आग में खाक होती जिंदगी

-अरविंद जयतिलक-
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आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले में भारतीय गैस प्राधिकरण लिमिटेड (गेल) की गैस पाइपलाइन में हुए विस्फोट में 19 लोगों की दर्दनाक मौत और डेढ़ दर्जन से अधिक लोगों का बुरी तरह झुलसना रेखांकित करता है कि कोई भी स्थान आग की लपटों से सुरक्षित नहीं है। विडंबना कहा जाएगा कि जिस नगरम गांव से होकर गैस पाइपलाइन गुजरी है वहां के नागरिकों द्वारा गेल के अधिकारियों से गैस रिसाव की शिकायत की गयी, उसके बाद भी गौर नहीं फरमाया गया। नतीजा कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। बता दें कि यह पाइपलाइन सरकारी तेल कंपनी ओएनजीसी के गोदावरी स्थित गैस फिल्ड से निजी बिजली कंपनी लैंकों के कोंडापल्ली बिजली संयंत्र को गैस आपूर्ति करती है। अब दुर्घटना के बाद गेल ने पाइपलाइन बंद कर दी है और ओएनजीसी भी पूर्वी गोदावरी के अपने गैस ब्लॉकों के कुछ कुंओं से उत्पादन रोक दिया है। आश्चर्य है कि ऐसे समय में जब देश गैस आधारित अर्थव्यवस्था की राह पर तेज गति से आगे बढ़ रहा है, सुरक्षा मानकों का पालन क्यों नहीं हो रहा है। यह हादसा न सिर्फ चिंताजनक है बल्कि बताने के लिए भी काफी है कि देश पेट्रोलियम क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सुरक्षा मानक स्थापित करने में सफल नहीं हुआ है। यह जांच के बाद ही स्पष्ट होगा कि यह हादसा कंपनियों की चूक का नतीजा है या अन्य कोई कारण है। लेकिन गौर करें तो इस तरह की कोई पहली घटना नहीं है। पिछले पांच वर्शों में यह तीसरी बड़ी घटना है। समझना कठिन है कि जयपुर तेल डिपो की आग की घटना के बाद सरकार ने एमबी लाल समिति का गठन किया लेकिन उसके सुझावों पर अमल क्यों नहीं हुआ। उचित होगा कि सरकार और तेल कंपनियां अतिशीध्र गैस पाइपलाइन की सुरक्षा पुख्ता करें ताकि इस तरह के हादसे दुबारा न हों। वैसे इस हादसे के बाद देशभर में गैस पाइपलाइन बिछाने की परियोजना को झटका लग सकता है। चूंकि गैस पाइपलाइन को कई शहरों और गांवों से होकर गुजरना है ऐसे में लोगों का सुरक्षा को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। गौरतलब है कि भारत में अभी तक सिर्फ 13000 किमी गैस पाइपलाइन बिछायी गयी है और इसे बढ़ाकर 60 हजार किमी किया जाना है। गौर करें तो विगत कुछ वर्षों में देश के विभिन्न हिस्सों में सरकारी भवन, अस्पताल, फैक्टरी, रेल, स्टेशन, सड़क, वायुयान, निजी संरक्षण गृह, समारोह स्थल, स्कूल और आस्था केंद्रों में आग लगने की घटनाएं बढ़ी हैं। लेकिन विडंबना है कि अभी तक इससे निपटने की कोई कारगर रणनीति नहीं बनी है। विगत एक सप्ताह के अंदर ही देश में भीषण आग की घटनाएं घटी हैं जिसमें काफी जन-धन का नुकसान हुआ है। मसलन मुंबई में छत्रपति शिवाजी टर्मिनस स्टेशन पर एक इमारत धू-धू कर जल उठी, वहीं यूपी के कानपुर में लिकेज सिंलेंडर से आग लगने से पांच लोगों की जान चली गयी। मध्य प्रदेश के सतना जिले के एक अस्पताल में भीषण आग की घटना में 32 नवजात शिशु खाक होते-होते बचे। अभी कुछ दिन पहले ही उज्जैन जिले के बड़नगर में पटाखे की फैक्टरी में भीषण आग में डेढ़ दर्जन लोगों को जान गंवानी पड़ी। इससे पहले तमिलनाडु के शिवकाशी के मुदालीपट्टी में पटाखे की ही एक फैक्टरी में आग लगने से 54 लोगों की दर्दनाक मौत हुई। 31 मई 1999 को दिल्ली के लालकुआं स्थित हमदर्द दवाखाना में केमिकल से लगी आग में 16 लोगों को जान गयी। 6 अगस्त, 2001 को तमिलनाडु के इरावदी जिले में स्थित एक निजी संरक्षण गृह में आग लगने से मानसिक रूप से कमजोर 28 लोग जलकर मर गए। तमिलनाडु के ही श्रीरंगम विवाह समारोह में आग लगने से 50 लोग काल-कवलित हुए। 7 दिसंबर 2004 को दिल्ली के भोलानाथ नगर में होजरी फैक्ट्री में आग लगने से एक दर्जन लोग मारे गए। 15 सितंबर, 2005 को बिहार में अवैध रूप से संचालित पटाखा फैक्ट्री में आग लगने से 35 लोग जलकर खाक हुए। 10 अप्रैल, 2006 को मेरठ के विक्टोरिया पार्क में लगे मेले में भीषण आग में 60 लोगों की जलकर मौत हुई। देश की राजधानी दिल्ली में किन्नरों के महासम्मेलन के दौरान पंडाल में लगी आग से 16 किन्नरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। 23 मार्च, 2010 को कोलकाता के स्टीफन कोर्ट बिल्डिंग में लगी आग में 46 लोग और 20 नवंबर 2011 को दिल्ली के नंदनगरी में आयोजित एक समारोह में 14 लोग मारे गए। 13 जून 1997 को दिल्ली के उपहार सिनेमा हॉल में आग लगने से 59 लोगों की मौत हुई। इस घटना के बाद राज्य सरकारों ने अपने राज्य के सिनेमा हॉल प्रबंधकों को ताकीद किया कि वह सिनेमा हॉलों को अग्निशमन यंत्रों से लैस करें। प्रशिक्षित लोगों की नियुक्ति करें। लेकिन यह सच्चाई है कि आज भी सिनेमा हॉल और मॉल असुरक्षित हैं। आग से उनकी सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम नहीं है।

