आखिर ‘असभ्य’ लोग ‘हमें’ कैसे पढ़ाएंगे सभ्यता-संस्कृति का वैधानिक पाठ, पूछते हैं लोग

0
14

@ कमलेश पांडेय

जम्मू-कश्मीर विधानसभा में धारा 370 की वापसी के नाम पर जो कुछ धक्का-मुक्की हुई, वह निंदनीय है। चाहे संसद हो या विधानमंडल या फिर अन्य निर्वाचित निकाय, ऐसे अशोभनीय आचरण को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता! इसका न केवल सार्वजनिक प्रदर्शन बंद होना चाहिए, बल्कि इस विषय पर सभी सदनों में व्यापक बहस करके कोई समुचित कानून बनानी चाहिए। दंडात्मक प्रावधान तय किये जाने चाहिए क्योंकि समाज का इंजन वर्ग यदि बहकेगा तो एक से बढ़कर एक दुर्घटना होगी और हम लोग हाथ मसलते रह जाएंगे। 

देखा जाए तो भारतीय समाज इस बढ़ती प्रवृत्ति का भुक्तभोगी भी है। लिहाजा यदि सियासतदानों की मनमानी के चलते ऐसा न हो पाए तो इस गम्भीर विषय पर संविधान पीठ गठित हो और गरिमापूर्ण व्यवहार के उल्लंघन के चलते सदस्यता गंवाने तक के स्पष्ट प्रावधान सुनिश्चित किया जाएं, ताकि यह प्रवृत्ति थमे। कानून निर्मात्री संस्थाओं और उसके सदस्यों से वैसे आचरण की अपेक्षा कदापि नहीं की जा सकती जो कि दिखना अब आम बात हो चुकी है।

कहना न होगा कि लोकतंत्र के नाम पर सड़क से लेकर संसद तक कतिपय जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों का जो ‘असभ्य चेहरा’ गाहे-बगाहे सामने आ जाता है, वह लोकतंत्र के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है! यह इस बात की चुगली कर रहा है कि ‘वंशवादी लोकतंत्र’ अब धीरे-धीरे ‘आतंकी लोकतंत्र’ के रूप में तब्दील होता जा रहा है! यह सभ्य समाज के लिए चिंता की बात है, क्योंकि देश-विदेश हर जगह राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर यह प्रवृत्ति हावी होती चली जा रही है। 

सच कहूं तो आजादी के तत्काल बाद समाजवादी नेता राजनारायण से लेकर लालू प्रसाद, स्व. मुलायम सिंह यादव, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, स्व. रामविलास पासवान, मायावती और ओवैसी आदि के समर्थक जनप्रतिनिधियों की कौन कहे, कांग्रेस और भाजपा के जनप्रतिनिधियों की फौज भी इस मामले में अपवाद नहीं समझी जा सकती है।

आज धारा 370 की वापसी से भी बड़ा मुद्दा बनना चाहिए पार्टीशन ऑफ इंडिया एक्ट 1947 की समाप्ति, जो अधिकांश भारतीय समस्याओं की असली जड़ है लेकिन कोई नेता सही मामले में मुखर नहीं है। वह सिर्फ ऊलजुलूल राजनीति को बढ़ावा दे रहा है, जिससे फूट डालो और राज करो की साम्राज्यवादी भावना ही मजबूत हो रही है। इसके उलट यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सटीक नारा दिया है कि बंटोगे तो कटोगे। मतलब हिंदुओं को जातियों के नाम पर बंटना नहीं चाहिए अन्यथा उन्हें बर्बाद होने से कोई नहीं रोक सकता है।

दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जनहित साधक ‘क्षणभंगुर सियासत’ के उलट शांति और सुव्यवस्था के लिए जिस ‘स्थायी कार्यपालिका और न्यायपालिका’ की परिकल्पना की गई है और उसे विवेकाधिकारों से लेकर विशेषाधिकारों तक से लैश किया गया है, वह भी नीर-क्षीर हंस विवेक तुल्य कार्रवाई करने में यदा-कदा विफल प्रतीत हो जाती हैं। ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि जिनके ऊपर ‘कानून बनाने की जिम्मेदारी’ है और जिनके ऊपर ‘कानून के अनुपालन की जिम्मेदारी’ है, यदि उनका ही सार्वजनिक व्यवहार अशोभनीय होगा, निर्णायक कार्रवाई से परे होगा तो फिर देश-प्रदेश में शांति और सुव्यवस्था की कामना निरर्थक साबित होगी। यही हो भी रहा है। क्योंकि बिनु भय होंहिं न प्रीति वाली कहावत यहां चरितार्थ हो जाती है।

