कविता

ज़िन्दगी

राघवेन्द्र कुमार “राघव”

 
क्या सर्दी और क्या गर्मी, 
 
मुफ़लिसी तो मुफ़लिसी है । 
 
 कांपती और झुलसती ज़िन्दगी चलती तो है ,
 
 पर भूख की मंज़िल तो बस खुदकुशी है ।
 
 गंदे चीथड़ों  में खुद को बचाती ,
 
 इंसानी भेड़ियों  से इज्ज़त छिपाती ।
 
 हर रोज जीती और मरती है ,
 
 ये हमारी कैसी बेबसी है ।
 सड़क के किनारे फुटपाथों पर ज़िन्दगी , 
 
कीचड़ और कूड़े के ढेर में सनी है ।
 
 खाली पेट ही इन्हें कोई रौंद जाता है ,
 
 पर ये लावारिस लाशे ख़ामोश कितनी है ।
 
 किसी से ये कोई शिकायत नहीं करती ,
 
 चाहें गटर में फेंक दी जाये या नाले में । 
 
ये इन्सान कितना पत्थर दिल हो गया है ,
 
 कैसी हमारे महान देश की बदकिस्मती है ।
 
क्या सर्दी और क्या गर्मी, 
 
मुफ़लिसी तो मुफ़लिसी है ।।