हमारी यह सृष्टि किसने, क्यों व कब बनाई है?

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-मनमोहन कुमार आर्य

                मनुष्य जब संसार में आता हैं और उसकी आंखे खुलती हैं तो वह अपने सामने सूर्य के प्रकाश, सृष्टि तथा अपने माता, पिता आदि संबंधियों को देखता है। बालक अबोध होता है अतः वह इस सृष्टि के रहस्यों को समझ नहीं पाता। धीरे धीरे उसके शरीर, बुद्धि ज्ञान का विकास होता है और वह सोचना आरम्भ करता है। कुछ विचारशील बच्चों युवाओं का ध्यान सृष्टि की ओर जाता है और वह सोचता है कि इस सृष्टि जगत् को बनाने वाला कौन है?  किसने इस विशाल सृष्टि को बनाया है? इस सृष्टि को किस प्रयोजन के लिए उस सृष्टिकर्ता ने बनाया है? एक प्रश्न यह भी सम्मुख आता है कि हमारी यह सृष्टि कब बनी है? इन प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर आधुनिक विज्ञान के पास भी नहीं है। संसार में अनेक विचारक हो चुके हैं परन्तु सबने इन प्रश्नों के उत्तर देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की है। यदि उनके पास उत्तर होते तो वह अवश्य अपने साहित्य व अपने शिष्यों के माध्यम से उनका प्रचार करते। यदि मनुष्य के मन में प्रश्न व शंका होती है तो उसका कुछ न कुछ उत्तर भी अवश्य होता है। हमारे ऋषियों ने संसार में किसी भी प्रश्न की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने हर प्रश्न का सूक्ष्म दृष्टि से विचार व मन्थन किया और सत्यज्ञान से युक्त सबको स्वीकार्य उत्तर खोजे जिनसे आज हम लाभान्वित हो रहे हैं। सृष्टि को पूरा पूरा समझने के लिए मनुष्य को वेदों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। वेदों को पढ़कर व जानकर तथा वैदिक साहित्य व परम्पराओं का ज्ञान प्राप्त कर सृष्टि विषयक सभी प्रश्नों का सत्य समाधान हो जाता है जो कि अन्य साधनों से नहीं होता। अतः वेद एवं वेदों पर आधारित सत्य ज्ञान से युक्त तथा मनुष्य की सभी शंकाओं व भ्रान्तियों को दूर करने वाले अद्वितीय ग्रन्थ ऋषि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का सभी मनुष्यों को अवश्य अध्ययन करना चाहिये। यह ग्रन्थ मनुष्य की प्रायः सभी व अधिकतम शंकाओं व भ्रान्तियों को दूर करता है। जिस जीवात्मा ने भी मनुष्य जन्म लिया है और सत्यार्थप्रकाश नहीं पढ़ा, हम समझते हैं कि उस मनुष्य ने अपने मनुष्य जन्म व जीवन को सार्थक नहीं किया है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य का जीवन सार्थक एवं सफल होता है। अतः मनुष्य को निष्पक्ष होकर सत्यार्थप्रकाश को आद्योपान्त पढ़ना व समझना चाहिये इससे वह अपने मनुष्य जन्म को सफल कर सकते हैं।

                सृष्टि को देखकर इसकी रचना किसी अपौरुषेय सत्ता से होने का ज्ञान होता है। एक संसार के करोड़ों मनुष्य सभी महापुरुष मिलकर भी इस सृष्टि वा इसके सूर्य, चन्द्र, पृथिवी ग्रह उपग्रहों का निर्माण नहीं कर सकते। इससे यह विदित होता है कि इस संसार में एक अपौरुषेय सत्ता विद्यमान है। वह सत्ता कैसी है, उसके गुण, कर्म, स्वभाव स्वरूप कैसा है, इसका पूरा ज्ञान हमें वेद एवं वैदिक साहित्य यथा उपनिषद, दर्शन ग्रन्थों आदि से यथावत् होता है। वेद इस संसार की रचना करने पालन करने वाली उसी सत्ता ईश्वर से प्रदत्त ज्ञान है। वेदों का अध्ययन व वेदों के मन्त्रों का सत्यार्थ जानकर ज्ञान होता है कि वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं। ईश्वर ने यह वेद ज्ञान मनुष्य को धर्म व अधर्म अथवा कर्तव्य व अकर्तव्य का बोध कराने के लिए सृष्टि की आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों में चार योग्यतम ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद प्रदान कर दिया था। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसी कारण से वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यों का परम धर्म है। ऋषि दयानन्द चार वेदों के ज्ञानी पण्डित थे तथा वह ऋषि परम्परा में अपूर्व ऋषि हुए हैं। उन्होंने योग विद्या द्वारा सृष्टिकर्ता ईश्वर का साक्षात्कार भी किया था। उन्होंने वेदों से ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव का परिचय देने के लिए एक नियम बनाया है जिसमें ईश्वर के प्रमुख गुणों का उल्लेख किया है। चह नियम है ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। ईश्वर की सत्ता यथार्थ सत्ता है। ईश्वर के बनाये नियम ही इस सृष्टि में कार्य कर रहे हैं। ईश्वर के सृष्टि विषयक नियमों को सूक्ष्मता च यथार्थता से जानना ही विज्ञान कहलाता है। उस ईश्वर ने सप्रयोजन इस सृष्टि को बनाया है। योग साधना व समाधि को प्राप्त होकर ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार किया जा सकता है। स्वाध्याय, ध्यान तथा चिन्तन व मनन आदि क्रियाओं व साधनाओं द्वारा भी ईश्वर को जाना व समझा जा सकता है। मनुष्य सृष्टि को नहीं बना सकते। मनुष्यांे व चेतन प्राणियों से इतर अन्य कोई चेतन सत्ता यदि है तो वह ईश्वर की ही सत्ता है जो सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है। सृष्टि का आदि उपादान कारण त्रिगुणों सत्व, रज व तम से युक्त प्रकृति परमात्मा के पूर्ण वश व नियंत्रण में होती है। अतः सच्चिदानन्दस्वरूप वाले परमेश्वर से ही उपादान कारण प्रकृति से इस सृष्टि का निर्माण वा रचना हुई है। ऐसा वर्णन ही वेदों में मिलता है और वेदों के समर्थन में सांख्य दर्शन के सूत्रों में सृष्टि उत्पत्ति का तर्क व युक्तियों से युक्त यथावत् वर्णन मिलता है। सृष्टि किस सत्ता व पदार्थ से उत्पन्न हुई है, इसका उत्तर है कि हमारी यह सृष्टि व समस्त चराचर जगत् सर्वव्यापक व सर्वज्ञ सृष्टिकर्ता ईश्वर, जो सृष्टि का निमित्त कारण है, उससे उत्पन्न हुई है। उसने सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति की विकृतियों द्वारा ही समस्त संसार को बनाया है। इसको अधिक विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास सहित सांख्य दर्शन एवं वेदों का अध्ययन करना चाहिये जिससे सृष्टि रचना विषयक इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है।

