विविधा

देखो! गहन तिमिर को छांटते हिंदू-सूर्य का पुनरोदय देखोः महर्षि अरविंद

महर्षि अरविंद ( 1872-1950) ने 30 मई, 1909 को अपना सुप्रसिद्ध उत्तरपाड़ा भाषण दिया था। यह भाषण हिंदू धर्म, धरती पर उसकी नियति, हिंदुओं के जीवनोद्देश्य और ईश्वर की हिंदू धर्म से अपेक्षा का विशद विवेचन करता है। उल्लेखनीय है कि ऋषि अरविंद क्रांतिकारी गतिविधियों, विशेषकर अलीपुर बम विस्फोट काण्ड के सिलसिले में एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखे गए थे। वहां पर उन्हें हिंदू धर्म एवं हिंदू राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। जेल से रिहा होने के बाद सर्वप्रथम उन्होंने उत्तरपाड़ा में धर्म एवं राष्ट्र विषयक कारावास-अनुभूति का विशद विवेचन किया था।

उत्तरपाड़ा व्याख्यान को 100 साल पूरे हो गए हैं। उत्तरपाड़ा भाषण की एक शताब्दी व्यतीत होने के बाद आज हिंदू राष्ट्र जीवन, विशेष रूप से हिंदू युवकों को अपने राष्ट्रीय जीवनोद्देश्य को समझने के लिए महर्षि अरविंद के साहित्य को पढ़ने लिए प्रेरित करना समीचीन होगा। महर्षि के संदेश और उनके दिखाए रास्ते को सत्यरूप में समझने और उसका अनुकरण करने के लिए प्रवक्‍ता डॉट कॉम उनके ऐतिहासिक उत्तरपाड़ा भाषण का हिंदी रूपांतरण सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है। आशा है कि पाठकगण इसे पंसद करेंगे- संपादक

मनुष्य की सभी प्रधान वृत्तियों में जो तीन वृत्तियां ऊर्ध्वगामिनी, ब्रह्म-प्राप्त-बलदायिनी हैं, वे हैं-सत्य, प्रेम, और शक्ति। इन्हीं तीन वृत्तियों के विकास के द्वारा मानव जाति-की उन्नति होती चली आ रही है। सत्य, प्रेम और शक्ति के द्वारा त्रिमार्ग में अग्रसर होना ही सनातन-धर्म का त्रिकर्म है।

हमारा यह अति पुरातन सनातन धर्म है। यह धर्म त्रिविध, त्रिमार्ग-गामी और त्रिकर्म-रत है। हमारा धर्म त्रिविध है। भगवान् ने अन्तरात्मा, मानसिक जगत् और स्थूल जगत् में-इन्हीं तीन धामों में प्रकृति और सृष्टि को, स्वयं की महाशक्ति से अनुप्राणित विश्व के रूप में अपने-आपको प्रकट किया है। इन्हीं तीन धामों में उनके साथ युक्त होने की चेष्टा करना सनातन धर्म का त्रिविधित्व है।

यही कारण है कि हमारा धर्म त्रिमार्गगामी है। ज्ञान, भक्ति और कर्म-इन तीन स्वतंत्र या सम्मिलित उपायों से ईश्वरीय अवस्था को मनुष्य प्राप्त कर सकता है। इन तीन उपायों से आत्मशुद्धि करके भगवान् के साथ युक्त होने की इच्छा करना ही सनातन-धर्म की त्रिमार्गगामी गति है।

हमारा धर्म त्रिकर्मरत है। मनुष्य की सभी प्रधान वृत्तियों में जो तीन वृत्तियां ऊर्ध्वगामिनी, ब्रह्म की और अग्रसर करने वाली हैं, वे हैं-सत्य, प्रेम और शक्ति। इन्हीं तीन वृत्तियों के विकास के द्वारा मानव-जाति की क्रमशः उन्नति होती चली आ रही है। सत्य, प्रेम और शक्ति के द्वारा इस प्रेममयी त्रिमार्ग में अग्रसर होना ही सनातन-धर्म का त्रिकर्म है।

