राजनीति

लिब्राहन आयोग की रपट के पीछे की राजनीति

P-2686 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में राम जन्म भूमि पर स्थित विवादित ढांचे को राम भक्तों ने गिरा दिया था। दरअसल, अर्से पहले राम जन्म भूमि के ऐतिहासिक राम मन्दिर को तोड़ कर आक्रांता मुस्लिम सेनाओं ने उस पर मस्जिद के नाम से एक ढांचा खड़ा कर दिया था। भारत के लोगों में इस अपमान को लेकर गुस्सा था, जिसकी अभिव्यक्ति 6 दिसम्बर को हुई। लेकिन लगता है भारत सरकार मुगल बादशाह के बनाए हुए इस ढांचे को बनाए रखने में ज्यादा रूची रखती थी, इसलिए उसने इस विवादित ढांचे को तोड़ने के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों और शक्तियों की शिनाख्त करने के लिए मद्रास उच्च न्यायलय के पूर्व मुख्य न्यायधीश श्री मनमोहन सिंह लिब्राहन को नियुक्त किया। श्री लिब्राहन आयोग की अवधि तीन महीने निश्चित की गई थी और उनकों तीन महीने के अन्दर-अन्दर अपनी रपट सरकार को देनी थी जाहिर है कि सभी परिस्थितियों को देखते हुए जब लिब्राहन ने इस जिम्मेदारी को स्वीकार किया होगा। तो उन्हें स्वयं पर यह विश्वास होगा ही कि वे यह काम तीन महीने में बखूबी निपटा लेंगे। लेकिन दुर्भाग्य से जो काम आयोग को तीन महीने में पूरा करना था उसे आयोग ने 17 साल में पूरा किया।

लिब्राहन ने अपनी रपट भारत सरकार को सौंप दी और भारत सरकार के गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के अनुसार इस रपट की एक ही प्रति है और वह प्रति उन्होंने सुरक्षित रखी हुई है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस रपट की प्रति या तो लिब्राहन के पास थी या फिर गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के पास। कायदे से इस रपट को संसद में प्रस्तुत किया जाना था। लेकिन बेकायदे से यह रपट संसद में प्रस्तुत करने से पूर्व ही मीडिया को लीक हो गई या लीक कर दी गई। लीक हो गई या लीक कर दी गई दोनों वाक्य एक दूसरे के पूरक हैं। क्योंकि जब कोई रपट लीक होती है तो कोई न कोई व्यक्ति उसे लीक करता ही है। एक तीसरी संभावना भी हो सकती है कि रपट चोरी हो गई हो लेकिन न तो लिब्राहन ने और न ही पी. चिदम्बरम ने रपट के चोरी हो जाने की कोई सूचना पुलिस में दर्ज ही नहीं करवाई है। इसका अर्थ यही हुआ कि रपट लीक हुई है। अब प्रश्न यह है कि लिब्राहन या पी. चिदम्बरम इन दोनों में से किसने रपट लीक की ? पी. चिदम्बरम का यह कहना है कि वे तो रपट को लीक कर ही नहीं सकते क्योंकि इससे सबसे ज्यादा नुकसान गृह मंत्री को ही हो सकता है।

तब पत्रकारों ने चंडीगढ़ में यही प्रश्न मनमोहन सिंह लिब्राहन से पूछा। जैसा अखबरों में छपा है लिब्राहन का कहना है कि वे इतने चरित्रहीन नहीं है कि रपट को लीक कर दें। दरअसल वे तो इस प्रश्न पर अपना आपा ही खो बैठे और गुस्से में उन्होंने मीडियाकर्मियों को दफा हो जाने के लिए भी कहा। जाहिर है जब पी. चिदम्बरम और लिब्राहन में इस बात को लेकर विवाद हो कि यह रपट किसने लीक की है तो इसका निपटारा कोई जॉच आयोग ही कर सकता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह तुरन्त इस बात का निपटारा करने के लिए और दोषी व्यक्यिों या शक्तियों की शिनाख्त करने के लिए किसी पूर्व न्यायधीश की अध्यक्षता में, चाहे एक सदस्यीय ही सही, एक जांच आयोग गठित करना चाहिए। लेकिन सरकार को इस बात का ध्यान रखना होगा कि यह आयोग तीन मास के भीतर निश्चित ही अपनी रपट दे दे उसे कम से कम 17 साल तक लम्बा न खीचे।

