मालेगांव षडयंत्र का भण्डाफ़ोड

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malegaonविनोद बंसल

राष्ट्रीय जाँच एजेंसी यानी एनआइए की ओर से मालेगांव बम धमाके की आरोपी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और पांच अन्य को क्लीनचिट दिए जाने पर कुछ ‘सैक्यूलरवादी’ दलों और मीडिया (खासकर अंग्रेजी) का जिस प्रकार विधवा विलाप शुरू हुआ वह कोई आश्चर्यजनक तो नहीं किन्तु अप्रासंगिक तथा अराष्ट्रीय अवश्य लगता है। हालांकि, इस क्लीनचिट के बाद भी इन सभी की रिहाई होगी या नहीं, वह तो अभी भी माननीय न्यायालयों पर ही निर्भर है किन्तु, कांग्रेस सहित अनेक दलों के कुछ नेता और मीडिया का एक वर्ग ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे वे जाँच टीम में शामिल रहे हों या फिर न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे हों। यदि प्रज्ञा सिंह और अन्य के खिलाफ मालेगांव में विस्फोट करने की साजिश में शामिल होने के पुख्ता प्रमाण थे तो फिर ‘हिन्दू आतंकवाद’ का शगूफ़ा छोडने वाले ये सत्ताधारी छ: साल के अपने शासन काल में भी इन लोगों को सजा क्यों नहीं दिला पाए। देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज और राष्ट्रवादी हिन्दू संगठनों को बदनाम करने की नीयत से यूपीए सरकार द्वारा विशेष रूप से गठित एनआइए 2011 से लेकर 2014 तक और इसके पहले मुंबई पुलिस का आतंकवाद निरोधी दस्ता (एटीएस), आखिर यह काम क्यों नहीं कर सका?

एक बात और, जिन नेताओं को यह लग रहा है कि एनआइए ने राजनीतिक दबाव में गलत फैसला लिया है उन्होंने मालेगांव में ही 2006 में हुए बम विस्फोट के सिलसिले में पकड़े गए आठ आरोपियों की रिहाई पर चुप्पी क्यों साध ली, जिन्हें चंद दिनों पहले इसी एनाईए ने ही रिहा किया था। गत माह इनकी रिहाई तब हुई जब इसी एनआइए ने कहा कि एटीएस ने जो सबूत जुटाए थे वे भरोसेमंद नहीं हैं। इन आठ लोगों की रिहाई के समय इन नेताओं ने सवाल तो उठाए किन्तु, बिल्कुल उलट, कि आखिर उन्हें कोई मुआवजा क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? प्रश्न उठता है की अगर वे आठ मुआवजा पाने के अधिकारी हैं तो ये छह क्यों नहीं? फ़िर, साध्वी प्रज्ञा तो गत अनेक वर्षों से केंसर जैसी गंभीर बीमारी से भी ग्रसित हैं. आखिर यह दोहरी राजनीति क्यों?

राजनैतिक उद्देश्य से सिर्फ़ हिन्दू आतंकवाद साबित कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों पर ही वक्र दृष्टि होती तो भी समझा जा सकता था किन्तु, राजनैतिक विद्वेष की आड़ में सैन्य अधिकारियों को भी षडयन्त्र पूर्वक फंसाना कहाँ तक बर्दाश्त किया जा सकता है. एनआईए के खुलासे में यह कहा गया कि ‘एटीएस ने खुद ही पुरोहित के घर आरडीएक्स रखवाया था’, मिलिट्री इन्टेलीजेन्स के एक वरिष्ठ अधिकारी कर्नल पुरोहित के माध्यम से सम्पूर्ण सेना का मनोबल तोडने की एक गहरी साजिश थी। इनके अलावा अतिरिक्त चार्ज शीट में यह भी कहा गया है की 12-13 अतिरिक्त महत्वपूर्ण गवाहों, जिनमें पांच सैन्य अधिकारी भी थे, को एटीएस ने जान बूझकर नजरंदाज कर दिया. इन अधिकारियों ने साफ़ तौर पर एटीएस की आरडीएक्स थ्योरी पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए कहा था कि आरडीएक्स तो एटीएस के उपनिरीक्षक शेखर बागडे ने स्वयं सैन्य अधिकारी के देवलाली स्थित घर में रखे थे.

रही बात साध्वी प्रज्ञा पर आरोपों की, तो, विस्फोट में प्रयुक्त एलएमएल फ्रीडम मोटर बाइक साध्वी प्रज्ञा सिंह के नाम थी, जिसे उन्होंने दो वर्ष पूर्व रामचंद्र उर्फ़ राम जी को दे दिया था. इसके अलावा उंनके विरुद्ध कोई सबूत नहीं मिले. एनआईए के अनुसार प्रज्ञा ने एक बार देने के बाद, कभी भी, अपनी बाइक न तो रामजी से वापस मांगी और न ही उस बाइक के साथ उन्हें कभी देखा गया. एनआइए ने यह भी कहा है कि एटीएस द्वारा यह कहा जाना की प्रज्ञा ने यह बाइक विस्फोट से पूर्व ही राम जी को दी थी, कहीं भी साबित नहीं होता। एनआइए ने एटीएस पर यह भी आरोप लगाया है कि उसके द्वारा आरोपियों के इकबालिया बयान लेने के लिए उनको गंभीर यातनाएं दी गईं. अनेक बार लाइ डिटेक्टर, नारको सहित अन्य गंभीर टेस्टों से उन्हें अनावश्यक रूप से गुजरना पडा.

