कार्तिक शुक्ल दशमी को श्रीकृष्ण ने किया था कंस का वध

-अशोक “प्रवृद्ध”


लंकेश रावण का वध अर्थात रावण दहन का प्रतीक रूप में आयोजन देश भर में आश्विन शुक्ल दशमी अर्थात विजयादशमी को जिस तरह किया जाता है, उसी प्रकार कार्तिक शुक्ल दशमी को मथुरा सहित देश के कई हिस्सों में कंस वध लीलाओं का आयोजन किया जाता है। मान्यता है कि यदुकुल के राजा मथुरा नरेश उग्रसेन और रानी पद्मावती के पुत्र जरासंध कंस का वध कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को हुआ था। वह भगवान श्रीकृष्ण की माता  देवकी का भाई था। कंस को कई पुराणों में राक्षस बताया गया है, जिसने अपने चमचों और बाणासुर व नरकासुर आदि राक्षसों की सलाह पर सनातन वैदिक इतिहास के विपरीत अपने पिता को अपदस्थ कर स्वयं को मथुरा के राजा के रूप में स्थापित कर लिया था। महाभारत व भागवत पुराण के अनुसार कंस अति दुराचारी बन गया था, और मुगलकाल के इस्लाम शासकों की भांति अपने पिता को राज्यच्युत करके स्वयं सिंहासन पर अधिकार कर लिया था। वह यादवों  पर इतना अत्याचार करने लगा था कि वे भयभीत होकर मथुरा से भागकर अन्यत्र बस गए थे। वसुदेव ने भी अपनी अन्य पत्नी रोहिणी तथा पुत्र को नंदग्राम भेज दिया था। और नंद के घर रख दिया था।

महाभारत व पौराणिक ग्रंथों के अनुसार कंस के पिता उग्रसेन यादवों के अधिपति थे। कंस ने अपनी प्रिय बहन देवकी का विवाह वसुदेव से विधिपूर्वक कराया। विवाहोपरांत वसुदेव-देवकी को विदा कराकर ले जाने लगे, उस समय कंस हर्षपूर्वक उस दंपति का सारथी बनकर रथ हांक रहा था। इस समय आकाशवाणी हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न अष्टम पुत्र कंस का वध करेगा। उस आशंका का तुरंत अंत करने के लिए कंस देवकी की हत्या करने को उद्यत हो गया। वसुदेव ने कंस को शांत किया और यह वचन दिया कि देवकी के गर्भ से जितने पुत्र उत्पन्न होंगे उसको वह समय पर कंस को अर्पित कर देंगे। इस प्रकार उस समय तो देवकी की प्राण रक्षा हो गई, परंतु कंस ने वसुदेव और देवकी को कारागार में डाल दिया। कंस ने उनकी प्रथम छह संतानों का जन्म लेते ही वध कर दिया। सप्तम संतान गर्भ में ही नष्ट हो गई। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार विष्णु की आज्ञा के अनुसार योग निद्रा ने उस संतान को देवकी के गर्भ से निकाल कर वसुदेव की अन्य पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया। रोहिणी का यह संतान बलराम नामक पुत्र था। रोहिणी को वसुदेव ने अपने आत्मीय नंद की देख-रेख में मथुरा के पास गोपालकों की बस्ती में रख दिया था। देवकी की अष्टम संतान के रूप में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को यथा समय मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। रात्रि में ही वसुदेव उनको गोकुल में नंद के घर ले गए। उसी रात्रि को नंद की पत्नी यशोदा ने एक कन्या को जन्म दिया। पुराणों के अनुसार यह कन्या विष्णु की शक्ति योगनिद्रा ही थी। देवकी योगनिद्रा के वशीभूत थी, इसी बीच वसुदेव ने अपने पुत्र को सूतिका गृह में रख दिया और बदले में उस कन्या को लेकर अपने निवास पर आ गए। यह कन्या अपनी संतान बताकर कंस को अर्पित कर दी गई। कंस उस कन्या को नष्ट कर नहीं सका। योगनिद्रा आकाश मार्ग में जाती हुई कह गई कि कंस के संहारकर्त्ता का जन्म हो चुका है। कुछ समय बाद कंस ने देवकी को कारागार से मुक्त कर दिया, लेकिन श्रीकृष्ण नंद के घर ही रह रहे थे। वहाँ कंस ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए कई असुरों को भेजा, जिनमें से सभी का कृष्ण द्वारा वध कर दिया गया। पूतना वध, शकट विपर्यय, तृणावर्त वध, यमलार्जुन भंगी आदि घटनाएं इसी काल की हैं। श्रीकृष्ण के शैशव के इस उत्पात के समय नंदादि आपतियों की आशंका से गोकुल छोड़कर वृंदावन चले गए। वृंदावन आने पर श्रीकृष्ण ने वत्सासुर, बकासुर, अधासुर नामक तीन असुरों का वध किया। इसी समय कंस को समाचार मिला कि वृंदावन में श्रीकृष्ण- बलराम अतिशय बलशाली हो गए हैं। पूतना से लेकर अरिष्ट तक कंस के समस्त अनुचर मार दिए गए थे। देवर्षि नारद ने कंस को बताया कि बलराम -श्रीकृष्ण वसुदेव के पुत्र हैं। देवकी की अष्टम संतान मानकर कंस ने जिस कन्या का वध किया था, वह नंद -यशोदा की पुत्री थी। वसुदेव ने संतान को बदलकर श्रीकृष्ण को नंद के घर में छिपा रखा है। यह सुनकर कंस भयभीत एवं क्रुद्ध हुआ। और वसुदेव के वध को उद्यत हो गया। उसने बलराम- श्रीकृष्ण को लाने के लिए यादव प्रधान अक्रूर को भेजा। उसने धनुर्यज्ञ का नाम करके उन दोनों का वध करने के लिए बलवान मल्लों को बुलाया लिया था। जैसे ही बलराम- श्रीकृष्ण रंगभूमि में आए, कंस के शिक्षित हाथी कुवलयापीड़ ने आक्रमण किया। अंत में बलराम -श्रीकृष्ण ने उस हाथी को और चानुर तथा मुष्टिक नामक मल्लों को मार डाला। दोनों भाई कूदकर मंच पर चढ़ गए, और कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को अपने अत्याचारों से सभी को कष्ट पहुंचाने वाले कंस को भूमि पर पटककर उसका विनाश कर दिया। फिर वसुदेव- देवकी को मुक्त करके उन्होंने कंस के पिता उग्रसेन का राज्य पर अभिषेक कर दिया। महाभारत सभापर्व के जरासंध पर्वाध्याय में श्रीकृष्ण स्वयं इस घटना का वर्णन युधिष्ठिर से करते हुए कहते हैं- भोजवंशीय वृद्ध क्षत्रियगण ने दुष्ट कंस के अत्याचार से अतिशय दुखित होकर मुझसे अनुरोध किया कि मैं जातिवर्ग को त्याग करके कहीं चला जाऊँ,  मैंने जाति वर्ग के हित साधन के निमित बलभद्र की सहायता से कंस का संहार कर दिया। कोई भी कंस की रक्षा के लिए आगे नहीं आया। तभी से कंस वध का पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत के तौर पर मनाया जाता है। यह दिन उत्तर प्रदेश और मथुरा में विशेष रूप से मनाया जाता है, और कई विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।

