…आओ बचाएं अपनी वसुंधरा?

0
508

Swatch-Bharatपृथ्वी दिवस पर जल, जंगल और जमीन बचाने का संकल्प लें

रमेश पाण्डेय

हाल के कुछ साल, महीने और दिवस में नेपाल में आयी भूकंप त्रासदी, पाकिस्तान में बाढ़, जम्मू कश्मीर में जल प्रलय, जापान से लेकर अफगानिस्तान तक धरती के कंपने, इक्वाडोर में भूकंप जैसी भयावह खबरे अखबार की सुर्खियां रहीं। वर्तमान में लातूर का जल संकट, बुंदेलखंड और विदर्भ में सूखे के हाल से सभी परिचित हैं। अक्सर यह समाचार सुनने को मिलते हैं कि उत्तरी ध्रुव की ठोस बर्फ कई किलोमीटर तक पिघल गई है। सूर्य की पराबैगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत में छेद हो गया है। इसके अलावा फिर भयंकर तूफान, सुनामी और भी कई प्राकृतिक आपदों की खबरें आप तक पहुँचती हैं, हमारे पृथ्वी ग्रह पर जो कुछ भी हो रहा है? इन सभी के लिए मानव ही जिम्मेदार हैं, जो आज ग्लोबल वार्मिग के रूप में हमारे सामने हैं। धरती रो रही है। निश्चय ही इसके लिए कोई दूसरा नहीं बल्कि हम ही दोषी हैं। भविष्य की चिंता से बेफिक्र हरे वृक्ष अधाधुंध काटे गए और यह क्रम वर्तमान में भी जारी है। इसका भयावह परिणाम भी दिखने लगा है। सूर्य की पराबैगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत का इसी तरह से क्षरण होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तिव ही समाप्त हो जाएगा। जीव-जन्तु अंधे हो जाएंगे। लोगों की त्वचा झुलसने लगेगी और त्वचा कैंसर रोगियों की संख्या बढ़ जाएगी। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती इलाके चपेट में आ जाएंगे। इसके लिए समय रहते सोचना होगा। हम अपनी वसुंधरा को कैसे बचाएं। सोचना होगा, मुकम्मल रणनीति तैयार करनी होगी। सरकार को भी एक कानून बनाना होगा। इस बार पृथ्वी दिवस पर आइए हम सभी मिलजुलकर जल, जंगल और जमीन को कैसे बचाएं, जीवन को कैसे सुरक्षित रखें। इस पर न केवल विचार करें बल्कि संकल्प लें कि हम पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचने देंगे।

धरती खो रही है अपना प्राकृतिक रूप
आज हमारी धरती अपना प्राकृतिक रूप खोती जा रही है। जहाँ देखों वहाँ कूड़े के ढेर व बेतरतीब फैले कचरे ने इसके सौंदर्य को नष्ट कर दिया है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में तेजी से वृध्दि के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट पदार्थों द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विकराल होती जा रही है। ठोस अपशिष्ट पदार्थों के समुचित निपटान के लिए पर्याप्त स्थान की आवश्यकता होती है। ठोस अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा में लगातार वृद्धि के कारण उत्पन्न उनके निपटान की समस्या न केवल औद्योगिक स्तर पर अत्यंत विकसित देशों के लिए ही नहीं वरन कई विकासशील देशों के लिए भी सिरदर्द बन गई है। भारत में प्लास्टिक का उत्पादन व उपयोग बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। औसतन प्रत्येक भारतीय के पास प्रतिवर्ष आधा किलो प्लास्टिक अपशिष्ट पदार्थ इकट्ठा हो जाता है। इसका अधिकांश भाग कूड़े के ढेर पर और इधर-उधर बिखर कर पर्यावरण प्रदूषण फैलाता है।