सनातन-धर्म के अन्दर बहुत से अन्य गौण-धर्म निहित हैं, और वे सभी नाना प्रकार के परिवर्तनशील धर्म अपने-अपने कर्म में प्रवृत्त होते हैं, काल के अनुसार वे परिवर्ति भी होते रहते हैं। सनातन धर्म पर अवलंबित ये नाना प्रकार के धर्म-कर्म मनुष्य की स्वभाव सृष्टि हैं। जहां सनातन-धर्म सृष्टि के सनातन स्वभाव पर आश्रित है वहीं ये नाना प्रकार के धर्म, जाति धर्म, वर्णाश्रित धर्म, युगधर्म इत्यादि व्यक्ति एवं युग आश्रित धर्म हैं। ये सब अनित्य हैं, अर्थात परिवर्तनशील हैं। इन्हीं अनित्य परिवर्तनशील धर्मों के द्वारा सनातन-धर्म विकसित धर्म विकसित और अनुष्ठित होता है।

व्यक्ति धर्म, जाति-धर्म, वर्णाश्रित धर्म, युग-धर्म इत्यादि का परित्याग करने से सनातन धर्म की पुष्टि नहीं होती, बल्कि अधर्म की ही वृद्धि होती है तथा गीता में जिसे संकर कहा गया है – सनातन प्रणाली का भंग और क्रमोन्नति की विपरीत गति – वह वसुन्धरा को पाप और अत्याचार से दग्ध करता है। जब उस पाप और अत्याचार की अतिरिक्त मात्रा से मनुष्य की उन्नति की विरोधनी धर्मनाशिनी आसुरिक शक्तियाँ वर्द्धित और बलशाली होकर स्वार्थ, क्रूरता और अहंकार से दसों दिशाओं को आच्छन्न कर देती है, जगत् में अनीश्वर ईश्वर का रूप ग्रहण करना आरम्भ करता है, तब भारार्त पृथ्वी का दु:ख कम करने के लिए भगवान् के अवतार या विभूति मानव-शरीर में प्रकट होकर पुन: धर्मपथ को निष्कण्टक बनाते हैं।

सनातन-धर्म का ठीक-ठीक पालन करने के लिए व्यक्तिगत धर्म, जातिगत धर्म, वर्णाश्रित धर्म और युगधर्म का आचरण सर्वदा रक्षणीय है। परन्तु इन नानाविध धर्मों में क्षुद्र और महान्-दोनों प्रकार के रूप हैं। महान् धर्म के साथ क्षुद्र धर्म को मिलाकर और संशोधित कर उसका पालन करना श्रेयस्कर है। व्यक्तिगत धर्म को जाति-धर्म की श्रेणी में रखकर उसका आचरण नहीं करने से जाति नष्ट हो जाती है एवं जातिधर्म के लुप्त हो जाने से व्यक्तिगत धर्म का क्षेत्र और सुयोग नष्ट हो जाता है। यह भी धर्मसंकर है- जिस धर्म संकर के प्रभाव से जाति और संकरप्रभावित व्यक्ति दोनों अतल नरक में निमग्न होते हैं। सबसे पहले जाति की रक्षा करनी चाहिए; तभी व्यक्ति की आध्यात्मिक, नैतिक और आर्थिक उन्नति निरापद बनायी जा सकती है।

वर्णाश्रित धर्म को भी युग धर्म के सांचे में ढालकर यदि उसे गठित न किया जाय तो महान् युग-धर्म की प्रतिकूल गति से वर्णाश्रित धर्म चूर्ण-विचूर्ण और नष्ट हो जाता है और उसके फलस्वरूप समाज भी चूर-चूर और नष्ट हो जाता है। क्षुद्र सदा ही महान् का अंश और सहायक होता है; इस संबंध की विपरीत अवस्था में धर्म-संकरसम्भूत घोर अनिष्ट होता है, क्षुद्र धर्म और महान् धर्म के बीच विरोध होने पर क्षुद्र धर्म का परित्याग करके महान् धर्म का आचरण करना ही मंगलप्रद होता है।

हमारा उद्देश्य है – सनातन- धर्म का प्रचार करना और सनातन-धर्माश्रित जाति धर्म और युग-धर्म का अनुष्ठान करना। हम भारतवासी आर्यजाति के वंशधर हैं, आर्य शिक्षा और आर्य नीति के अधिकारी हैं। यह आर्यभाव ही हमारा कुल-धर्म और जाति-धर्म है। ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म आर्य-शिक्षा के मूल तत्व हैं तथा ज्ञान, उदारता, प्रेम, साहस, शक्ति और चर-अचर के प्रति विनम्रता, करूणा आर्य-चरित्र के लक्षण हैं।