देखा जाए तो हमारी संसद, विधानमंडल, त्रिस्तरीय पंचायती निकायों और अन्य चुनाव वाले जगहों पर जिस तरह से अपराधियों, नक्सलियों, आतंकियों, दंगाइयों, सामाजिक तौर पर एक दूसरे के खिलाफ भड़काऊ भाषणबाजी करने वाले लोगों को निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के तौर पर जगह मिल जाती है और वे माननीय बनकर कतिपय कानूनों से परे हो जाते हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इसे अविलंब रोकना होगा। इस वास्ते ठोस कानून बनाने होंगे। क्योंकि आप उस दिन की परिकल्पना कीजिए, जब विभिन्न सदनों में ये बहुमत में होंगे, तब क्या होगा? वो कैसे कानून बनाएंगे? उनकी महत्वाकांक्षा की जद में आकर अमनपसंद लोग भी पिसते चले जाते हैं।

कहना न होगा कि इस स्थिति के लिए कमोबेश सभी राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं। इसलिए इस मुद्दे पर स्पष्ट नियमन बने। यदि नहीं बने तो नौकरशाही और कार्यपालिका परस्पर मिलकर जनहितकारी और दूरदर्शितापूर्ण व्यवस्था दें, ताकि संवैधानिक व्यवस्था पर निकट भविष्य में कोई आंच नहीं आ पाए। मीडिया भी इस मुद्दे पर जनजागृति पैदा करे, क्योंकि पिछले 7-8 दशकों में हमारे लोकतांत्रिक व्यवहार सदैव जनकठघरे में खड़े नजर आए हैं। इसलिए जरूरी है कि अमृत काल से पहले ऐसी ‘हलाहल वाली सियासत’ पर लगाम लगे। इससे ही सारी नैतिक महामारी पैदा होती हैं और लाइलाज प्रतीत होती हैं। जबकि प्रशासनिक इच्छा शक्ति मजबूत हो तो इस स्थिति से बचा जा सकता है।

यदि शासन और सत्ता की स्वार्थी प्रवृति पर गौर किया जाए तो अभी भी ऐसे बहुत सारे विषय हैं जो स्पष्ट और पारदर्शिता भरे कानूनों से परे हैं। अभिजात्य लोग इसी का फायदा उठाते हैं, लेकिन पददलित लोग ऐसे ही प्रसंग उठने पर पिट जाते हैं। इन विसंगतियों को दूर करने की जिम्मेदारी सबकी है। आपने किसी के घर को तोड़े जाते हुए देखा होगा, आपने किसी को जेल जाते हुए और कभी कभी उम्र कैद की सजा पाते हुए भी देखा होगा। एक-दो बार फांसी की सजा देते हुए भी देखा-सुना होगा। यह सब कानून के नाम पर होता है। इसका एक लंबा सिलसिला है, जिसमें गरीब पिसता चला जाता है। 

वहीं, ऐसे ही मामलों में अमीर बच जाते हैं, क्योंकि उन्हें स्टे आर्डर मिल जाते हैं, अग्रिम जमानत मिल जाती है। इसलिए वो बेखौफ होकर जुर्म करते हैं और जुर्माना भरकर आराम से बच निकलते हैं। इस प्रवृत्ति को जबतक हतोत्साहित नहीं किया जाएगा, समतामूलक समाज का निर्माण दिवास्वप्न होगा और शांति की सोच निरर्थक, क्योंकि हमारी पुलिस व्यवस्था के समानांतर एक आपराधिक व्यवस्था भी चलती है, जिसके दंश भुक्तभोगी ही समझते हैं, तमाम सुरक्षा से लैस कोई अभिजात्य वर्ग के सदस्य नहीं! यह सब मैं यूँ हीं नहीं लिख रहा हूँ, बल्कि करीब से देखा है, महसूस किया है। इसलिए आप इससे निकट भविष्य में बच सकें, लिहाजा इस प्रसंग को उठा रहा हूँ। इस पर जब जनमत कायम होगा तो सबकी तकदीर बदलेगी!

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here