कविता “चाहत” के माध्यम से पाठक का ध्यान उसकी अपनी “चाहत” (जीवन का लक्ष्य) की और आकर्षित करने का प्रयास किया गया है, जिसके लिए उसका अंतर्मन अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा उद्वेलित रहता है। ‘यार’ उपमा के द्वारा उस व्यक्ति को सांकेतिक तरीके से संबद्ध किया गया है, जो अपने जीवन में कुछ महान कर गुजरने का निश्चय करता है, परन्तु अपने ही भूतकाल में उलझा रहता है । जीवन की घटनाओ के तर्कों और भूतकाल की यादों के सहारे से उसके जज्बातों को पुनर्जीवित करने की चेष्टा की गयी है। पथिक को अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए अटल एवं अनवरत कोशिश करने के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया गया है तथा यह भी प्रतिबिंबित किया गया है कि उसका आत्म विश्वास ही जीवन में सदेव उसका पथ प्रदर्शक रहेगा ।
चाहत
ऋषभ कुमार सारण “यार”
हो गयी है यूँ जंग जो, अब “यार“ जीत के आना होगा,
हर एक गम की कसक, हर एक ख़ुशी की चाहत,
हर एक मासूम की दुआ, हर एक यौवन की आशा,
कुछ करने का जज्बा, और कुछ पाने की ललक,
हर उन बिखरे ख्वाबों के तूफाँ, हर एक आने वाली जीत का तमाशा,
यूँ खुल ही गया है खाता तो, हर एक मामूली हिसाब चुकाना होगा !
हो गयी है यूँ जो जंग तो, इस बार जीत के आना होगा !!
रह गयी एक टीस सीने में, वो आधा सवाल ढूढना होगा
पडोसी के घर का खुला आंगन, अपने घर की वो चार दीवारी,
मचलते बचपन के वो टूटे गुल्लक, खेल-खेल में बिखरे घरोंदे,
खिलहानों के उमरे, उनमे खड़ी वो एक कुंवारी,
लड़कपन की यारी , और उमड़ती जवानी के पिरंदे,
यूँ खुली है जबान तो, एक वाजिब जवाब दे कर आना होगा !
लगी है जो आग सीने में, यार’ अब मशाल को फिर से जलाना होगा !!
चल पड़े है यूँ कदम, तो हर राह पे चलना होगा,
हसीं रास्तों के झरोखे, मुश्किलातों के झाख्झोरे,
साथी कारवों के झुंढ़, अकेलेपन की दास्ताँ,
पगडण्डी सा धुंधला भविष्य, क्षितिज तक फैले मैदान सा संकल्प,
बिखरे काँटों के वो शर, और सजे फूलों के वो गुलिस्तां,
यूँ उठी है नजर जो, खुदगर्ज आसमां को भी झुकना होगा !
यूँ इबादत से लगाई है आवाज, अबकी बार तो खुद मंजिल को ही चल के आना होगा !!
हो गयी है यूँ जो जंग, हर दम जीत के आना होगा !!