विगत सालों में देश के कई मॉलों में आग की घटनाएं अखबारों की सुर्खियां भी बन चुकी हैं। आग की लपटों से स्कूल भी अछूते नहीं हैं। दिसंबर 1995 में हरियाणा के मंडी डबवाली में स्कूल के एक कार्यक्रम के दौरान पंडाल में आग लगने से तकरीबन 442 बच्चों की मौत हो गयी। इस हृदय विदारक घटना के बाद केंद्र व राज्य सरकारों ने आपदा प्रबंधन को चुस्त-दुरुस्त करने का वादा किया। सभी स्कूलों को फरमान जारी किया कि वे अपने यहां अग्निशमन यंत्रों की व्यवस्था सुनिश्चित करें। दिखावे के तौर पर स्कूलों ने उपकरणों की व्यवस्था तो की है लेकिन वे हाथी दांत ही साबित हो रहे हैं। कारण इन अग्निशमन यंत्रों का इस्तेमाल कैसे हो इसकी जानकारी स्कूल कर्मियों को नहीं है। देखा भी गया कि 6 जुलाई, 2004 को तमिलनाडु के कुंभकोणम जिले में आग से 91 स्कूली बच्चों ने दम तोड़ दिया और अग्निशमन यंत्र रखे रह गए। आग की लपटों से सरकारी इमारतें भी महफूज नहीं हैं। 27 जुलाई, 2005 को मुंबई के पास बांबे हाई में ओएनजीसी प्लेटफॉर्म पर भयंकर आग में 12 लोगों को जान गंवानी पड़ी। जून 2012 में महाराष्ट्र सरकार का मंत्रालय अग्नि की भेंट चढ़ गया। देश में जब भी इस तरह के हादसे होते हैं। अक्सर सरकार और जिम्मेदार संस्थाएं मुआवजा थमाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है। जबकि उनकी जिम्मेदारी बनती है कि आग से बचाव के लिए ठोस रणनीति बनाएं और सुरक्षा मानकों का पालन करें। सुरक्षा मानकों की अनदेखी का ही नतीजा है कि देशभर में आग की घटनाएं में तेजी आयी है। आमतौर पर माना जाता है कि इस तरह की हृदयविदारक घटनाओं से सरकार सबक लेंगी। आपदा प्रबंधन को चुस्त-दुरुस्त करेगी। उन कमियों को दूर करेगी जिससे भीषण हादसे होते हैं। उन उपायों को तलाशेगी जिससे हादसों के दरम्यान अधिक से अधिक लोगों को बचाया जा सके। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार और संस्थाएं अग्निजनित हादसों को आपदा मानने को तैयार ही नहीं। अन्यथा कोई वजह नहीं कि वह भीषण घटनाओं के बाद भी वह हाथ पर हाथ धरी बैठी रहे।

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