महाराष्ट्र ने तय किया भाजपा का रुख

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प्रमोद भार्गव

महाराष्ट्र में आए नगरीय चुनाव परिणामों ने लगभग यह तय कर दिया है कि उत्तर-प्रदेश समेत 5 राज्यों में चुनाव परिणामों का क्या रुख संभव है ? हालांकि कहने वाले आसानी से कह सकते है कि निकाय चुनाव राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय नहीं करते। लोकसभा व विधानसभा चुनाव में इनका सीधा-सीधा असर दिखाई नहीं देता है। मसलन चुनाव नतीजे भिन्न भी हो सकते हैं। लेकिन यहां गैरतलब है कि जो दल भाजपा को मुद्रा परिवर्तन अर्थात नोटबंदी को मुद्दा बनाकर घेर रहे थे, वे इस जमीनी हकीकत से हैरान हुए होंगे कि भाजपा का जनाधार शहरों के साथ ग्रामों में भी फैल रहा है। नोटबंदी के साये के तत्काल इन चुनाव परिणामों पर न केवल महाराष्ट्र व देश की नजर इसलिए थी, क्योंकि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में भाजपा-शिवसेना गठबंधन दो फाड़ हों गया था। नतीजतन राजनीति के विश्लेशकों को यह उम्मीद थी कि इन दलों को वोट बैंक विभाजन के दुष्परिणाम झेलने होंगे। लेकिन हुआ उल्टा, शिवसेना और भाजपा ने जहां पृथक रहते हुए खासतौर से मुंबई में अपनी-अपनी ताकत का जौहर दिखाया, वहीं राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और बसपा को अस्तित्व के संकट से गुजरना पड़ा है। कालांतर में ये दल कैसे अपना वजूद बचाए रख पाएंगे, फिलहाल कहना मुश्किल है।

महाराष्ट्र में नगरिय निकाय चुनाव संपन्न हो गए हैं। इनमें 37 हजार करोड़ रुपए सालाना बजट वाली देश की सबसे धनी बृहन्मुंबई महा नगरपालिका भी शामिल है। हालांकि यहां किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है, लेकिन 84 सींटे जीतने वाली शिवसेना और 82 सीटों पर विजयश्री हासिल करने वाली भाजपा मिलकर आखिर में टूटे गठबंधन को जोड़ लेंगी, ऐसी उम्मीद है। मुंबई के बाद अन्य नगरीय चुनावों में भी भाजपा बड़े फायदे में रही है। कुल 10 निकायों में से 7 निकायों पुणे, नासिक, उल्हासनगर, अकोला, नागपुर, सोलापुर और अमरावती में भाजपा विजयी रही है। भाजपा ने जहां नागपुर और अकोला में अपनी सत्ता कायम रखी, वहीं उसने पुणे और उल्हासनगर निकाय में राकांपा से छीनने में कामयाबी हासिल की है। पुणे में राकांपा 10 साल से काबिज थी। भाजपा ने सोलापुर और अमरावती से कांग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया, वहीं राज ठाकरे की मनसे से नासिक की सत्ता छीन ली। यही नहीं भाजपा ने 60 साल से काबिज चली आ रही कांग्रेस से लातूर जिला परिषद् भी छीन ली। बीते साल की भीशण गर्मियों में यहां केंद्र सरकार ने कई मर्तबा रेल से पानी भेजा था। कांग्रेस की इस शर्मनाक हार और खराब प्रदर्शन के चलते संजय निरूपम ने शहर कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्ताफे की भी पेशकश कर दी है। इसी तर्ज पर बीड़ में भाजपा की हार के कारण पंकजा मुंडे ने भी इस्तीफे की पेशकश की है।

नोटबंदी के फैसले के बाद यह धारणा बन रही थी कि भाजपा को अब कोई भी चुनाव जीतना मुश्किल होगा। हालांकि नोटबंदी की छाया में भाजपा ने जहां मध्यप्रदेश में लोकसभा व विधानसभा के उप चुनाव जीते, वही ओड़िशा के पंचायत चुनाव में भी सराहनीय प्रदर्शन किया है। इसी दौर में भाजपा ने चंडीगढ़ व अमुतसर के निकाय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन भी किया था। अब भाजपा ने महाराष्ट्र में शहरी व कस्बाई क्षेत्रों में परचम फैलाकर यह साफ कर दिया है कि नोटबंदी का असर मतदाताओं के दिमाग में  नहीं है, इसलिए भाजपा उत्तर-प्रदेश समेत पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों में उल्लेखनीय प्रदर्शन कर सकती है।

