राघवेन्द्र कुमार “राघव”
क्या सर्दी और क्या गर्मी,
मुफ़लिसी तो मुफ़लिसी है ।
कांपती और झुलसती ज़िन्दगी चलती तो है ,
पर भूख की मंज़िल तो बस खुदकुशी है ।
गंदे चीथड़ों में खुद को बचाती ,
इंसानी भेड़ियों से इज्ज़त छिपाती ।
हर रोज जीती और मरती है ,
ये हमारी कैसी बेबसी है ।
सड़क के किनारे फुटपाथों पर ज़िन्दगी ,
कीचड़ और कूड़े के ढेर में सनी है ।
खाली पेट ही इन्हें कोई रौंद जाता है ,
पर ये लावारिस लाशे ख़ामोश कितनी है ।
किसी से ये कोई शिकायत नहीं करती ,
चाहें गटर में फेंक दी जाये या नाले में ।
ये इन्सान कितना पत्थर दिल हो गया है ,
कैसी हमारे महान देश की बदकिस्मती है ।
क्या सर्दी और क्या गर्मी,
मुफ़लिसी तो मुफ़लिसी है ।।