भगवान महावीर स्‍वामी

-अनिमेष जैन

देश काल की परिस्थितियाँ सदा एक सी नहीं रहती। समय सदा ही परिवर्तनशील रहा है उत्थान और पतन का क्रम भी निरंतर रहा है। संसार की अन्यान्य प्रवृत्तियों के साथ धर्म भी इस क्रम से प्रभावित होते रहा है। कभी धर्म अपने पूर्ण प्रभाव और प्रबलता से युक्त रहता है कभी ऐसा भी समय आता है जब धर्म का प्रभाव क्षीण होने लगता है उसमें शिथिलता आ जाती है यह सब देश काल की परिस्थितियों के अनुरूप होता रहता है। जब जब धर्म का रूप धुंधलाता है उसकी गति मंथर होती है तब-तब कुछ ऐसे प्रखर ऊर्जावान महापुरूष जन्म लेते हैं जो धर्म परम्परा में आई मलीनता और विकृतियों का उन्मूलन कर धर्म के मूल स्वरूप को पुन: स्थापित करते हैं। ऐसे ही जगतोद्धारक महान उन्नायक, महापुरूष तीर्थंकर कहलाते हैं। ये धर्म तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक कालचक्र में अवसर्पिणी के सुषमा-दुषमा नामक तीसरे काल के अन्त में और उत्सर्पिणी के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल के प्रारंभ में जब यह स्रष्टि भोगयुग से कर्मयुग में प्रविष्ट होती है तब क्रमष: चौबीस तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं। यह परम्परा अनादिकालीन है। जैन आगम के अनुसार अतीत काल में अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं, वर्तमान में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं जिनमें महावीर स्वामी चौबीसवें तीर्थंकर हुए हैं। वर्तमान में अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का शासन काल चल रहा है। जैन धर्म में सर्वोपरि महत्व मनुष्य का ही है। वह अपनी साधना के शिखर पर पहुँच कर और अपने मन की पवित्रता का आश्रय पाकर स्वयं ही तीर्थंकरत्व को प्राप्त हो जाता है वस्तुत: मनुष्य अनन्त क्षमताओं का कोष है। उसमें ही ईश्‍वरत्व का वास है, किन्तु उस पर सांसारिक वासनाओं मोह माया और कर्मों का ऐसा सघन आवरण पड़ा है कि वह अपनी सषक्तता और महानता से परिचित ही नहीं हो पाता। जब मनुष्य अपनी आत्मशक्ति को पहिचानकर इन आवरणों को दूर कर लेता है तो मनुष्यत्व के चरम शिखर पर पहुँच जाता है। सर्वथा निर्दोष, निर्विकार, और शुद्धता की स्थिति प्राप्त कर मनुष्य सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, ईश्‍वर, परमात्मा, शुद्ध और बुद्ध बन जाता है।

भगवान महावीर का जन्म गर्भ के नौ माह पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ल त्रयोदशी सोमवार को उत्तरा फाल्गुनि नक्षत्र पर वैशाली के उपनगर कुण्डपुर के गणप्रमुख महाराज सिद्धार्थ के यहां हुआ था उनकी माता का नाम त्रिशला था जिन्हें प्रियकारिणी भी कहा जाता था। बाल्यावस्था से ही गम्भीर, शान्त, उदात्त एवं संयम के धारक थे। महावीर अत्यंत साधनामय और अनासक्त जीवन को लेकर उत्पन्न हुए थे। आठ वर्ष की आयु में उन्होंने अणुव्रत; अणुव्रत पाँच हैं – अहिंसाणुव्रत; सत्याणुव्रत; अचौर्याणुव्रत; बम्हचर्याणुव्रत; और परिग्रह परिमाण व्रत। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये रागद्वेषपूर्वक किसी जीव को मन-वचन-काय से पीडा पहुँचाना हिंसा है इस हिंसा के स्थूल त्याग को अहिंसाणुव्रत कहते हैं, स्थूल झूठ का त्याग सत्याणुव्रत है, स्थूल चोरी का त्याग अचौर्याणुव्रत है, काम प्रवृत्ति के त्याग का बम्हचर्य कहते हैं, अपनी आवश्‍यकताओं के अनुरूप धन धान्यादि की सीमा बनाकर उससे अधिक का त्याग करते हुए उनके प्रति निस्पृह रखना परिग्रह परिमाणव्रत है। ध्द धारण कर लिये थे। वे तीर्थंकर थे। वे राजकुमार थे। गणराज्य के नियमानुसार उन्हें कुमारात्य के र्सम्पूण अधिकार और भोग की सम्पूर्ण सामग्री उपलब्ध थी। बल और पौरूष में सम्पूर्ण वज्जिगण में कोई उनकी समानता नहीं कर सकता था। सौन्दर्य में वे देव कुमारों को लज्जित करते थे। जब उनकी अवस्था विवाह योग्य हो गयी फिर भी उनकी व्रृत्ति आत्मके्रन्द्रित थी काम और कामिनी की कामना उनके मन में क्षण भर के लिए भी कभी न जागी। क्योंकि वे योगी थे। योगी की पहचान ही यह है कि जब संसार के प्राणी संसार व्यवहार में जागृत रहते हैं, उस समय योगी संसार व्यवहार में सोया रहता है किन्तु वह आत्म दर्षन में सदा जागृत रहता है। जो सदा आत्मानुभव का रसास्वाद करता रहता है उसे कामिनियों का कमनीय रूप और काम की स्पृहा कब आकर्षित कर सकती है।

