साहित्‍य

भाषा और समाज

-गंगानंद झा-

hindu urdu

बात सन् 1989 की है, ‘बाबरी मस्जिद-राम मन्दिर’ का हंगामा चल रहा था, तभी कुछ दोस्तों ने  शहर की दीवालों पर जगह-जगह चिपके बहुत सारे पोस्टर्स की ओर ध्यान दिलाया । ये पोस्टर्स उर्दू में थे,  इनके मज़मून के बारे में कहा जा रहा था कि मुसलमानों को बाबरी मस्जिद के नाम पर भड़काया जा रहा है । मैंने अपनी ‘अलीफ-बे-पे’ की जानकारी की मशक्क़त की तो पाया कि वह  कौमी एकज़हदी पर भारत सरकार के सामान्य इश्तहारों में से एक था । पर मेरे  दोस्तों ने मेरी उर्दू की जानकारी को सर्टिफिकेट देने से इनकार कर दिया । हिन्दी-उर्दू के बीच पुल का न होना कितना खतरनाक़ हो सकता है, यह बात ऊपरी उदाहरण से साफ हो जाती है । भाषा  किसी जगह में रहने वालों के बीच सरोकार कायम रखने का अहम जरिया होती है, इसलिए एक सीमित जगह में भाषा का एक ही रूप होता है । इस मानी में हिन्दी-उर्दू विसंगति (incompatibility ) पेश करते हैं कि दोनों एक ही इलाक़े से सम्बन्धित हैं । इसका नतीजा होता है कि एक साथ रहते हुए भी इन दो भाषा भाषी लोगों के बीच संवाद का रिश्ता ठीक ठीक बन नहीं पाता ।  हिन्दी-उर्दू इन दो भाषाओं के बीच mutual exclusiveness का रिश्ता हो जैसे । भाषा माँ की तरह हमें पालती है । माँ के लिए प्यार के एहसास के बारे में कहीं पढ़ा था, ‘ हमें माँ के लिए अपने जज़बे की गहराई का सही एहसास माँ के चले जाने के बाद ही हो पाता है ।’ हम हिन्दी-उर्दू वाले तो अपनी माँ की पहचान भी नहीं रखते । इससे हमारी अपनी शख्सियत बेअसर तो नहीं रह सकती । भाषा हमें अपने आप से पहचान कराती है,इसे मैं एक दिलचस्प तजुर्बे से बयान करना चाहूँगा ।

यह तब की बात है जब मैं कॉलेज में पढ़ाया करता था। हमारे प्रिंसिपल संस्कृत, पाली और हिन्दी के विद्वान थे, साथ ही बहुत ही सीधे और भले;  लोगों की इतनी इज्जत करते कि सामने वाले को मुग़ालता हो जाए । दो आदमियों ने उन्हें  परेशान किया हुआ था, एक कॉलेज के सेक्रेटरी जो उनकी नियुक्ति को स्थाई नहीं कर रहे थे और दूसरे जवाहरलाल नेहरु जिनकी वज़ह से , उनके अनुसार, भारत हिन्दू-राष्ट्र नहीं बन पाया । मैंने एक दिन बातों बातों में उनसे कहा, ‘ सर, एक सवाल पूछना है;  कभी ऐसा हो कि आपको लंबे समय के लिए तमिल ब्राह्मणों के साथ रहने का मौका मिले और फिर वहाँ भोजपुरी बोलनेवाला दाढ़ी वाला मौलवी मिले  , तो आपको किसके साथ ज्यादह अच्छा लगेगा ‘प्रिन्सिपल साहब की ऑंखे चमक उठी,  बरजस्ता उनके मुँह से निकल पड़ा,’ “हँऽजी, उहाँ तो मौलविये आपऽन आ नीमन लागी।