मालेगांव धमाकों में पहले लश्कर, फिर सिमी, और, फिर अचानक जिस प्रकार हिन्दू संतों और सैन्य अधिकारियों को छुद्र राजनैतिक उद्देश्यों से निशाना बनाया गया वह भयंकर राष्ट्र विरोधी कृत्य नहीं तो और क्या है? इसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम ही है.

एनआइए के इस सनसनीखेज खुलासे ने जहाँ पूरे देश की आँखें खोल दीं हैं वहीं यह चिंतन भी गंभीर रूप लेता जा रहा है कि आखिर निर्दोषों को कब तक प्रताड़ित कर यातनाएं दी जाती रहेंगी और षडयंत्रकारी कब तक गुलछर्रे उड़ाते हुए भारत की आत्मा (संविधान, हिन्दू समाज, संत और राष्ट्रभक्तों) को यूँ ही बदनाम कर उनकी जिंदगी को दाँव पर लगाते रहेंगे? आज जितना आवश्यक आतंकी धमाकों के गुनहगारों को दंडित करना है उससे कहीं ज्यादा, जांच के नाम पर निर्दोषों को फंसा कर राष्ट्रभक्तों को देश द्रोही और आतंकी साबित करने के घिनोने षडयंत्रकारियों को बेनकाब करना है. आशा है भारत को न्याय मिलेगा तथा राष्ट्र धर्म सुरक्षित रह पाएगा.

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  1. असल में तो कांग्रेस को हिंदू बिलकुल पसंद नहीं है , वह तो सम्प्रदाय के नाम पर समाज को बाँट कर , या जातिगत विभाजन कर चुनाव जीतने वाली पार्टी है , कभी दलितों के नाम पर बाँट टी है तो कभी पिछड़े वर्ग के नाम पर , सवर्ण समाज तो उसको स्वीकार्य ही नहीं है

  2. कांग्रेस के सभी शासकों और एटीएस को पता था कि यह झूठा केस है। ६ वर्ष तक आरोप पत्र नहीं दाखिल करने का और क्या अर्थ हो सकता है? भारत की न्यायपालिका पर भी प्रश्न चिह्न है कि बिना आरोप पत्र के कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा तथा आसाराम बापू वर्षों तक जेल में कैसे बन्द रहते हैं? आजकल हेमन्त करकरे की शहादत का अपमान कहा जा रहा है। स्वयं उन्होंने या उनका सम्मान करने वालों ने क्यों आरोप पत्र नहीं दिया था? आतंकवाद के विरुद्ध भी उनकी लड़ाई में भी केवल एक सिपाही की वीरता के कारण अफजल कसाब पकड़ा गया। बाकी क्या एक भी स्थानीय समर्थक अभी तक पकड़ा गया है? बिना स्थानीय पुलिस तथा होटल अधिकारियों की मदद के कसाब की टीम सही ठिकाने पर नहीं पहुंच सकती थी। ताज होटल खोजा जा सकता है पर यहूदी लोगों का घर खोजने के लिये गाईड की जरूरत थी। मान सकते हैं कि अफजल कसाब या उसके ५ सहयोगी छिप कर घुस सकते थे, पर उनके लिये हथियार और गोला बारूद का प्रबन्ध किसने किया? ताज होटेल की हर मंजिल पर कई कमरों में छिपा कर बारूद रखा गया था जिसका पता होटल के ही सभी लोगों को नहीं था। कसाब को कैसे पता चल सकता था? बुलेट प्रूफ जैकेट की नकली खरीद भी तो हेमन्त करकरे के ही दायित्व में हुआ। उन्होंने यह नहीं सोचा था कि खुद उनकी मृत्यु इसकी कमी के कारण हो जायेगी। इसी प्रकार पठानकोट आक्रमण भी स्थानीय एसपी की प्रत्यक्ष मदद से ही हुआ। अभी तक वह गिरफ्तार नहीं हुये हैं। वह अकेले वायुसेना अड्डे पर हथियार नहीं पहुंचा सकते थे, उसके लिये वायुसेना अधिकारियों का सहयोग जरूरी था। सीमा पर आज भी बिजली का घेरा है, पर आतंकवादियों के आने के समय आधे घण्टे के लिये स्विच औफ कर देते हैं। नयी खरीद केवल कमीशन का पैसा खाने के लिये उपयोगी है। उसमें भी थोड़ी देर के लिये स्विच औफ करना पड़ेगा।

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