लिब्राहन ने 17 साल की कड़ी मश्क्कत के बाद जो हजारों पन्नों की रपट प्रस्तुत की है उसे पढ़कर नहीं लगता की यह न्यायिक रपट है। उसे पढ़कर ऐसा ऐहसास होता है कि मानों लिब्राहन न्यायिक प्रक्रिया को छोड़कर भाषण की मुद्रा में उतर आएं हैं। वे जांच अधिकारी कम उपदेशक ज्यादा दिखाई देते हैं। रपट में स्थान-स्थान पर उन्होंने इस प्रकार की लम्बी-लम्बी टिपणियां की हैं। वे बताते हैं कि राम जन्म भूमि मुक्ति आंदोलन में मोटे तौर पर देश की जनता जुड़ी हुई नहीं थी। यह तो कुछ संस्थाओं द्वारा छेड़ा गया आंदोलन था जिसमें आम भागीदारी नहीं थी। ऐसे भाषण कांग्रेस पार्टी का कोई नेता या सीपीएम का कोई कार्यकर्ता करे तो बात समझ में आती है। लेकिन लिब्राहन से इस प्रकार के भाषण की आशा नहीं थी। इसलिए नहीं कि उनको भाषण देने का अधिकार नहीं है बल्कि इसलिए कि यह उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। यदि उनको इस प्रकार के उपदेश और भाषण देने का इतना ही शौक है तो उनको इसके लिए जांच आयोग के मंच का प्रयोग नहीं करना चाहिए था बल्कि किसी राजनैतिक दल अथवा समाजिक संस्था के मंच का सहारा लेना चाहिए था। उन्होंने रपट में मुसलमानों को भी फटकारा है कि वे विवादित ढांचे की रक्षा नहीं कर पाए और उन्होंने तो उसे गिराने का अवसर ही प्रदान किया। लिब्राहन का यह व्यवहार अत्यन्त आपत्तिजनक है। ये दो टिपणियां तो केवल उदाहरण के लिए हैं। इस प्रकार की टिपणियों की रपट में भरमार है।

लिब्राहन ने अपनी रपट में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को भी लपेट लिया है जबकि उन्होंने कभी भी वाजपेयी को अपने समक्ष प्रस्तुत हो कर अपनी बात कहने को अवसर नहीं दिया। लिब्राहन मुख्य न्यायधीश रहे हैं इसलिए इतना तो अच्छी तरह जानते ही होंगे कि आयोग के पास यदि किसी व्यक्ति के खिलाफ सामग्री है तो उसे अपनी बात कहने का अवसर और जिरह करने का मौका प्रदान किया जाता है। लेकिन वाजपेयी को उन्होंने यह मौका देना भी उचित नहीं समझा। लिब्राहन ने कुछ लोगों के भाषणों की मनमानी व्याख्या करके उन्हें दोषी सिध्द करने की अतिरिक्त तत्परता दिखाई है। दुर्भाग्य से राम जन्म भूमि आंदोलन को लेकर देश की सरकारें तो राजनीति कर ही रही हैं लेकिन यह जांच आयोग भी जानबूझ कर जांच के साथ राजनीति कर रहा है। लालू यादव ने गोधरा कांड की जांच के लिए न्यायमूर्ती बेनर्जी को जिम्मा दिया था और बेनर्जी ने वैसी ही रपट प्रस्तुत कर दी जैसी लालू यादव को चाहिए थी। लिब्राहन आयोग की रपट भी कुछ उसी प्रकार की कहानी कहती है।

– डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री