मैया मोरी! गांव सहा न जायौ!!

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लेओ जी ! फिर मुझ दुखियार के काने कौवे की आंख से बिटुआ का काॅल आई गवा! सच कहूं जब -जब बिटुआ का गांव से फोनवा आता है, अपना तो ये फटा कलेजा सुनने से पहले ही मुंह को आ जाता है। हे भगवान तुमने मुझे मां क्यों बनाया।

अपना बिटुआ दिल्ली छोड़ जबसे गांव गोद लेने गांव गया है न, अपनी तो मुई भूख प्यास सब खत्म हो गई है। दिन में चार- चार बार फोनवा रीचार्ज करवाना पड़ रहा है। वाह रे बिटुआ! जवानी में ये दिन भी तुझे देखने थे। अभी तो पांच साल दूर हैं। पता नहीं तक तब और क्या- क्या दिन देखने पड़ेंगे??

बुरा हो इस सरकार का! जो मन में आए किए जा रही है। हम विपक्ष वालों तक के हाथों में कभी झाड़ू हाथ में पकड़वा देती है तो कभी फावड़ा! कल राम जाने क्या हाथ में पकड़वा दे।

अब देखो न, मेरे फूल से बचुआ को गांव गोद लेना पड़ा। मैंने उसे यह करते हुए बहुत समझाया कि बेटा! उन्हें लेने दे चार-चार गांव गोद! तेरे दिन तो अभी मां की गोद में बैठने के हैं। मैं तेरे बदले एक के बदले दो गांव गोद ले लेती हूं, पर बिटुआ नहीं माना तो नहीं माना, लाड़ला है , सो जिदी है। बड़ा भी हो गया है पर मां के लिए तो बेटा कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए,जबतक उसकी शादी नहीं हो जाती, बच्चा ही रहता है!

अब सरकार को कोई कैसे समझाए कि इसके तो अभी गोद में बैठने- खेलने के दिन हैं। आजतक यह किसी न किसी की गोद में ही लोटता रहा। उसे आजतक हमने गोद से उतारा ही कब?उसने उतरना भी चाहा तो हमने उतरने न दिया। उसे क्या पता कि किसीको गोद में कैसे बिठाते हैं? वह तो पड़ोसियों तक के बच्चों को गोद लेने से शरमाता है। डरता है कि कहीं उस पर किसी बच्चे ने शु शु कर दिया तो….

पर नहीं! शादीशुदा हो चाहे कुंआरे! अम्पी हो तो कछु गोद लो या न लो पर गांव हर हाल में गोद लो। पक्ष- विपक्ष कछु नाहीं चलेगा रे बाबा!

बेचारा पता नहीं गोद में गांव लेकर कैसे रह रहा होगा? हाय रे ये जनसेवा! उसे तो ठीक से अभी गोद में बैठना भी नहीं आता और बेचारा वह! अब जाके कोई उनसे पूछे कि कल तक जो मेरी गोदी में रहा उसे क्या आता है किसीको अपनी गोदी में लेना? पर नहीं! वे सुनने वाले कहां! उनके तो आजकल कहने के दिन हैं और सुनने के अपने।

‘अरे का हाल है बिटुआ! गांव में सब ठीक तो हैं?’

‘ मां!मां! फिर दिक्कत आ गई है!’

‘अब का दिक्कत आ गई मेरे फूल से लला?’

‘मां गांव मां लाइट नहीं है। इहां तो सरकारी कर्मचारी तो दिखते ही नहीं पर सूरज भी अपनी मर्जी का है। बिजली वालों ने बस बिजली की तारें ही पेड़ों से बांध रखी हैं। और उन पर गांव वाले अपने कपड़े सूखने डालते हैं। गांव में पानी की पाइप तो हैं पर उनमें पानी नहीं आता । गांव वाले उनमें गागरों से पानी डाल फिर नलके से भरते हैं।’

‘ये गागर कैसी होती है बिटुआ?’

‘मम्मा! आई हैव नो वडर््स टु एक्सप्लेन दिस पर वर्डसैप पर फोटो भेज दूंगा तो किसी से फोटो डिटेल करवा लेना। पर इस अंधेरे में का करें अम्मा!इहां तो रात को तो अंधेरा रहता ही है पर दिन को भी अंधेरा ही रहता है। आपके बिना हमें बहुत डर लग रहा है। मन कर रहा है गांव किसी और की गोद में बिठा दिल्ली आ जाएं बस!हमें नहीं बनना अब कुछ… इहां तो बुरा हाल है। ऐसा नहीं हो सकता मां कि हम मोदी अंकल की दिल्ली वाली गली ही गोद ले लें? इहां तो कोई मेरी गोद में आ शु-शू कर देता है तो कोई …..’

‘ चिंता न कर मेरे लाल! कुरिअर से अभी हगिज भिजवा रही हूं । साथ में हर पैकेट के साथ दस रुपए का रीचार्ज फ्री ।’

‘पर मां!! क्या करना फ्री रीचार्ज का! इहां तो मोबाइल सिगनल पेड़ की चोटी पर चढ़कर ही आता है। वहीं से चढ़ कर आपको फोन लगाए हैं मां! अब हम से ये गांव और नहीं सहा जाता । हम बस अभी बैलगाड़ी से …….’

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अशोक गौतम
जाने-माने साहित्‍यकार व व्‍यंगकार। 24 जून 1961 को हिमाचल प्रदेश के सोलन जिला की तहसील कसौली के गाँव गाड में जन्म। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से भाषा संकाय में पीएच.डी की उपाधि। देश के सुप्रतिष्ठित दैनिक समाचर-पत्रों,पत्रिकाओं और वेब-पत्रिकाओं निरंतर लेखन। सम्‍पर्क: गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड,नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन, 173212, हिमाचल प्रदेश

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