घर में अकेला था सो दरवाजे पर दस्तक हुई तो मैंने दफ्तर न जाने का पक्का मूड बनाए सोफे पर पसरे- पसरे ही पूछा, ‘कौन?’
’ रामबोला!‘
‘ ताजी- ताजी टीवी पर इबोला की खबर सनसनी फैला रही थी सो सहमता पूछ बैठा,‘ इबोला??’
‘नहीं साहब! रामबोला!’
‘कौन रामबोला?’
‘ रामबोला बोले तो तुलसीदास!’
‘वो गांव वाले?’
‘नहीं, चित्रकूट वाले!’ उठ दरवाजे के छेद में से एक आंख बंदकर बाहर झांक पहचानने की पुरजोर कोशिश पर कोशिश नाकामयाब रही तो बची -खुची लोकलाज की दुहाई सुनते दरवाजा खोला, ‘माफ करना, पहचाना नहीं!’
तो आगंतुक ने हंसते कहा,‘ जिस युग में जीव अपनी पहचान तक भूल गया हो वह दूसरे को क्या खाक पहचानेगा? अरे मैं वही हूं जिसे तुमने बचपन में अपनी पांचवीं की फटी किताब में गौर से देखा करते थे,’ उनके कहने पर पहले से ही फटे जा रहे दिमाग पर पे्रशर डाल बरसों पुरानी पांचवीं की फटी किताब के पन्ने गिनने लगा तो याद आया, ‘अच्छा तो आप वही तुलसीदास हो जो अपनी पत्नी से मिलने शव पर नदी पार कर गए थे …… कि सांप को रस्सी…..? जेल में बंद सतों के समर्थन में तो नहीं आए हो?’
‘ नहीं, वे तुम्हारे संत हैं, हम किसी और के । पर तुम्हारी सोच आजतक नहीं बदली! मेरा रामचरितमानस याद नहीं जो तुम्हारे पूजा के स्थान पर बरसों से धूल चाट रहा है। यार! उसके मूल्य अपनाने तो दूर, उसे खोल भी नहीं सकते तो कम से कम उसकी धूल ही झाड़ दिया करो। उसमें फिनाइल की दो- चार गोलियां ही रख दो। कम से कम सिलवर फिश से तो बचा रहे, ’ कुछ देर तक निरीह भाव से मेरी ओर देखते रहने के बाद वे आगे बोले,‘ तुमने क्या समझा था? बरवाले वाले संत होंगे?’
कुछ कहे बिना मन ही मन कुढ़ता मैं यह सोचता सादर उन्हें भीतर ले आया कि तुलसी के भीतर कबीर कैसे प्रवेश कर गए?
नाश्ता -पानी करने के बाद बोले,‘ यार मान गए तुम्हें और तुम्हारे युग के संतों को!’
‘क्यों, ईश्र्या तो नहीं हो रही हमारे संतों के ठाठ- बाठ देखकर कि काश ! हे तुलसीदास! रह गए न अभी तक चौथी पास! वे पढ़े लिखे संत हैं पढ़े लिखे! उनकी मास्टरी धूनी रमाने में नहीं, बहलाने फुसलाने में है। दुल्हन वही जो मां बाप से बेटा छुड़ाए, आज संत वही जो बड़ों- बड़ों का उल्लू चुटकी में बनाए। तुम भी जो मध्यकाल में पैदा होने के बदले आजकल पैदा होते तो करोड़ों के मालिक होते? चेले- चेलियां इतने कि शादी- ब्याह रचाने की जरूरत ही न पड़ती … भक्त घासफूस के छप्पर से भी महरूम और तुम्हारे विदेशों में टेनस्टार आश्रम इतने कि…..’
‘तुम संत कहते हो इन्हें ?’ वे गुस्साते बोले!
‘तो तुम ही कहो, क्या कहें इन्हें ? हमारे तो ये पूज्नीय हैं।इनके बिना हमारे टीवी चैनल ही नहीं खुलते। देखते नहीं, जनता है कि सरकार से निराशा के बाद शांति की तलाश में इनके डेरों में सब छोड़- छाड़ किस तरह निर्वेद भाव से लंगर डाले है। भक्त हैं कि घर में पड़ोसियों को धुआं देकर रखते हैं और वहां इनकी सेवा देखो तो….. अब मेरी घरवाली को ही लीजिए प्रभु! घर में अकेला पड़ा- पड़ा चार-चार दिनों की बासी रोटी खाता रहता हूं , और वह है कि संत समागम में परलोक सुधार रही है। अपने घर में कूड़ा डाल उनका आंगन बुहार रही है,’ मन की पीड़ा पता नहीं मन के किस छेद से बह निकली।
‘कलियुग का सब समझ आया पर एक बात समझ नहीं आई!’
‘क्या कबीर??’
‘कबीर नहीं, तुलसीदास!’ कह वे गुस्साए तो मैंने कहा, ‘आप ऐसे क्रांतिकारी तो थे नहीं कि जो…… ये काम तो कबीर का ही था। आप तो बस…..’
‘ अच्छा छोड़ो कबीर, तुलसी का लफड़ा! पर ये संत और सिक्योरिटी । संतन को कहां सिक्योरिटी से काम! वह भी जैड श्रेणी की। संत तो ठहरा संत! धोती में स्वर्ग पा जाए। पर तुम्हारे संतों का कारोबार ऐसा कि टाटा- बिरला को पीछे छोड़ दें। माया के इतने लोभी कि… कुछ भी बेचने पर उतारू हो जाएं। कामुक इतने कि इनकी कामुकता को देख कामदेव भी इनसे शरमा जाए। आखिर क्या खिलाते हो इन संतों को तुम यार? एक अपने जमाने के कबीर , सूरदास संत थे कि ….. और एक ये तुम्हारे संत हैं कि…..’
‘ छोड़ो ये धर्म-शर्म की बातें ! तुम भी इस दौर के संत होते तो रामचरितमानस के बदले कामचरितमानस ही रचते। ये तुम्हारे कंगाल काल के नहीं, मेरे मालामाल काल के संत है तुलसीदास! अपने काल का हर संत सोने का चमच लेकर पैदा होता है तो भक्त टुथपिक लेकर। जो हर समय अपने दांत कुरेद कर पेट भरता रहता है। ’
‘पर बात कुछ हजम नहीं हो रही! संत तो हर युग में संत ही होता है!’ तुलसी ने पेट पकड़ते कहा तो मैंने जेब से हाजमोला देते कहा,‘ तो लो हाजमोला, और मौज करो।