पर्यावरण में जहर घोल रहा पॉलीथीन
आधुनिक युग में सुविधाओं के विस्तार ने सबसे अधिक पर्यावरण को ही चोट पहुंचाई। लोगों की सुविधा के लिए इजाद की गई पॉलीथीन आज मानव जाति के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है। नष्ट न होने के कारण यह भूमि की उर्वरक क्षमता को खत्म कर रही है। यह भूजल स्तर को घटा रही है और उसे जहरीला बना रही है। पॉलीथीन को जलाने से निकलने वाला धुआं ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचा रहा है, जो ग्लोबल वार्मिग का बड़ा कारण है। पॉलीथीन कचरे से देश में प्रतिवर्ष लाखों पशु-पक्षी मौत का ग्रास बन रहे हैं। लोगों में तरह-तरह की बीमारियां फैल रही हैं, जमीन की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है तथा भूगर्भीय जलस्रोत दूषित हो रहे हैं। प्लास्टिक के ज्यादा संपर्क में रहने से लोगों के खून में थेलेट्स की मात्रा बढ़ जाती है। इससे गर्भवती महिलाओं के गर्भ में पल रहे शिशु का विकास रुक जाता है और प्रजनन अंगों को नुकसान पहुंचता है। प्लास्टिक उत्पादों में प्रयोग होने वाला बिस्फेनॉल रसायन शरीर में डायबिटीज व लिवर एंजाइम को असामान्य कर देता है। पॉलीथीन कचरा जलाने से कार्बन डाईआॅक्साइड, कार्बन मोनोआॅक्साइड एवं डाईआॅक्सीन्स जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं। इनसे सांस, त्वचा आदि की बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती है। इन थैलों का अधिक इस्तेमाल करके हम न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे है, बल्कि गंभीर रोगों को भी न्यौता दे रहे है। इन्हे यूं ही फेंक देने से नालियां जाम हो जाती है। इससे गंदा पानी सड़कों पर फैलकर मच्छरों का घर बनता है। इस प्रकार यह कालरा, टाइफाइड, डायरिया व हेपेटाइटिस-बी जैसी गंभीर बीमारियों का भी कारण बनते है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 500 मीट्रिक टन पॉलीथिन का निर्माण होता है, लेकिन इसके एक प्रतिशत से भी कम की रीसाइकिलिंग हो पाती है। अनुमान है कि भोजन के धोखे में इन्हे खा लेने के कारण प्रतिवर्ष एक लाख समुद्री जीवों की मौत हो जाती है। इनको निगलने से मवेशियों की मौत की खबरें तो तुमने भी पढ़ी-सुनी होंगी। जमीन में गाड़ देने पर पॉलीथिन थैले अपने अवयवों में टूटने में 1,000 साल से अधिक ले लेती है। यह पूर्ण रूप से तो कभी नष्ट होते ही नहीं हैं। यहाँ तक कि जिन पॉलीथिन के थैलों पर बायोडिग्रेडेबल लिखा होता है, वे भी पूर्णतया इकोफ्रेंडली नहीं होते है।