                ईश्वर ने सृष्टि क्यों बनाई है, इसका उत्तर है कि ईश्वर, जीव प्रकृति, इन तीन अनादि सत्ताओं में जीव चेतन, एकदेशी, अल्पज्ञ, अनादि नित्य सत्ता है। संसार में जीवों की संख्या अनन्त अगण्य है। यह अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल भोगने के लिए ईश्वर से सृष्टि में जन्म पाते उन कर्मों का सुख दुःख रूपी फल भोगते है। जीवों को जन्म दिये बिना जीवों के कर्मों का भोग सम्भव नहीं होता। अतः जीवों के कर्मों का सुख दुःख रूपी भोग कराने के लिए परमात्मा प्रकृति से इस सृष्टि का निर्माण करते हैं। इस सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में प्रकृति में हलचल होकर सृष्टि के निर्माण में सहायक सभी सूक्ष्म व स्थूल पदार्थ बनते हैं। सृष्टि के बन जाने पर ही जीवों को अमैथुनी रीति से जन्म देना सम्भव होता है। अतः परमात्मा लगभग 6 चतुर्युगियों में जो 2.59 करोड़ वर्ष से अधिक का समय होता है, इस अवधि में सृष्टि का निर्माण कार्य पूरा करते हैं। हमें यह भी जानना चाहिये कि सृष्टि काल को ईश्वर का दिन तथा प्रलय काल को रात्रि की उपमा दी जाती है। इस प्रकार से ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण अल्पज्ञ अनादि व नित्य तथा अविनाशी चेतन सत्ता जीवों के कर्म फल भोग के लिए व मुक्ति की प्राप्ति हेतु किया है। इस सृष्टि काल को वैदिक गणना के अनुसार 1.96 अरब वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। सृष्टि के भुक्त व निर्माण काल तथा सृष्टि की शेष अवधि की गणना को सत्यार्थप्रकाश तथा इतर वैदिक साहित्य को पढ़कर समझा जा सकता है और इस विषय में निभ्र्रान्त हुआ जा सकता है। हमने लेख में जिन प्रश्नों को उठाया है उन सभी का उत्तर संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया है। हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि जीवात्मा अनादि, नित्य व चेतन सत्ता है। यह कर्म फल के बन्धनों में बंधी हुई है। यदि जीवात्मा का जन्म व मरण न हो तो उसका अस्तित्व, जन्म व मरण को प्राप्त हुए बिना, सार्थकता को प्राप्त नहीं होता। जीवात्मा के अस्तित्व को सार्थकता प्राप्त करने के लिए संसार में ईश्वर नाम की सत्ता है। ईश्वर दयालु व कृपालु स्वभाव वाली सत्ता है। अतः वह अपने ज्ञान व विज्ञान सहित शक्तियों का प्रयोग कर सृष्टि उत्पत्ति सहित जीवों को उनके यथायोग्य कर्म फल देने के लिए ही इस सृष्टि का निर्माण करती व सृष्टि का संचालन करती है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर इस पूरे रहस्य व ज्ञान को जाना जा सकता है। हम निवेदन करेंगे कि सभी सत्यज्ञान व निभा्र्रान्त ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक बन्धु पक्षपात से ऊपर उठकर सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन अवश्य करें। ऐसा करके तथा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से ही उनका जीवन सार्थक व सफल होगा। वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकेंगे। परजन्म में उनकी उन्नति होगी। वह मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होंगे और अनेक जन्मान्तरों पर आत्मा को मोक्ष मिलना सम्भव है।

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