दरअसल नोटबंदी से हुई परेशानियों और मौतों को भुनाने की कोशिश निकाय चुनावों में खूब की गई थी, लेकिन मतदाता ने जता दिया है कि नोटबंदी के परिणाम जो भी रहे हों, अंततः यह फैसला देश हित में ही था। यदि समूचे महाराष्ट्र की सीटों के आंकड़े पर नजर डालें तो भाजपा को मिली सीटों से आधे से भी कम सीटें शिवसेना को मिलीं हैं और शिवसेना से आधे से भी कम पर कांग्रेस को मिली है। यही हश्र राकांपा, मनसे और बसपा का हुआ है। सबसे ज्यादा दुर्गति उस कांग्रेस की हुई है, जिसका लंबे समय तक महाराष्ट्र गढ़ रहा है। कांग्रेस से अलग होने के बाद राकांपा के जनक रहे शरद पवार महाराष्ट्र के निर्विवाद नेता माने जाते रहे हैं। 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में संप्रग सरकार बनी तो इसलिए, क्योंकि महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में उसे मिली इकतरफा जीत थी। इन्हीं दो प्रांतों के परिणामों ने संप्रग को 2009 में सत्ता पर काबिज बने रहने में अहम् योगदान दिया था। लेकिन 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस अपने इन परंपरागत गढ़ों पर वर्चस्व कायम नहीं रख पाई। उसका यही हश्र विधानसभा चुनावों में भी हुआ। उसके हाथ में न आंध्र-प्रदेश रहा और न ही महाराष्ट्र। इन हारों से कांग्रेस ने कोई सबक लिया हो, ऐसा भी देखने में नहीं आ रहा है। उत्तर-प्रदेश में जिस तरह से राहुल गांधी अखिलेश यादव के पिछलग्गू के रूप में पेश आए हैं, उससे कांग्रेस और राहुल ने यह जता दिया है कि अपने अखिल भारतीय अस्तित्व को बचाए रखने की कूबत कांग्रेस और राहुल दोनों ने ही खो दी है। यदि पंजाब और उत्तर-प्रदेश में कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करने में नाकाम रही तो फिर निराशा के घने बादलों से गिर जाने के अलावा उसके पास कोई चारा ही नहीं रह जाएगा। क्योंकि ओडिशा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि बयार किस ओर बह रही है।

इन परिणामों से आधात मनसे और बसपा को भी लगा है। अपवादस्वरूप इक्का-दुक्का परिणामों को छोड़ दिया जाए तो इन दलों को मतदाता ने लगभग खारिज कर दिया है। मतदाताओं ने मनसे को नासिक समेत अन्य जगह दरकिनार कर यह जता दिया है कि अब अतिवाद उसे बर्दाश्त नहीं है। वहीं बसपा को भी यह समझ लेना चाहिए कि महज एक जाति और एक संप्रदाय विशेष के मतदाताओं के धु्रवीकरण करने जैसी जैसी कुचेष्टाओं से उसकी दाल गलने वाली नहीं है। हालांकि पराजित दल यह सोचकर चिंतित हो सकते हैं कि नोटबंदी मुद्दा नहीं बना, वहां तक तो ठीक है, लेकिन किसान आत्महत्या और सूखा भी काम नहीं आए। नागपुर नगरीय निकाय जीत कर भाजपा और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस ने जता दिया है कि जनता को अन्य दलों से कहीं ज्यादा उन पर भरोसा है। क्योंकि नागपुर और लातूर वहीं क्षेत्र हैं, जहां सबसे ज्यादा सूखे का सामना करने के कारण किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं।

इन नतीजों के बाद देवेंद्र फड़णवीस एक कुशल नेता के रूप में पेश आए हैं। वैसे भी मुख्यमंत्री बनने के बाद यह उनकी पहली परीक्षा थी, जिसमें वे शिवसेना से गठबंधन तोड़ कर भी उत्तीर्ण हुए हैं। हालांकि इस कसौटी पर के खरे उतरने में उन्हें भूतल परिवहन मंत्री नितिन गड़करी की साझेदारी काम आई है। यह सफलता उन्हें तब मिली है, जब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भाजपा पर लगातार विष बुझे तीर दागते रहे हैं। इस बीच सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी उन्होंने तल्ख टिप्पणियां की हैं। यहां तक कि चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा को ‘गूंडों की पार्टी‘ तक कह डाला। हालांकि पलटवार करते हुए भाजपा ने भी शिवसेना को ‘माफियाओं की पार्टी‘ कहा है। इतना कुछ कह चुकने के बाद दोनों की बोली बदल जाने की उम्मीद इसलिए बढ़ गई हैं, क्योंकि मुंबई में स्पष्ट बहुमत दोनों में से किसी भी दल के पास नहीं है। इसलिए सत्ता का स्वाद आगे भी बना रहे, इस नजरिए से कल दोनों गलबाहियां डाले नजर आएं तो इसमें चौकाने जैसी कोई बात नहीं है।

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