नियोजित ढंग से बसा है लश्कर

लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

 

“पत्रिका के ग्वालियर संस्करण ने १२ मार्च माह से एक नया प्रयोग किया है। नगर संस्करण के छह पेजों में से आधा पेज प्रतिदिन शहर के दो उपनगरों लश्कर और मुरार की खबरों के लिए समर्पित किया है। सप्ताह के तीन दिन यह स्थान लश्कर के लिए आरक्षित है और बाकी के तीन दिन मुरार के लिए। चूंकि मैं उपनगर लश्कर में रहता हूं तो इसके लिए गठित टीम में मैं भी शामिल हूं। लश्कर पत्रिका के नाम से पहली बार आधा पेज १४ मार्च को प्रकाशित हुआ था। उस अवसर पर मैंने लश्कर के संदर्भ में निम्न आलेख लिखा था। वह अब आप लोगों को समर्पित है।”

 

वर्तमान में ग्वालियर तीन उपनगरों से मिलकर बना है, उपनगर ग्वालियर, लश्कर और मुरार। लश्कर, ग्वालियर का मुख्य उपनगर है। लश्कर में प्रमुख व्यापारिक, राजनीतिक संगठनों के साथ ही प्रशासनिक दफ्तर हैं। बड़े और प्रमुख बाजारों से भी लश्कर समृद्ध है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लश्कर योजनाबद्ध ढंग से बसने वाला जयपुर के बाद दूसरा शहर है। हालांकि इससे पहले ग्वालियर विद्यमान था। जो किले की तलहटी और स्वर्ण रेखा नदी के आसपास बसा था। इसमें तंग, छोटी और पतली गलियां हुआ करती थीं। शायद कोई नियोजित बस्ती या बाजार की बसाहट नहीं थी। १८१० में दौलतराव सिंधिया ने अपनी राजधानी उज्जैन से हटाकर ग्वाल्हेर स्थापित की। उस समय यहां चारों तरफ पहाड़ और जंगल ही थे। नदी बहती थी। जंगली जानवर विचरण करते थे। तब दौलतराव सिंधिया ने अपने लाव लश्कर के साथ वर्तमान महाराज बाड़े के निकट तंबू लगाकर पड़ाव डाला। सन् १८१८ तक यह लगभग सैनिक छावनी जैसा ही रहा। सिंधिया के लाव-लश्कर के पड़ाव स्थापित होने के कारण ही इस स्थान का नाम ‘लश्कर’ पड़ गया। दौलतराव से पूर्व लश्कर का यह क्षेत्र अम्बाजी इंगले के पास था।

दौलतराव सिंधिया ने अपनी रानी गोरखी के नाम पर सबसे पहले १८१० में गोरखी महल का निर्माण करवाया। राजा की सुरक्षा सुदृढ़ रहे, इसलिए उनके सरदारों को गोरखी महल के आसपास ही बसाया गया। गोरखी के आसपास सरदार शितोले, सरदार जाधव, सरदार फालके और सरदार आंग्रे की हवेलियां बनीं। इसके बाद दौलतराव सिंधिया ने बाजारों के निर्माण पर जोर दिया। उन्होंने सबसे पहले सराफा बाजार का निर्माण करवाया, यहां बसने के लिए राजस्थान के जोहरियों को बुलावा भेजा गया। लश्कर में सबसे पहली सड़क भी सराफा बाजार में ही बनी थी। यह काफी चौड़ी थी। दोनों ओर नगरसेठों की नयनाविराम हवेलियां थीं। दशहरे के लिए इसी सड़क से सिंधिया की शोभायात्रा निकलती थी। सड़क के दोनों ओर हवेलियों के नीचे बने चबूतरों पर खड़े होकर प्रजा पुष्पवर्षा कर शोभायात्रा का स्वागत करती थी। समय के साथ इस बाजार की राजशाही रौनक अतिक्रमण की मार से धुंधली पड़ गर्ई थी। जो शायद अब फिर से देखने को मिले। सराफा बसने के बाद लश्कर का विस्तार होना शुरू हो गया। इसके बाद दौलतराव सिंधिया के नाम पर ही दौलतगंज बसा। इसके बाद ही कम्पू कोठी (महल) और जयविलास पैलेस बने।

माधौराव सिंधिया (१८८५-१९२५) को ग्वालियर का आधुनिक निर्माता कहा जाता है। उन्होंने भी अनेक बाजारों का योजनाबद्ध ढंग से निर्माण कराया। उनमें लश्कर के दाल बाजार, लोहिया बाजार, नया बाजार आदि प्रमुख हैं। इन बाजारों में भी नगर के तत्कालीन कारीगरों की हुनरमंदी आज भी देखने को मिलती है। अनेक झरोखे, पत्थरों की कलात्मक जालियां, दरवाजों पर उकेरी गईं मूर्तियां और बेलबूटे आज भी बरबस ही ध्यान आकर्षित कर लेते हैं।

वर्तमान में लश्कर के प्रमुख स्थापत्य

१. महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय उत्कृष्ट कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय ।

२. महाराज बाड़ा।

३. शासकीय गजराराजा कन्या विद्यालय।

४. जयारोग्य अस्पताल समूह।

५. केआरजी कालेज और पद्मा कन्या विद्यालय।

६. जलविहार, फूलबाग।

७. डरफिन सराय।

८. मोती महल।

९. आरटीओ कार्यालय।

१०. गोपाचल पर्वत।

 

3 COMMENTS

  1. जी हाँ लोकेन्द्र जी मैं इसी मिट्टी का बना हुआ हूँ , मेरे पूर्वज सिंधियाओं के आग्मन के समय में साथ में ही महाराष्ट्र से आये थे में इस शहर को बेहद प्यार करता हूँ.

  2. अजीत जी आप भी शायद ग्वालियर से ही हैं। वाकई शहर बुरी तरह से अतिक्रमण की चपेट में था। अब थोड़ा खुले में श्वास ले रहा है। सच कहा बाहर ग्वालियर का नाम बहुत है, लेकिन जैसे ही कोई यहां आता और अव्यवस्थाएं देखता तो ठीक आपके रिश्तेदार की तरह ही प्रतिक्रिया जाहिर करता। अब उम्मीद है कि कुछ बेहतर हो जाए……..

  3. प्रिय मित्र लोकेन्द्र भाई, बड़ा अच्छा लगा ग्वालियर की स्थापना के बारें में पढ़कर, वाकई में अतिक्रमण करने वालों ने इस अभूतपूर्व शहर को गाँव एवं देहात से भी बदतर बना दिया था, चूंकि आप इसे बड़ी बारीक द्रष्टि से देख रहे हैं, तो यह अच्छी तरह समझा जा सकता है की यह शहर उस ज़माने में कितना शानदार रहा होगा, एक वाकया बताता हूँ मेरे एक रिश्तेदार पूना से ग्वालियर आये उनके शब्द थे की यार मैं तो सोचता था की माधव महाराज का शहर बेहद शानदार होगा “But this is not a city this is a big village” (यह शहर थोड़े ही है यह तो एक बड़ा गाँव है) यकीं मानिए मुझे यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ लेकिन आज मैं बहुत खुश हूँ यह शहर अपने पुराने रूप मैं लोटता दिख रहा है.

Leave a Reply to lokendra singh Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here