बिदाई-बेला पर उपस्थित भावुक प्रसंगों से मिली सीख

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नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आज़ाद की राज्यसभा से विदाई-बेला पर उपस्थित भावुक दृश्यों एवं प्रसंगों के आलोक में भारतीय मन-मिज़ाज और संसदीय परंपरा को बेहतर ढ़ंग से जाना-समझा जा सकता है। यह देश अपनी प्रकृति-परंपरा, मन-मिज़ाज में औरों से बिलकुल अलहदा है। इसे किसी और चश्मे से देखने पर केवल निराशा ही हाथ लगेगी, आधा-अधूरा निष्कर्ष ही प्राप्त होगा, पर गहराइयों में उतरने पर कोई यहाँ सहज ही अद्वितीय अनुभव और सार्थक जीवन-मूल्यों की थाती पा जाएगा। यहाँ प्रीति-कलह साथ-साथ चलते हैं, प्यार के साथ तक़रार जुड़ा रहता है। भारत की रीति-नीति-प्रकृति से अनजान व्यक्ति को गाँवों-चौराहों-चौपालों पर चाय के साथ होने वाली गर्मागर्म बहसों को देखकर अचानक लड़ाई-झगड़े का भ्रम हो उठेगा। पर चाय पर छिड़ी वे चर्चाएँ हमारे उल्लसित मन-प्राण, विचारों के आदान-प्रदान के जीवंत प्रमाण हैं। यहाँ मतभेद तो हो सकते हैं, पर मनभेद के स्थाई गाँठ को कदाचित कोई नहीं पालना चाहता। और मतभेद चाहे विरोध के स्तर तक क्यों न चले जाएँ, पर विशेष अवसरों पर साथ निभाना, सहयोग करना, हाथ बँटाना और काँधा देना हमें बख़ूबी आता है। हमारे यहाँ दोस्ती तो दोस्ती, दुश्मनी के भी अपने उसूल हैं, मर्यादाएँ हैं। मान-मर्यादा हमारी परंपरा का सबसे मान्य, परिचित और प्रचलित शब्द है। हम अपने-पराए सभी को मुक्त कंठ से गले लगाते हैं, भिन्न विचारों का केवल सम्मान ही नहीं करते, अपितु एक ही परिवार में रहते हुए भिन्न-भिन्न विचारों को जीते-समझते हैं और विरोध की रौ में बहकर कभी लोक-मर्यादाओं की कूल-कछारें नहीं तोड़ते। मर्यादा तोड़ने वाला चाहे कितना भी क्रांतिकारी, प्रतिभाशाली क्यों न हो, पर हमारा देश उसे सिर-माथे नहीं बिठाता! सार्वजनिक जीवन जीने वालों से तो हम इस मर्यादा के पालन की और अधिक अपेक्षा रखते हैं। यही भारत की रीति है, नीति है, प्रकृति है, संस्कृति है।

प्रधानमंत्री मोदी और गुलाम नबी आज़ाद के वक्तव्यों से भारत की महान संसदीय परंपरा का परिचय मिलता है। संसदीय परंपरा की मान-मर्यादा, रीति-नीति-संस्कृति का परिचय मिलता है। आज की राजनीति में कई बार इसका अभाव देखने को मिलता है। यह राजनीति की नई पीढ़ी के लिए सीखने वाली बात है कि भिन्न दल और विचारधारा के होते हुए भी आपस में कैसे बेहतर संबंध और संवाद क़ायम रखा जा सकता है? कैसे एक-दूसरे के साथ सहयोग और सामंजस्य का भाव विकसित किया जा सकता है। यह सहयोग-समन्वय-सामंजस्य ही तो भारत की संस्कृति का मूल स्वर है। हमने लोकतंत्र को केवल एक शासन पद्धत्ति के रूप में ही नहीं स्वीकारा, बल्कि उसे अपनी जीवनशैली, जीवन-व्यवहार का हिस्सा बनाया। लोकतंत्र हमारे लिए जीने का दर्शन है, आचार-व्यवहार-संस्कार है। कतिपय विरोधों-आंदोलनों आदि के आधार पर जो लोग भारत और भारत के लोकतंत्र को देखने-जानने-समझने का प्रयास करते हैं, बल्कि यों कहें कि दंभ भरते हैं, उन्हें संपूर्णता एवं समग्रता में भारत कभी समझ नहीं आएगा। भारत को समझने के लिए भारत की जड़ों से जुड़ना पड़ेगा, उसके मर्म और मूल को समझना पड़ेगा। उसकी आत्मा और संवेदना तक पहुँचना पड़ेगा। यह कुछ नेति-नेति, न इति, न इति या चरैवेति-चरैवेति जैसा मामला है। यहाँ गहरे पानी पैठने से ही मोती हाथ आएगा, अन्यथा सीप-मूंगे को ही मोती मान ठगे-ठिठके रहेंगें।