मानव जाति को ज्ञान प्रदान करना जगत् में उन्नत उदार चरित्र का निष्कलंक आदर्श रखना, दुर्बल की रक्षा करना, प्रबल अत्याचारी को दण्ड देना आर्य जाति के जीवन का उद्देश्य है। उसी उद्देश्य को सिद्ध करने में उसके धर्म की चरितार्थता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम आज धर्मभ्रष्ट, लक्ष्यभ्रष्ट, धर्मसंकर होकर और भ्रान्तिसंकुल तामसिक मोह में पड़कर आर्य-शिक्षा और आर्य-नीति से रहित हो गये हैं।

हम आर्य होकर शूद्रत्व, और शूद्रधर्मरूप् दासत्व को अंगीकारकर जगत् में हेय, प्रबल-पद-दलित और दु:ख, अपमान और क्लेश उठा रहे हैं। अतएव यदि हमें जीवित रहना हो, यदि अनन्त नरक से मुक्त होने की लेशमात्र भी अभिलाषा हो तो अपनी जाति की रक्षा करना हमारा प्रथम कर्तव्य है। और जाति रक्षा का उपाय है आर्य-चरित्र को पुन: अपने अंदर संगठित करना। हमारा पहला उद्देश्य है अपनी समस्त जाति को विशेष कर युवा पीढ़ी को ऐसी उपयुक्त शिक्षा, उच्च आदर्श और आर्यभावोद्दीपक कार्य-प्रणाली देना, जिससे जननी जन्मभूमि की भावी संतान ज्ञानी, सत्यनिष्ठ, मानवमात्र के प्रति प्रेमपूर्ण भ्रातृभावयुत, जीवमात्र के प्रति करुणा से ओत-प्रोत भावुक, साहसी, शक्तिमान् और विनीत हो । जब तक हम इस कार्य में सफल नहीं होते, तब तक सनातन-धर्म का प्रचार करना केवल ऊसर क्षेत्र में बीज बोने के समान है।

जाति-धर्म का पालन करने से युग-धर्म की सेवा करना सहज हो जाता है। यह युग शक्ति और प्रेम का युग है। जब कलिकाल आरम्भ होता है, तब ज्ञान चतुर्दिक प्रसारित होकर अपनी-अपनी प्रवृति को चरितार्थ करते हैं, सत्य और शक्ति प्रेम का आश्रय लेकर मानव-जाति के अन्दर प्रेम का विकास करने की चेष्टा करते हैं।

बौद्ध-धर्म की मैत्री और दया पौराणिक-धर्म की भक्ति और प्रेमभाव इसी चेष्टा के फल हैं। कलियुग में सनातन-धर्म मैत्री, कर्म, भक्ति, प्रेम, साम्य और भ्रातृभाव की सहायता लेकर मनुष्य-जाति का कल्याण साधित करता है।

ज्ञान भक्ति और निष्काम कर्म के द्वारा गठित आर्य-धर्म में ये ही शक्तियां प्रविष्ट और विकसित होकर प्रसारित होने और अपनी प्रवृति को चरितार्थ करने का मार्ग खोज रही हैं। शक्ति-स्फुरण के लक्षण हैं-कठिन तपस्या, उच्चाकांक्षा और महत्कर्म।

जब यह हिंदू जाति तपस्विनी, उच्चाकांक्षिणी, महत्कर्मप्रयासिनी होगी, तब यह समझना होगा कि जगत् की उन्नति के दिन आरम्भ हो गये हैं, धर्म-विरोधिनी आसुरिक शक्तियों का ह्रास और दैवी शक्तियों का पुनरुत्थान अवश्यम्भवी है। अतएव इस भावना को बल प्रदान करने वाली शिक्षा भी वर्तमान समय के लिए आवश्यक है।

युग-धर्म और जाति-धर्म के साधित होने पर सारे जगत् में सनातन-धर्म अबाधरूप् से प्रचारित और अनुष्ठित होगा। पूर्वकाल से विधाता ने जो निर्दिष्ट किया है, जिसके सम्बन्ध में शास्त्रों में भविष्यवाणी की गयी है, वह लक्ष्य भी कार्यरूप में परिणत होगा। समस्त जगत् आर्यदेशसम्भूत ब्रह्मज्ञानियों के पास ज्ञान-धर्म का शिक्षार्थी बनकर, भारत-भूमि को तीर्थ मानकर अवनत-मस्तक होकर इसका गुरूत्व स्वीकार करेगा। उसी दिन को ले आने के लिए भारतवासियों का जागरण हो रहा है, आर्य भाव का पुनरुत्थान हो रहा है।

(साभार-‘धर्म पत्रिका’)