ में चीन के हाथों भारत की पराजय के जिम्मेदार और १९८४ में देश की सर्वाधिक देशभक्त सिक्ख कौम का नरसंहार करानेवाले परिवार का गुणगान करता रहे, तो सब कुछ उचित; परन्तु एक देशभक्त इसपर प्रश्न पूछ दे तो बहुत अनुचित। किश्तवाड़ की हिंसा पर लाल कृष्ण आडवानी का कोई वक्तव्य आया हो, मुझे याद नहीं। लेकिन स्वतंत्रता दिवस के दिन ही भुज में नरेन्द्र मोदी के भाषण पर आडवानी की त्वरित प्रतिक्रिया हैरान करनेवाली है। समझ में नहीं आता कि वे भाजपा के लिए काम कर रहे हैं या कांग्रेस के लिए। बोलने के लिए सिर्फ वाणी की आवश्यकता होती है, परन्तु चुप रहने के लिए वाणी और विवेक, दोनों की आवश्यकता होती है।

6 COMMENTS

  1. क्या आडवाणी जी पर इतना अविश्वास करना उचित है. कई बार कोई बुजुर्ग उन चीजो को देख पाता है जो हम युवा देखने में असमर्थ रहते है. आडवाणी भारत की राजनीति के अंदर एक नरमपंथी एवं समावेशी धार का नेतृत्व कर रहे है. हमें उनके प्रति सहनशील बनना चाहिए…. वैसे सच कहूँ मै मोदी में दक्षिण एसिया का भविष्य देख रहा हूँ. लेकिन आडवाणी जी का उनके साथ खडा रहना मार्ग को सरल बनाएगा.

    • कोई भी आदमी देश और धर्म से बड़ा नहीं होता। अगर कोई इनकी प्रगति में अवरोध उत्पन्न करता है, तो वह त्याज्य है। अपनी गौरवशाली संस्कृति में संन्यास की बड़ी महिमा है। क्या आडवानी जी को यह तथ्य ज्ञात नहीं है? क्या उनकी उम्र सत्ता के लिए मचलने की है। अब वे भाजपा और देश पर बोझ बनते जा रहे हैं। इतना बड़ा नेता अपनी ही खड़ी की हुई पार्टी में गुटबाज़ी को हवा दे रहा है। उनके संन्यास लेने का उचित अवसर आ गया है। उनका अब एक ही उद्देश्य रह गया है – मोदी की राह में कांटे बिछाना। वे रुसी कम्युनिस्ट पार्टी के गोर्वाचोव बनते जा रहे हैं।

  2. मैं मधुजी की और लेखक के बात से असहमति रखता हूँ .
    शायद नरेन्द्र मोदी को दिवस के अनुरूप अराजनीतिक रहना चाहिए था और अद्वानीजी का प्रधानमंत्री को शुभकामना देना उचित ही है.

  3. आपने बिलकुल सही कहा है सिन्हा जी.स्वतंत्रता दिवस पर देश और विशेषकर युवा भारत देश की वास्तविक समस्याओं पर देश के नेताओं का चिंतन जानने का इक्षुक था.लेकिन उसे वही बातें लाल किले की प्राचीर से सुनाई गयी जो १९४७ के ट्रिस्ट विद डेस्टिनी से लेकर अब तक प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस पर तोते की तरह रटे रटाये अथवा लिखे हुए को पढ़कर दोहराया जाता रहा है.बेहद निराशाजनक उबाऊ भाषण के बाद यदि भुज में नमो ने कुछ प्रश्न पूछने की ‘धृष्टता’ की तो उसमे देश के युवाओं को कुछ भी बुरा नहीं लगा.बल्कि आश्चर्य हुआ की निरर्थक खोखली परंपरा के नाम पर आज तक अडवाणी जी अथवा किसी और बड़े नेता ने ये सवाल पूछने का साहस क्यों नहीं दिखाया?शायद उनका ये दब्बू चरित्र ही उनके शीर्ष पर पहुँचने की सबसे बड़ी बाधा बना.माना की अटल अडवाणी देश के बड़े नेता हैं/थे.लेकिन क्या कभी वो ऐसा उत्साह देश में जगा पाए जो आज नरेन्द्र मोदी ने जगाया है.ऐसा लगता है की ईर्ष्या पर केवल महिलाओं का ही एकाधिकार नहीं होता है.और फिर स्वतंत्रता दिवस के साथ इन कांग्रेसी नेताओं विशेषकर नेहरु परिवार द्वारा विभाजन और उसके बाद बीस लाख बेगुनाहों का कत्लेआम और पांच करोड़ लोगों के विस्थापन में इनकी भूमिका को भी नहीं भूलना चाहिए जिसके शिकार स्वयं श्री अडवाणी जी भी रहे हैं.शल्य के साथ तुलना उचित नहीं लगती क्योंकि अभी तक वो दुर्योधन के पाले में नहीं गए हैं.

    • अनिल जी धृष्टता के लिए क्षमा… लेकिन शल्य भी पांडवों के पक्ष में नहीं गया था, वहीँ था कौरवों के खेमे में और अपना काम कर गया, वही तो आज हो रहा है, बिना पक्ष में गए ही, विपक्षी जैसी बात. मोदी को बहुत सजग रहना होगा.

  4. अडवाणी जी का क्या किया जाए?
    शल्य तो कौरवों के पक्षका मनोबल गिरा रहा था। अडवाणी जी क्या पाण्डवों का मनोबल गिराएंगे?
    विपिन किशोर जी का महाभारत के सूक्ष्म ज्ञान
    से प्रभावित—मधुसूदन
    लेखक को, बहुत बहुत धन्यवाद|

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