भूमि अधिग्रहण विधेयक पर सरकार और विपक्ष के बीच आम सहमति लगभग बन गर्इं है, लेकिन इसके साथ ही यह चिंता व सवाल भी उठने लगे हैं कि आखिरकार यह कानून किसके हितों के लिए बनाया जा रहा है ? क्योंकि शुरुआत में विधेयक का जो मसौदा ग्रामीण विकास मंत्रालय सामने लाया था, वह किसान हितैशी दिखता था। मगर फिर सरकार ने विपक्ष और औधोगिक घरानों के दबाव में इसके मूल स्वरुप में एक-एक कर करीब 150 संषोधन कर डाले। केंद्र सरकार के मंत्री भी मूल विधेयक के खिलाफ यह दलील देते हुए खड़े हो गए कि उधोग विरोधी ऐसा कानून बना तो औधोगिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। सकल घरेलू उत्पाद दर और नीचे आ जाएगी। भटटा पारसौल पहुंचकर किसान और मजदूर हितों की पैरवी करने वाले राहुल गांधी की इस विधेयक में रुचि न लेना हैरतअंगेज है ? अब इस प्रारुप में सरकार द्वारा किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण को तो बाहर कर ही दिया गया, मुआवजा मिलने की भी कोर्इ गारंटी नहीं रह गर्इ है ?
इस कानून को वजूद में लाने को लेकर सरकार जिस तरह से संप्रग के सहयोगी और विपक्षी दलों से सलाह-मशविरा करके आम सहमति बनाने में लगी थी, उससे लगा था एक जन व किसान हितैशी ठोस कानून सामने आएगा। क्योंकि 1894 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया कानून किसान हित की चिंता नहीं करता है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने 117 साल पुराने इस औपनिवेषिक कानून के अब तक जारी रहने पर सख्त नाराजगी जतार्इ थी। लेकिन हिदायत के बावजूद राजनीतिक दल तात्कालिक लाभ-हानि के गुणा-भाग में लगे रहकर कुछ नर्इ अथवा क्रांतिकारी पहल नहीं कर पाए। उनके राजनीतिक स्वार्थ उदारवादी अर्थव्यवस्था और विदेशी पूंजी निवेष की उम्मीदों पर ही अटके रह गए। यह ठीक है कि भूमि और खनन के मुददे प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के पहिये हैं और यदि तथाकथित विकास के इन पहियों की गति पर लगाम लगती है तो औधोगिक निवेष प्रभावित होता है। किंतु खेती-किसानी को मटियामेट करके और प्राकृतिक संपदा को उधोगपतियों को सौंप कर समावेशी विकास की कल्पना नहीं की जा सकती ? अच्छा तो यह होता कि इस कानून में कुछ ऐसे प्रावधान तय किए जाते, जिनके तहत जमीन गंवाने वाला और पाने वाला दोनों ही संतोषजनक लाभ के दायरे में आते। साथ ही विस्थापित लोगों की जिंदगी बेहतर बनाए जाने के उपाय सुनिश्चित किए जाते। इससे उधोग, किसान, खेती और कृषि-मजदूरों के बीच तालमेल बैठता और यह प्रकि्रया संतुलित व समावेशी विकास का आधार बनती। हालांकि सुषमा स्वराज ने सर्वदलीय बैठक में उल्लेखनीय बात करते हुए कहा था कि हमेशा के लिए भूमि अधिग्रहण करने की बजाय किसानों की जमीन पटटे पर ली जाए। इस प्रकि्रया से वे भूमि स्वामी भी बने रहेंगे और उन्हें नियमित आमदनी भी होती रहेगी। साथ ही, अधिग्रहीत भूमि पर लगने वाले उधोगों में भूमि-मालिकों को भी भागीदारी बनाने की पैरवी की थी। इसी