भगवान महावीर ने 30 वर्ष की आयु में ही दीक्षा धारण कर ली। महावीर की स्वयं की तो साधना थी ही, फिर उनका पारिवारिक वातावरण और पृष्ठभूमि भी उनकी साधना में सहायक थी।

जैन परम्परा में पांच तीर्थंकरों ने कुमार काल में और ष्षेष तीर्थंकरों ने राज्य के अन्त में तप को ग्रहण किया।

णेमी मल्ली वीरो कुमार कालम्मि वासुपुज्जो य।

पसो वि य गहितवा सेसजिणा रन्जचरमम्मि ॥

इसी के अनुकरण पर पदम पुराण में इस सम्बन्ध में लिखा है –

वासुपूज्यो महावीरो मल्लि: पार्ष्वो यदुत्तमा :।

कुमार निर्गता गेहात्प्रथिवीपतयो परे ॥

भगवान ने एकाकी ही दीक्षा ली थी। संयम धारण करते समय वे अप्रमत्त नाम सातवें गुणस्थान में स्थित थे। उस समय उनकी आत्मा में निर्मल परिणामों के कारण परम विशुद्धि थी। फलत: उन्हें तत्काल मन: पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया। महान पुरूषों की महानता इसी में है कि वे जनता के सामने उन्हीं बातों की प्रकाष करते हैं, जिसे वे अपने में ढाल लेते हैं। और उसका अनुभव कर लेते हैं। भगवान महावीर जिन आदर्शों को संसार के सामने रखना चाहते थे पहिले उन सबका अनुभव स्वयं में किया व सचाई की कसौटी पर कसा, तभी उन्हीं आदर्षों को संसार के समक्ष रखने में जरा भी नहीं हिचकिचाये थे। ऐसा करने के लिये उन्होंने ओंम् नम: सिद्धम् कहकर जात रूप मुद्रा धारण की वही मुद्रा जिसे कि निर्विकार बालकवत् निर्भय परमहंस मुद्रा या असली मुद्रा कहा जाता है। अब वे पूर्ण तपस्वी महामुनि और योगीश्‍वर थे उन्होंने 12 वर्ष तक आष्यचर्यकारी तपस्या की तपस्यारूपी भट्ठी में कर्म कालिमा को भस्म करके अपनी आत्मा को पूर्ण स्वतंत्र और निर्दोष बनाया तब उनके लिये पूर्ण आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ जिसके कारण वे ईश्‍वर, सर्वज्ञ, अर्हत्,जिनेन्द्र, कहलाये।

अहिंसा- भगवान महावीर ने दुनिया के समक्ष सर्व प्रथम अहिंसावाद के आदर्श सिद्धांत को रखा और भूले भटके वाममार्गियों को बताया, यदि तुम जीना चाहते हो तो दूसरे का जीने दो तभी तुम भी जी सकते हो अन्यथा नहीं। दूसरों की सुख शांति भंग मत होने दो अथवा तुम दूसरों की सुख शांति बनाये रखो तभी तुम्हें सच्ची सुखशांति प्राप्त हो सकती है।

सत्य – ‘वत्थु स्वभावो धम्मो’ वस्तु का जो स्वभाव है वह धर्म है और जो धर्म है वही सत्य है। जैसे अग्नि का धर्म उष्ण और पानी का धर्म शीतल है। ये धर्म अपने स्वभावानुवर्ती पदार्थ को छोडकर अन्य पदार्थों में नहीं जा सकते यही इनकी सत्यता है। उसी प्रकार आत्मा का धर्म ज्ञानदर्षनात्मक है, ये ज्ञान दर्शन आत्मा को छोड़कर अन्य पर पदार्थों में नही पाये जा सकते, यह इनकी प्राकृतिक सत्यता अनादि से अनन्त तक चली आ रही है और चली जावेगी। धर्म तो हमेशा धर्मी में ही पाया जाता है। जब आत्मा का लक्षण ज्ञानदर्शनात्मक है तब ज्ञान का मतलब है जानना और दर्षन का मतलब है देखना। जो वस्तु जैसी मालूम हो जैसी देखी हो उसी का उसी रूप में कहकर अपने ओर से न घटाना न बढाना यही सत्य है और आत्मा का धर्म है।

अपरिग्रहवाद – अपरिग्रह का मतलब है इच्छाओं का अभाव या कमी। अपरिग्रहवाद का मतलब अम्बर का अभाव नहीं अपितु इच्छाओं का अभाव हैं। आन्तरिक अभिलाषाओं को रोकना सच्चा अपरिग्रह है।

