राजनीति

खिसियायें नहीं सीखें राहुल गांधी से

अभी-अभी प्रवक्ता पर राहुल गांधी से सम्बंधित एक आलेख और उस पर आये दो प्रतिक्रिया ने तुरत ही कुछ कहने को विवश किया है. उस एक आलेख पर इतना बाल नोचने या बबाल करने का मामला समझ में नहीं आता.वास्तव में कुछ चीज़ें राहुल में ऐसी है जिसकी तारीफ़ की जा सकती है और की जानी भी चाहिए. ये अलग बात है कि आज़ादी के बाद लगभग नब्बे प्रतिशत समय देश को जोतने में लगी रही कांग्रेस से ना केवल असहमति हो सकती है अपितु उसके कार्यकलापों से आप नफरत भी कर सकते हैं. वास्तव में देश को नरक बना डालने के अपराध में आप कांग्रेस को जितनी गाली दें वह कम है. आप यह भी कह सकते हैं कि आज देश में जो भी कुछ विकास दिख रहा है वह कांग्रेस के “कारण” नहीं बल्कि उसके “बावजूद” हुआ है. सांप्रदायिक तुष्टिकरण से लेकर गांव-गरीब-किसान के साथ जितना खिलवाड कांग्रेस ने किया है वह कल्पनातीत है. भय-भूख-भ्रष्टाचार बढाने को अपना अचार-विचार बनाए रखने वाली कांग्रेस को आप जितनी भी लानत भेजें कम है. ‘बांटो और राज करो’ के उसके फिरंगी फार्मूले से तो पूरे देश को ही नरक बनाने का पाप इस राजनीतिक दल ने किया है. अगर लोगों को पता होता कि आजादी के आंदोलन में अपनी सहभागिता की ऐसी कीमत यह पार्टी जन्म-जन्मांतर तक देश को चूस कर वसूलेगी तो लोग शायद गुलाम ही रहना अच्छा समझते. अभी भी दूसरी बार चुनकर आने के बाद अपने ही मतदाताओं को भूखे मार कर देश के अब तक के सबसे बड़े लूट इस महंगाई घोटाले को अंजाम देकर कांग्रेस-नीत सरकार ने अहसानफरामोशी का जो नज़ारा देश के सामने प्रस्तुत किया है, देखकर सोमनाथ को सत्रह बार लूटने वाले मुहम्मद भी शर्म से पानी-पानी हो जाते. हर उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत कई गुना बढाकर देश को कृत्रिम रूप से भूख की आग में धकेल देना, आतंक के विरोध को साम्प्रदायिकता का रूप देकर लोगों का ध्यान बटाना, पोटा जैसे कड़े क़ानून को हटाकर वोटों की तिजारत करना. बांग्लादेश से घुसपैठ को बढाबा देकर एवं कश्मीर से हिंदुओं को भगाने में मददगार बनकर हर तरह से अपनी रोटी सकना. जिंदगी को सस्ता एवं भोजन को महंगा बनाने वाली, जान-बूझकर लोगों के जान और माल से खिलवाड़ करने वाली इस पार्टी को और क्या कहा जाए. निश्चय ही बार-बार मिलते जा रहे जनादेश के बाद भगवान ही इस देश का मालिक है.

लेकिन इतना सब कुछ वर्णित करने के बाद भी, विशुद्ध भाजपाई होते हुए भी इस पंक्ति के लेखक को यह लगता है कि राहुल में ढेर सारी चीज़ें सीखने लायक है. अगर उससे सीखा नहीं गया तो निश्चय ही हमें और देश को भी कल महंगा पड़ेगा. विपक्ष को सबसे पहले ये समझना होगा कि भारत त्याग और बलिदान को नमन करता है. आप त्याग करें या न करें लेकिन करते दिखे ज़रूर ये ज्यादा ज़रूरी है. इस मामले में अपना देश इतना स्वार्थी है कि अपने घर में नहीं, लेकिन पड़ोस में उसे ज़रूर “भगत सिंह” चाहिए. तो सीधी सी बात है अगर कोई भी दल देश पर शासन करना चाहे या भारत को दिशा दिखाने का मुगालता पाले तो सबसे पहले उसे देश की प्रकृति को जानना और समझना होगा. दक्षिण अफ्रीका के सफल आन्दोलन के बाद मोहनदास जब भारत आये तो सबसे पहले उनके गुरु गोखले की सीख यही थी कि पहले देश में एक सामान्य व्यक्ति की तरह घूमो, हिन्दुस्तान को समझो और उसके बाद यहाँ किसी भी तरह के आन्दोलन या अन्य कोई बात सोचना. फिर आर्यावर्त को जान और समझ कर ही “मोहन” गांधी बनने में सफल हो पाए. उस समय उन्होंने यह बड़ी बात समझ ली थी कि भारत दो ही भाषा जानता है रामायण और महाभारत. तो उसके बाद उनके हर भाषणों, हर प्रतीकों में केवल राम और हिंदुत्व ही छाया रहा और वो देशवासियों को सही तरह से अपनी बातें संप्रेषित करने में सफल हो पाए. ये अलग बात है कि आजादी के बाद कांग्रेस द्वारा फैलाई गंदगी ने अब उन प्रतीकों को भी सांप्रदायिकता का जामा पहना दिया है. तथा बदली हुई परिस्थिति में आज के गाँधी परिवार ने यह समझ और बूझ लिया है कि त्याग और बलिदान की चाशनी देकर ही वह शासन करने का अपना सार्वाधिकार सुरक्षित रख सकता है. और अपने इस प्रयास में वह सोलह आने सफल हुआ है इसमें कोई दो मत नहीं है.