तरह शरद यादव ने भूमि पर आश्रित भूमिहीन मजदूरों और बंटार्इदारों को भी पुनर्वास योजना में शामिल करने की मांग की थी, ये सभी प्रस्ताव मूल मसौदे में थे भी, लेकिन कुछ केंद्रीय मंत्रीयों की पुरजोर खिलाफत के कारण ये प्रस्ताव वापिस लेकर किसान मजदूर की चिंताओं को ठुकरा दिया गया। हालांकि बाम दल इस विधेयक को संसद में पेष करते समय पुरजोर विरोध करने की बात कह गये हैं और तृणमूल कांग्रेस विधेयक को संघीय ढांचे के खिलाफ मान रही है। द्रमुक इसलिए विरोध कर रही है कि सरकार निजी कंपनियों के लिए जमीन अधिग्रहण की जिम्मेवारी क्यों ले रही है। विपक्ष कोसामंतों की भूमि इस मसौदे में शामिल करने की बात भी उठानी चाहिए।
पुराने मसौदे में प्रस्ताव था कि ठेठ बंजर जमीन ही उधोगों के लिए अधिकग्रहीत की जाएगी। साथ ही निजी कंपनियों के लिए सरकार कोर्इ अधिग्रहण नहीं करेगी। लेकिन विपक्ष जोर दे रहा है कि इस अधिग्रहण में सरकार की प्रत्यक्ष भूमिका तय हो। विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए भी सरकार ही भूमि अधिग्रहण करे। चूंकि सेज को लेकर सिंगूर और नंदीग्राम में खूनी संघर्ष छिड़ चुका है। इसी के परिणाम स्वरुप टाटा की नैनो को गुजरात जाना पड़ा। सेज को लेकर फिर से विवाद पैदा न हों, इसलिए बड़ी चालाकी इसका नाम बदलकर ‘विशेष विनिर्माण क्षेत्र कर दिया गया है। इसके लिए जो जमीन अधिग्रहीत की जाएगी, वह निजी क्षेत्र के लिए होगी। पीपीपी परियोजनाओं में यही प्रावधान लागू होगा। नए मसौदे में बंजर भूमि के अधिग्रहण का प्रस्ताव भी हटा लिया गया है। जाहिर है, अब सिंचित, बहुफसली व उपजाउ कृषि भूमियों के अधिग्रहण का रास्ता अंग्रेजी हुकूमत के कानून की तरह खुला रहेगा।
इस भूमि अधिग्रहण व पुनर्वास विधेयक के दायरे से, बड़ी चतुरार्इ के साथ सरकारी क्षेत्र के 16 ऐसे विभागों को बाहर कर दिया गया है, जिनके लिए सबसे ज्यादा भूमि का अधिग्रहण किया जाता है। इसमें रेलवे, रक्षा, परमाणु संयंत्र पाइपलाइन, एक्सप्रेस हार्इवे, हवार्इ अडडे, खनिज, पेटोलियम और कोयला से जुड़े विभाग शामिल हैं। इनके लिए अधिग्रहण हेतु 1894 के कानूनी प्रावधान ही नए कानून में जस की तस रख दिए गए हैं। केंद्र सरकार सबसे ज्यादा जमीन इन्हीं उधोगों के लिए लेती है। नए मसौदे में यह भी इकतरफा प्रावधान है कि यदि सरकार चाहे तो सिर्फ एक अधिसूचना जारी करके कानून के दायरे से जो बाहर के क्षेत्र हैं, उनके लिए भी अधिग्रहण की प्रकि्रया अपना सकती है। तय कानून के नए मसौदे में पुराने प्रावधान नर्इ समस्याओं के जनक बनेंगे। अधिग्रहीत क्षेत्रों में कानून-व्यवस्था की संकटकालीन सिथति पैदा होगी, जो भूमि स्वामियों और सरकार के बीच फिर से भटटा-पारसौल, सिंगूर और नंदीग्राम जैसे खूनी संघर्ष का कारण बन सकते हैं। ओड़ीशा में वेदांता और पास्को के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर लगातार हिंसक झड़पों के समाचार आ रहे हैं। बावजूद सरकार नहीं चेतती है तो अंजाम के लिए तैयार रहे ?