धर्म-अध्यात्म

”कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”

-आर एल फ्रांसिस

भारत भूमि में जन्मा कौन ऐसा व्यक्ति होगा जिसने श्रीकृष्‍ण का नाम न सुना हो? श्रीकृष्‍ण को वन्दे जगदगुरु भी कहा जाता है। श्रीरामचन्द्र के समान श्रीकृष्‍ण भी करोड़ों भारतवासियों की श्रद्वा और भक्ति के पात्र रहे है। वास्तव में श्रीकृष्‍ण की सम्पूर्ण जीवन लीला, उनका दुष्‍टों से लड़ना और सज्जनों की रक्षा करना, उनकी राजनीतिक क्षमता और सबसे अधिक उनका गीता के द्वारा दिया हुआ कर्मयोग का संदेश भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है।

मनुष्‍य कहने को तो मुठ्ठी भर माटी है परंतु उसमें शैतान भी है, देवता भी और भगवान भी। इसलिए व्यक्ति का व्यवहार सदैव एक सा नही होता, उसके मन में देवासुर संग्राम चलता ही रहता है। हिंदू धर्म के अनुसार मन एक प्रकार का रथ है जिसमें कामना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्‍या और घृणा नाम के सात अश्‍व जुटे है जो वयक्ति को उसके कर्मपथ से दूर ले जाते है।

मानव को कर्तव्यपालन में तत्पर करने की दृष्टि से श्रीकृष्‍ण ने जो उपदेश दिया था उसकी व्यख्या गीता में की गई है वह युग-युग तक मानव जाति का पथ प्रदर्शन करती रहेगी। श्रीकृष्‍ण के मुख से निकले यह अमर शब्द ”कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” अंधकार में भटकते मनुष्‍य के लिए प्रेरणादायी और उत्साहवर्धक है। फल की चिन्ता से मुक्त होकर कर्तव्यपालन को ही सुखी और सफल जीवन का मंत्र कहा जा सकता है। यह उपदेश किसी देश, काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु समस्त मानव जाति के लिए है। इसे समस्त मानव जाति के लिए ही श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन को निमित बना कर कहा है। इन उपदेशों के मूल में यह है कि कर्म करो क्योंकि कर्म करना मनुष्‍य का कर्तव्‍य है परंतु यह कर्म निष्‍काम भाव से होना चाहिए।

श्रीकृष्‍ण के उपदेश सतत कर्म एवं समाज के कल्याणार्थ प्रयत्न करने की षिक्षा देते है। इन उपदेशों की खसयित यह है कि इसमें समाज एवं व्यक्ति दोनों के कल्याण अविभाज्य रुप से एक हो जाते है। श्रीकृष्‍ण कर्म के माध्यम से किंकर्तव्यविमूढ़ मनुश्य को सत्य मार्ग दिखाने का कार्य करते है। दरअसल श्रीकृष्‍ण का व्यक्तित्व बहुआयामी दिखाई देता है। वह दार्शनिक, चितंक, गीता के माध्यम से कर्म और योग के संदेशवाहक और महाभारत युद्व के नीति निर्देशक थे। किंतु आम भारतीय के लिए तो वह आज भी गाय चराने, मटकी फोड़ने और माखन चोर और नटखट कन्हैया ही है। गीता में इसी की भावाभिव्यक्ति है- कृष्‍ण कहते है-हे अर्जुन! जे भक्त मुझे जिस भावना से भजता है मैं भी उसको उसी प्रकार से भजता हूँ। देवी देवताओं में मात्र श्रीकृष्‍ण ही ऐसे है जिनके संबंध में सबसे अधिक साहित्य की रचना हुई है। उतर से दक्षिण और पूर्व से पष्चिम तक के लोकगीतों में श्रीकृष्‍ण का यषोगान किया गया है।

श्रीकृष्‍ण ने गीता में कहा है कि काम, क्रोध व लोभ-ये तीनों नरक के द्वार है। इन तीनों का त्याग करें क्योंकि इनसे आत्मा तक का हनन होता है। कामुक आचार से व्यक्ति भ्रष्‍ट हो जाता है क्रोध बुद्वि को भ्रष्‍ट करता है और विवके में कमी लाता है जबकि लोभ उसे भिखारी बना देता है और कामनाओं के पूरा न होने से निराशा होती है। आज भौतिकातावाद के इस दौर में मानवीय संवेदनाए लगातार दम तौड़ रही है। मानव अपने कर्म पथ से भटककर अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए एक दूसरे का गला काटने से भी परहेज नही करते। जब होश आता है कि निज स्वार्थ की पूर्ती के लिए कितनों को दुख पहुंचाया है उसके बाद पश्‍चाताप होता है और वह जीवन को नए सिरे से जीना चाहता है। दरअसल सत्कर्म केवल मनुष्‍य के खुद के जीवन को ही प्रभावित नही करता बल्कि समाज पर भी असर करता है।