लोक मंगल की कामना और प्राणि-मात्र के प्रति संवेदना ही हमारी सामूहिक चेतना का ध्येय है, आधार है। आतंकी घटना के संदर्भ में ग़ुलाम नबी आजाद के इस कथन ”खुदा तूने ये क्या किया… मैं क्या जवाब दूँ इन बच्चों को… इन बच्चों में से किसी ने अपने पिता को गँवाया तो किसी ने अपनी माँ को… ये यहाँ सैर करने आए थे और मैं उनकी लाशें हवाले कर रहा हूँ” में यही चेतना-संवेदना छिपी है। कश्मीरी पंडितों के उजड़े आशियाने को फिर से बसाने की उनकी अपील, आतंकवाद के ख़ात्मे की दुआ और उम्मीद के पीछे भी यह संवेदना ही है। यह संवेदनशीलता ही भारतीय सामाजिक-सार्वजनिक और कुछ अर्थों में राजनीतिक जीवन का भी मर्म है। जो इसे जीता है, हमारी स्मृतियों में अमर हो जाता है। उनके इस बयान ने हर हिंदुस्तानी का दिल जीता है कि ”मैं उन खुशकिस्मत लोगों में हूँ जो कभी पाकिस्तान नहीं गया। लेकिन जब मैं वहाँ के बारे में पढ़ता हूँ या सुनता हूँ तो मुझे गौरव महसूस होता है कि हम हिंदुस्तानी मुसलमान हैं। विश्व में किसी मुसलमान को यदि गौरव होना चाहिए तो हिंदुस्तान के मुसलमान को होना चाहिए।” सचमुच उन्होंने अपने इस बयान से ऐसे सभी लोगों को गहरी नसीहत दी है जो कथित तौर पर बढ़ती असहिष्णुता का ढ़ोल पीटते रहते हैं या विद्वेष एवं सांप्रदायिकता की विषबेल को सींचकर विभाजन की राजनीति करते हैं।

वहीं गुलाम नबी आज़ाद के साथ बिताए गए पलों-संस्मरणों को साझा करते हुए भावुक हो उठना, सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उनके योगदान की मुक्त कंठ से प्रशंसा करना- प्रधानमंत्री मोदी की उदारता, सहृदयता, संवेदनशीलता का परिचायक है। कृतज्ञता भारतीय संस्कृति का मूल स्वर है। उसे जी और निभाकर प्रधानमंत्री ने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्वस्थ लोकतांत्रिक एवं सनातन परंपरा का निर्वाह किया है। ऐसे चित्र व दृश्य भारतीय लोकतंत्र की जीवंतता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। दुर्भाग्य से इन दिनों ऐसे चित्र-दृश्य कुछ दुर्लभ-से हो गए हैं। संसदीय व्यवस्था में सत्ता-पक्ष व विपक्ष के बीच सतत संवाद-सहमति, सहयोग-सहकार, स्वीकार-सम्मान का भाव प्रबल होना ही चाहिए। यही लोकतंत्र की विशेषता है। इसी में संसदीय परंपरा की महिमा और गरिमा है। संभव है, इसे कुछ लोग कोरी राजनीति कहकर विशेष महत्त्व न दें, बल्कि सीधे ख़ारिज कर दें। परंतु मूल्यों के अवमूल्यन के इस दौर में ऐसी राजनीति की महती आवश्यकता है। ऐसी राजनीति ही राष्ट्र-नीति बनने की सामर्थ्य-संभावना रखती है। ऐसी राजनीति से ही देश एवं व्यवस्था का सुचारु संचालन संभव होगा। केवल विरोध के लिए विरोध की राजनीति से देश को कुछ भी हासिल नहीं होगा। विपक्ष को साथ लेना यदि सत्ता-पक्ष की जिम्मेदारी है तो विपक्ष की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह राष्ट्रीय हितों के मुद्दों पर सरकार का साथ दे, सहयोग करे, जनभावनाओं की मुखर अभिव्यक्ति के साथ-साथ विधायी एवं संसदीय प्रक्रिया एवं कामकाज को गति प्रदान करे। लोकतंत्र में सरकार न्यासी और विपक्ष प्रहरी की भूमिका निभाए,; न ये निरंकुश हों, न वे अवरोधक।

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