आप गौर करें और बताएं कि सोनिया गाँधी के अलावा भारत में आज की तारीख में और कौन जीवित व्यक्ति है जिसने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया हो? या राहुल के अलावा और कौन नेता ऐसा है जो मंत्री पद को ठुकरा कर आज देश की ख़ाक छान रहा हो. इस बात को कौन नहीं जानता कि मनमोहन सिंह एकाधिक बार सार्वजनिक मंचों से राहुल को कोई भी विभाग सम्हाल लेने का खुला निमंत्रण दे चुके हैं. तो एक ही परिवार में दो ऐसे लोगों का होना एक प्रेरक संयोग तो कहा ही जा सकता है. निश्चित रूप से बिना किसी पूर्वाग्रह के इसे स्वीकार करने की ज़रूरत है. वास्तव में अगर लोकतंत्र में परिवार का होना कोई योग्यता नहीं होनी चाहिए तो ये भी सच है कि किसी का खानदान से होना उसकी अयोग्यता भी नहीं है. और अगर सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुआ बालक अपनी स्वीकार्यता के लिए कलावती के दरवाज़े तक पहुच जाने का “नाटक” करने में सफल हो रहा है तो आखिर आपको किसने मना किया है ऐसा करने से? अगर दिल्ली का इंडिया गेट कलावती की झोपडी में जा कर खुलता है तो इस स्थिति का सामना करने और वातानुकूलित संयंत्रों से बाहर निकलने में आपको कौन रोक रहा है? कल ही की बात है, महंगाई के विरोध में छत्तीसगढ़ की पूरी सरकार और उसके सभी विधायक तेरह किलोमीटर की साइकिल यात्रा कर मंत्री निवास से विधानसभा गए. करोडो खर्च करने और पत्रकारों की चमचागिरी करने के बाद भी सरकार जितनी सुर्खी नहीं बटोर नहीं पाती उससे ज्यादा महज़ इस यात्रा ने बीजेपी को दे दिया. तो इस तरह के प्रतीकों का इस्तेमाल करने से आपको कौन रोक रहा है? लेकिन आप इसके उलट देखें….जब-जब मौका मिला है वि़पक्ष खासकर बीजेपी ने पिछले कुछ सालों में अपने कृत्यों से जनमानस को यही सन्देश दिया है कि उसका चरम और परम लक्ष्य केवल सत्ता का संधान करना है. यहाँ तक कि मानवता के घोषित शत्रु नक्सलियों के समर्थक शिबू की पार्टी से भी हाथ मिलाने में उसे परहेज़ नहीं. तो ऐसा सन्देश देकर आप कहाँ तक देश में स्वीकार्यता हासिल कर सकते हैं? उपरोक्त वर्णित कांग्रेस के कृत्यों से देश को बचाने में निश्चित ही केवल बीजेपी सक्षम है लेकिन उसके लिए इस पार्टी को भी अपनी पांचसितारा संस्कृति छोडनी ही होगी. अगर राहुल आज राष्ट्र को कुछ सन्देश दे सकने में सक्षम हैं तो बीजेपी को भी ऐसे किसी इशारे को समझने में देर नहीं करनी चाहिए. जब यहाँ पराजय के बाद रावण तक से सीख लेने की राम परंपरा देश में विद्यमान है तो कम से कम राहुल तो बिलकुल अपने हैं. उनसे किसी भी तरह की सीख लेने में कोई बुराई नहीं है. और न ही उसके कथित नाटक के लिए आलोचना का कोई कारण. यह सही है कि राहुल एक बड़ी पारी की आश में अपना यह खेल, खेल रहे हैं.लेकिन क्या आप किसी छात्र की इसलिए निंदा कर सकते हैं कि वह वैसे पढ़ने वाला नहीं था उसे तो बस आइएएस बनना है इसलिए पढाई कर रहा है?

-पंकज झा