कर्मवाद .- प्राणी जितना पुण्य कर सकता है उतना पाप भी। यदि शक्ति का दुरूपयोग किया जा सकता है तो समझदार प्राणी सदुपयोग भी कर सकता है। जो जैसा करता है वैसा ही फल पाता है परमात्मा सुख या दुख तुम्हें नहीं देता हैं। तुम्हीं अच्छे बुरे कर्म करते हो और तुम्हीं पुण्य पापरूप फल भोगते हो।

साम्यवाद .- साम्यवाद का मतलब है अनुचित भेदभाव को भूलकर सम दृष्टि से सबको मानना। ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्‍य, शूद्र आदि जो चार वर्णों की कल्पना है वह आचरण मात्र से हैं। अपने आचरण से ही मनुष्य उच्च और नीच बन सकता है, भले ही मनुष्य शूद्र वर्णी क्यों न हो यदि उसके आचरण बर्ताव, कर्तव्य उत्तम हैं तो वह उत्तम ही कहा जावेगा।

स्याद्वाद – जहां पक्षपात न हो, किसी का पीड़ा न हो वही स्याद्वाद है। इसी स्याद्वाद को जब धर्म के जामे में लाया जाता है तब उसे जैन धर्म कहते हैं। स्याद्वाद, अनेकान्त, कथंचिद्वाद, सप्तभंग, जैनधर्म दृष्टिकोण से वस्तु का कथन आदि सब स्याद्वाद शब्द के समर्थक पर्यायवाची हैं। प्रत्येक वस्तु को ठीक-ठीक समझने के लिये उसको भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखना चाहिये, उसके भिन्न-भिन्न पहलुओं पर विचार करना चाहिये, तब ही वस्तु का स्वरूप अच्छी तरह समझा जाता है। स्याद्वाद के सहायक – वस्तु परिस्थिति का सत्य समझने के पहिले प्रमाण, नय, उत्पादव्यय ध्रौव्य, इनको समझना अत्यंत आवश्‍यक है।

भगवान महावीर की वाणी में सात तत्व, नौ पदार्थ, पंचांस्तिकाय, छह द्रव्यों का कथन किया गया। अनेकान्त स्याद्वादमयी उनकी वाणी आज भी लाखों मुमुक्षुओं के लिये मार्गदर्शन कर रही है।

4 COMMENTS

  1. anekant is the principle, on which Jainism is based. syadvad is the way to express or convey this principle in words. These are not synonyms as stated. Care should be taken not to convey anything that comes to mind.

    Ashok Kumar Jain

  2. -अनिमेष कुमारजी जैन- धन्यवाद।गागर में सागर जैसा, संक्षेपमें बहुत सुंदर, और समग्रता को आवरित करता हुआ लेख।
    आपही के मूल अंशका कुछ विस्तार, मेरी जानकारी के अनुसार निम्न है। बीज रूपसे आपने प्रस्तुत किया ही है।
    (१) स्याद हमारे “शायद” शब्दका मूल है। जिसमें शायद ऐसा है,(अर्थात शायद वैसा भी) है। अर्थात अन्य अर्थोंकी संभावना प्रतीत कराता है।
    (२) उसी प्रकार अनेकान्तवाद, एक वस्तुको अनेक अंतो (कोणो) से देखने पर जो अलग अलग सच्चाई प्रतीत होती है।वास्तविकता को समझने के लिए, उसके आकलन के लिए “अनेकांतवाद” बहुत सहायक है।
    ऐसी दृष्टि को सम्यग दृष्टि, उससे सम्यग ज्ञान प्राप्ति, यही ज्ञानकी भी चरम सीमा है।
    (३) हमारा सनातन षड्दर्शन भी एक घनको (क्यूब) को छः दिशाओंसे देखने से जो दर्शन प्राप्त होता है, उसीकी निपज है।
    सुना है, परस्पर पूरकता का कर्तव्य भाव जो भारतीय कुटुंब (परिवारका) मूल है, वह अनेकांत वादके सिद्धांत पर ही अधिष्ठित है। पुनः इस लेखके लिए धन्यवाद।

  3. अभिषेक purohit ji
    स्यादवाद का अर्थ hai विभिन्न apekshaon से वस्तुगत anek धर्मों का प्रतिपादन iska शाब्दिक अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है – syat-कथंचित kisi अपेक्षा से वाद arthat bolna

  4. bahut achchha likha hai kripa kar “syayavad” ke bare me vistar se bataye ,क्योकि मेने जो पढ़ा है इसके बारे में वो पूरा bhinn है आपके diye vivaran se.
    जब मानव संकुचित सोच में फस गया था,मनुष्य धर्म के नाम पर हिंसा के तांडव में उलझ कर अपने को भुलाने लगा था,तब करुना को failane,मानव में dya dhrm ahinsa ka bij bone bhagavan mahavir padhare the,tath samaj को सत्य-अंहिसा-brahmachry ka uapdesh diya ,क्रोध-इर्ष्य-हिंसा-लोभ-मोह से तपते मनुष्य पर अपरिग्रह-दया-शांति-अहिंसा के जल की वर्षा की……………

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