ग्लोबल वार्मिग की समस्या
पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि ही ग्लोबल वार्मिग कहलाता है। वैसे, पृथ्वी के तापमान में बढोत्तरी की शुरूआत 20वीं शताब्दी के आरंभ से ही हो गई थी। माना जाता है कि पिछले सौ सालों में पृथ्वी के तापमान में 0.18 डिग्री की वृद्धि हो चुकी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि धरती का टेम्परेचर इसी तरह बढता रहा, तो 21वीं सदी के अंत तक 1.1-6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ जाएगा। हमारी पृथ्वी पर कई ऐसे केमिकल कम्पाउंड पाए जाते हैं, जो तापमान को बैलेंस करते हैं। ये ग्रीन हाउस गैसेज कहलाते हैं। ये प्राकृतिक और मैनमेड (कल-कारखानों से निकले) दोनों होते है। ये हैं- वाटर वेपर, मिथेन, कार्बन डाईआॅक्साइड, नाइट्रस आॅक्साइड आदि। जब सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पड़ती हैं, तो इनमें से कुछ किरणें (इंफ्रारेड रेज) वापस लौट जाती हैं। ग्रीन हाउस गैसें इंफ्रारेड रेज को सोख लेती हैं और वातावरण में हीट बढ़ाती हैं। यदि ग्रीन हाउस गैस की मात्रा स्थिर रहती है, तो सूर्य से पृथ्वी पर पहुंचने वाली किरणें और पृथ्वी से वापस स्पेस में पहुंचने वाली किरणों में बैलेंस बना रहता है, जिससे तापमान भी स्थिर रहता है। वहीं दूसरी ओर, हम लोगों (मानव) द्वारा निर्मित ग्रीन हाउस गैस असंतुलन पैदा कर देते हैं, जिसका असर पृथ्वी के तापमान पर पडता है। यही ग्रीन हाउस इफेक्ट कहलाता है। दरअसल, पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने के लिए दशकों पूर्व काम शुरू हो गया था। लेकिन मानव निर्मित ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन में कमी लाने के लिए दिसंबर 1997 में क्योटो प्रोटोकोल लाया गया। इसके तहत 160 से अधिक देशों ने यह स्वीकार किया कि उनके देश में ग्रीन हाउस गैसों के प्रोडक्शन में कमी लाई जाएगी। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 80 प्रतिशत से अधिक ग्रीन हाउस गैस का उत्पादन करने वाले अमेरिका ने अब तक इस प्रोटोकोल को नहीं माना है।

मौसम चक्र हुआ अनियमित
आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि समस्त मानव जाति है। सुविधाभोगी जीवन शैली में सामाजिक सरोकारों को पीछे छोड़ दिया है। जैसे-जैसे हम विकास के सोपान चढ़ रहे हैं वैसे-वैसे पृथ्वी पर नए-नए खतरे उत्पन्न हो रहे हैं। दिन-प्रतिदिन घटती हरियाली व बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण रोज नई समस्याओं को जन्म दे रहा है। इस कारण प्रकृति का मौसम चक्र भी अनियमित हो गया है। अब सर्दी, गर्मी और वर्षा का कोई निश्चित समय नहीं रह गया। हर वर्ष तापमान में हो रही वृद्धि से बारिश की मात्रा कम हो रही है। इस कारण भू जल स्तर में भारी कमी आई है। अगर समय रहते कोई उपाय नहीं किए तो समस्याएं इतना विकराल रूप धारण कर लेंगी। इसलिए सभी को एकजुट होकर पृथ्वी को बचाने के उपाय करने होंगे। इसमें प्रशासन, सामाजिक संगठन, स्कूल, कालेज सहित सभी को इसमें भागीदारी निभानी होगी।