पौराणिक कथाओं में कंस को मथुरा के दुष्ट और अत्याचारी राजा के रूप में मान्यता दी गई थी, जिसका अंत कार्तिक शुक्ल दशमी को श्रीकृष्ण ने पाने हाथों से किया था। कंस अपने पूर्व जन्म में कालनेमी नामक दैत्य था जो भगवान विष्णु के हाथों मारा गया था। मगध के राजा जरासंध की दो पुत्रियों -अस्ति और प्राप्ति से शादी करने वाले कंस के जन्म के विषय में भागवत पुराण और विष्णु पुराण में अंकित कथा के अनुसार मथुरा नरेश उग्रसेन का विवाह राजा सत्यकेतु की कन्या पद्मावती से हुआ था। विवाह के पश्चात ससुराल में कुछ समय रहने के बाद पद्मावती मायके चली गई। एक बार यक्षराज कुबेर का एक संदेशवाहक ध्रुमिला वहां आ पहुंचा और राजा सत्यकेतु से मिलने उनके दरबार में गया। राजा से मिलने के पश्चात उसकी दृष्टि राजा सत्यकेतु की अत्यंत रूपवती पुत्री पद्मावती पर पड़ी। ध्रुमिला बहुत ही पापी गंधर्व था। इसलिए उसने पद्मावती के सामने राजा उग्रसेन का भेष धारण किया और पद्मावती के पास चला गया। उसने ध्रुमिला को उग्रसेन समझकर उसके साथ सहवास किया, जिससे वह गर्भवती हो गई किंतु पद्मावती को सच्चाई का पता चलते ही उसने कामना की उसका पुत्र जन्म से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए। उसी समय उग्रसेन भी वहां पहुंच गए और उन्हें मथुरा ले गए। मथुरा पहुंचकर पद्मावती ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम कंस रखा गया जो अपने पूर्वजन्म में कालनेमि नामक असुर था। इस तरह कंस संसार की दृष्टि में भले ही उग्रसेन का पुत्र था लेकिन वास्तव में वह ध्रुमिला का पुत्र था। अपने पिता ध्रुमिला की तरह ही कंस भी पापी था और उसमें अपने पिता के सभी प्रकार के आसुरी गुण भी मौजूद थे।

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