आजकल इंसान की फितरत में कुछ ऎसी बातें आ गई हैं जिनकी वजह से उसके कर्मयोग की रफ्तार मंद होती जा रही है। उसे अब न जरूरी काम याद रहते हैं, न वह अपनी इच्छा से कोई ऎसे काम कर पाता है जो समाज और परिवेश के लिए जरूरी हों तथा सेवा एवं परोपकार के दायरों को और अधिक विस्तार देते हों।आदमी को सिर्फ अपनी ही अपनी बातें और काम याद रखने की फुरसत है, उसका दायरा इतना संकीर्ण हो चला है कि वह अपने आप में ही किसी न किसी घनचक्कर की तरह खोता जा रहा है। कुछ बिरले लोगों को छोड़ दिया जाए तो हममें से अधिकांश की हालत ये हो गई है कि हम जोश तो हर काम में दिखाते हैं, जोश में कई बार होश भी खो देते हैं और फिर दो-चार दिन बाद जैसे थे, वैसे हो जाते हैं।
यह हम सभी की समस्या है। जाने हमारे खून में ऎसे कौन से घातक टॉक्सिन आ गए हैं कि हमारी जिजीविषा मंद हो गई है, पुरुषार्थ की स्वतः स्वभाविक गति अक्सर धीमी पड़ जाती है और खून में आने वाला उबाल ज्यादा मिनट तक स्थिर नहीं रह पाता। थोड़ी गर्मागर्मी दिखाने, हुल्लड़ मचाने और उछल-कूद करने के बाद ऎसी सुप्तावस्था का दौर शुरू हो जाता है जो जाने कितने दिनों, महीनों और वर्षों तक यूं ही चलता रहता है, जब तक कि हमारी कुंभकर्णी संवेदनाओं को जगाने वाला कोई बड़ा कारक सामने न हो।
यह स्थिति हम सभी आम भारतीयों की कही जा सकती है। कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं जो खुद की या किसी परायी ऊर्जा से अपनी गति बरकरार रख सकने में कामयाब हों। हमारी चेतना तभी तक जागृत रहती है जब तक हमारे सामने अपने अस्तित्व या प्रतिष्ठा को लेकर कोई न कोई कारण सामने बना हुआ हो। इन दो मामलों में ही हम अपने आपको जागृत एवं कर्मशील होने के लिए मैदान में बने रहते हैं या फिर कहीं से कुछ पा जाने की आतुरता हो। अन्यथा हम सुप्तावस्था को ही ओढ़े रहते हुए अपने दायरों में कैद रहने के जबर्दस्त आदी हो गए हैं। स्वाभाविक प्रवाह के साथ चलते हुए हमें कभी अपने आपको प्रतिष्ठित करने या औरों को जताने की जरूरत नहीं पड़ती। हम अपनी मंथर गति से समय के साथ यूं ही चलते रहते हैं जैसे कि महानदियों में मुर्दे।
जब भी हमारे सामने किसी व्यक्ति या समुदाय अथवा अपने कर्मयोग को लेकर कोई चुनौती सामने आती है, तभी हम नींद से जगते हैं और हमारी चेतना पूर्ण जागृत होकर कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक मानसिकता के साथ अपने आपको सर्वश्रेष्ठ दर्शाने अथवा सामने वाले लोगों के लिए प्रतिशोध की भावना से पूर्ण चेतन अवस्था को प्राप्त करती है। मनोविज्ञानियों का भी यह तर्क है कि जब हम चुनौती भरे कार्यों को स्वीकार कर लेते हैं अथवा किसी प्रकार के तनाव में होते हैं तब हम सामान्य की अपेक्षा कई गुना अधिक सचेत होकर काम करते हैं और उस अवस्था में हमारे पुरुषार्थ की ऊर्जाएं ज्यादा घनीभूत तथा व्यापक हो जाती हैं। इस दृष्टि से हर व्यक्ति को जीवन में आगे बढ़ने के लिए, विकास पाने के लिए और समुदाय में लोक-प्रतिष्ठा स्थान पाने के लिए किसी न किसी चुनौती का बने रहना हमेशा आवश्यक होता है, ताकि हम सुप्तावस्था को प्राप्त न कर पाएं और अपने कर्मयोग में निरन्तर रमे रहते हुए अपने अनन्य एवं प्रेरक व्यक्तित्व की छाप छोड़ सकें।
चुनौतियों पर विजयश्री का जो लोग वरण करने के आदी होते हैं, वे ही समूहों तथा समुदाय के झंझावातों से बेफिक्र होकर अपनी मस्ती में जीते हैं। इन लोगों को न परिवेशीय हवाएं डिगा सकती हैं, न कोई बड़े से बड़ा और शक्ति-सम्पन्न आदमी।