क्या करें :-
1. बाजार जाते समय साथ में कपड़े का थैला, जूट का थैला या बॉस्केट ले जाएं।
2. हम प्रत्येक सप्ताह कितने पॉलीथिन थैलों का इस्तेमाल करते हैं, इसका हिसाब रखें और इस संख्या को कम से कम आधा करने का लक्ष्य बनाएं।
3. यदि पॉलीथिन थैले के इस्तेमाल के अलावा कोई और विकल्प न बचे तो एक सामान को एक पॉलीथिन थैले में रखने के स्थान पर कई सामान एक ही थैले में रखने की कोशिश करे।
4. घर पर पॉलीथिन थैलों का काफी उपयोग किया जाता है. जैसे लंच पैक करना, कपड़े रखना या कोई अन्य घरेलू सामान रखना, इनमें से कुछ को कम करने का प्रयास करे।
5. पॉलीथिन के थैलों से जितना बच सकते है, बचें। पॉलीथिन के थैलों को एक बार इस्तेमाल कर फेंकने के स्थान पर उनका पुन: प्रयोग करने का प्रयास करे।
6. स्थानीय अखबारों में चिट्ठिया लिखकर, स्कूल में पोस्टर के द्वारा या प्रजेंटेशन से इस मसले पर जागरुकता फैलाने का काम करे।
7. पृथ्वी दिवस के दिन पोलीथिन के उपयोग से बचें. बाजार जाते समय कप़ड़े का बेग साथ लें जाएँ. ऐसा कर आप पर्यावरण संरक्षण यज्ञ में छोटी ही सही, पर महत्वपूर्ण आहूति दे सकते हैं।
चिंतन मनन का दिन
विश्व पृथ्वी दिवस महज एक दिन मनाने का नहीं है. यह दिन है इस बात के चिंतन मनन का कि हम कैसे अपनी वसुंधरा को बचा सकते हैं ? ऐसे कई तरीके हैं जिसे हम अकेले और सामूहिक रूप से अपनाकर धरती को बचाने में योगदान दे सकते हैं। वैसे तो हमें हर दिन को पृथ्वी दिवस मानकर उसके संरक्षण के लिए कुछ न कुछ करते रहना चाहिए, लेकिन अपनी व्यस्तता में व्यस्त इंसान यदि विश्व पृथ्वी दिवस के दिन ही थो़ड़ा बहुत योगदान दे तो धरती के ऋण को उतारा जा सकता है। हम सभी जो कि इस स्वच्छ श्यामला धरा के रहवासी हैं उनका यह दायित्व है कि दुनिया में कदम रखने से लेकर आखिरी साँस तक हम पर प्यार लुटाने वाली इस धरा को बचाए रखने के लिए जो भी सकें करें क्योंकि यह वही धरती है जो हमारे बाद भी हमारी निशानियों को अपने सीने से लगाकर रखेगी। लेकिन यह तभी संभव होगा जब वह हरी-भरी तथा प्रदूषण से मुक्त रहे और उसे यह उपहार आप ही दे सकते हैं। तो हर दिन को पृथ्वी दिवस मानें और आज से ही नहीं अभी से ही करें इसे बचाने के प्रयास करे।
विश्व पृथ्वी दिवस और उसका इतिहास
सच है कि 22 अप्रैल का पृथ्वी से सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं है। जब पृथ्वी दिवस का विचार सामने आया, तो भी पृष्ठभूमि में विद्यार्थियों का एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन था। वियतनामी यु़द्ध विरोध में उठ खड़े हुए विद्यार्थियों का संघर्ष! 1969 में सान्ता बारबरा (कैलिफोर्निया) में बड़े पैमाने पर बिखरे तेल से आक्रोशित विद्यार्थियों को देखकर गेलॉर्ड नेलसन के दिमाग में ख्याल आया कि यदि इस आक्रोश को पर्यावरणीय सरोकारों की तरफ मोड़ दिया जाए, तो कैसा हो। नेलसन, विसकोंसिन से अमेरिकी सीनेटर थे। उन्होंने इसे देश को पर्यावरण हेतु शिक्षित करने के मौके के रूप में लिया। गेलॉर्ड नेलसन की युक्ति का नतीजा यह हुआ कि 22 अप्रैल,1970 को संयुक्त राज्य अमेरिका की सड़कों, पार्कों, चौराहों, कॉलेजों, दफ्तरों पर स्वस्थ-सतत पर्यावरण को लेकर रैली, प्रदर्शन, प्रदर्शनी, यात्रा आदि आयोजित किए। वर्ष 1970 के प्रथम पृथ्वी दिवस आयोजन के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के दिल में भी ख्याल आया कि पर्यावरण सुरक्षा हेतु एक एजेंसी बनाई जाए। 1992 में रियो डी जेनेरियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन ने पूरी दुनिया की सरकारों और स्वयंसेवी जगत में नई चेतना व कार्यक्रमों को जन्म दिया। आज, जब वर्ष 1970 की तुलना में पृथ्वी हितैषी सरोकारों पर संकट ज्यादा गहरा गए हैं कहना न होगा कि इस दिन का महत्व कम होने की बजाय, बढ़ा ही है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,283 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress