तृणमूल कॉंग्रेस अघ्यक्ष ममता बनर्जी का संप्रग सरकार से समर्थन वापिसी का फैसला देश हित में है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधारों के बहाने खुदरा में निवेष डीजल में मूल्य वृद्धि और उपभोक्ता को सस्ते गैस सिलेण्डर देने की जो संख्या तय की है, ये उपाय आम उपभोक्ता की कमर तोड़ने वाले तो हैं ही बड़ी तदाद में बेरोजगरी बढ़ाने वाले भी हैं। कॉंग्रेस ने इन कुिटल उपायों से दो कोशिशें एक साथ कीं। एक मनमोहन सिंह ने साफ कर दिया कि उन्हें देश की गरीब जनता से कहीं ज्यादा विष्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्र्रा कोष और कंपनियों के आर्थिक हित साधन की चिंता है। दूसरे, कांग्रेस के इन ताबड़तोड़ फैसलों से जाहिर होता है कि वह कोयला और इस्पात घोटालों पर परदा डाले रखना चाहती है। कांग्रोस अब विचित्र धर्मसंकट में है। ममता के ऐलान के बाद कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी का जो बयान आया है, वह इस बात का संकेत है कि ममता को मनाने के उपाय इन दो – तीन दिनों में युद्धस्तर पर होंगे। यदि ममता की शर्तें मानते हुए सरकार अपने फैसले वापिस लेती है तो उसका बड़े पैमाने पर नैतिक और राजनैतिक महत्व तो घटेगा ही, उसकी साख और इज्जत में भी बट्रटा लगेगा।
कांग्रेस अब सांप – छंछूदर की गति को प्राप्त है। संप्रग गठबंधन में जो दल सत्ता में शामिल हैं, उस लिहाज से तृणमून की सर्मथन वापिसी से सरकार अल्पमत में आ गर्इ है। यदि संसद सत्र चल रहा होता तो संप्रग को संसद में विश्वास मत से सामना करने की जरूरत से रूबरू होना पड़ता। आर्थिक सुधारों के पैरोकार के रूप में कथित अंतरराष्ट्रीय छवि बनाने की फिक्र में लगे मनमोहन सिंह को जरूरत थी कि लिए फैसलों पर वे तृणमूल और द्रमुक की राय भी लेते। नैतिकता का तकाजा तो यह भी था कि उन्हें बाहर से समर्थन दे रहे सपा और बसपा से भी राय मश्वरा करना चाहिए था। लेकिन उम्रदराज और गैर निर्वाचित मंत्रियो के हाथ का खिलौना बनी कांगे्रस ने मनमानी करने में कोर्इ अड़चन न आए इसलिए सब सहगियों को दरकिनार रखा। मार्च 2012 में जब खुदरा में विदेशी निवेष का मसला छिड़ा था तब कांग्रेस के संकटमोचक रहे वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने सहयोगियों को भरोसा जताया था कि जब तक सर्वानुमती नहीं बन जाती खुदरा में निवेष को मंजूरी नहीं मिलेगी। जबकि इधर कैबिनेट द्वारा फैसलों के असितत्व में आ जाने के बाद वित्तमंत्री पी. चिंदबरम ने सार्वजनिक बयान दे डाला कि किसी भी फैसले को वापिस नहीं लिया जाएगा। बलिक अगले डेढ़ माह में आर्थिक विकास की रफतार तेज करने के नजरिये से कुछ और कड़े कदम उठाए जाएंगे। चिदंबरम के इस बयान ने जहां आहत ममता के जले पर नमक छिड़कने का काम किया, वहीं यह भी संकेत दिया कि निकट भविष्य में पेंशन और बीमा में भी विदेश पूंजी निवेष के द्वार खुलने जा रहे हैं। ममता इनमें निवेष की प्रबल विरोधी हैं।
इस पूरे मसले पर कांग्रेस और संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी की भूमिका भी गैर-जिम्मेदाराना और संदिग्ध रही। कोयला घोटाले के पर्दाफाश होने के बाद सीबीआर्इ जांच में प्रधानमंत्री के साथ-साथ कांग्रेसी सांसदों पर जिस तरह से शिकंजा कस रहा है, इस परिप्रेक्ष्य में शायद उनकी मंशा रही होगी कि इन फैसलों से कोयले की कालिख दब जाएगी। इसीलिए ममता के 72 घंटे के अल्टीमेटम को उन्होंने कोर्इ तवज्जों नहीं दी और न ही सुलह की कोर्इ ठोस पहल की। जबकि इस फैसले के विरोध में कांग्रेस के भीतर ही हरीश रावत और केवी थामस ने विरोध के स्वर मुखर कर दिए थे। यही नहीं कांग्रेस के जो 50 की उम्र से कम आयु के निर्वाचित मंत्री और सांसद हैं, वे एफडीआर्इ और मूल्य वृद्धि के विरोध में थे। लेकिन उम्रदराज और सोनिया की अनुकंपा से राज्यसभा के रास्ते मंत्री बने सांसदों ने युवा सांसदों की सलाह को नौसिखियों की अनुभवीनता कहकर टाल दिया। अब ममता द्वारा कड़ा रुख अपनाने के बाद सोनिया ने कानों में ठसी अंगुलियों को निकाल लिया है और जनार्दन द्विवेदी ने अंतिम परिणाम सामने न आ जाने तक ममता को सहयोगी मानने का जो बयान दिया है, उससे रोल-बैक की उम्मीदें बड़ी हैं। यहां यह भी जानने की जरुरत है कि मनमोहन के पीछे विदेशी ताकतों का समर्थन चाहे जितना हो, उनकी असली ताकत आखिरकार सोनिया गांधी ही हैं।
ममता की समर्थन वापिसी ने सपा, बसपा और द्रमुक को भी धर्मसंकट में डाल दिया है। राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के शरद पवार भी आंखें तरेर सकते हैं। द्रमुक के करुणानिधि ने भारत बंद में शामिल घोषणा भी कर दी है। सपा और बसपा के लिए अब यह संभव नहीं है कि वे नीतियों का विरोध भी करें और संप्रग को बाहर से टेका लगाकर अपने हित भी साधते रहें। अब यदि ये दल मानते हैं कि ताजा फैसलें जनविरोधी हैं, तो इन्हें निर्णायक कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। हालांकि मुलायम सिंह का जो बुनियादी चरित्र है, वह समाजवादी है और वह इस समय गैर कांग्रेस की हवा में तीसरे मोर्चे के अवसरों की तलाश में प्रधानमंत्री बन जाने के मोहक स्वप्नलोक में भी गोता लगा रहे है। इसलिए परमाणु करार के समय वामपंथियों की समर्थन वापिसी के मौके पर संप्रग-एक को कंधा देने के वक्त भले ही सपा की मजबूरी रही हो, फिलहाल ऐसे कोर्इ विपरीत हालात उनके समक्ष नहीं हैं। अब इस कददावर नेता को राममानोहर लोहिया की, ‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं उकित की याद ताजा करने की जरुरत है। ममता के फैसले ने देश की राजनीति को बदलाव के कगार पर तो लाकर खड़ा कर ही दिया है, मुलायम निर्णायक कदम उठाने का साहस जुटा लेते हैं तो तीसरे मोर्चे के वजूद में आने के दरवाजे भी खुलते दिखार्इ देने लग जाएंगे।
बहरहाल सब कुल मिलाकर कांग्रेस बड़े संकट से घिर चुकी है। इतनी फजीहत के बाद इस गठबंधन की नैतिकता का भी कोर्इ विशेष औचित्य नहीं रह गया है। यदि कांग्रेस ममता को राजी भी कर लेती है तो उसके पास कुछ नया करने लायक नहीं रह जाएगा ? कुछ न करने की स्थिति में सरकार में बने रहने से बेहतर है मनमोहन खुद लोकसभा भंग किए जाने की राष्ट्रपति के दरबार में गुहार लगा दें और मध्यावधि चुनावों का सामना करें। यदि कांगे्स अंदरुनी कलाबाजी को अंजाम देते हुए सरकार चलाए रखना चाहती है और लोकसभा में विश्वास मत हासिल करने की नौबत आती है, तो उसके पास एक ही उपाय है कि वह बाल्मार्ट के डालरों से सांसदों की खरीद-फरोख्त करें ? लेकिन इस मर्तबा दुविधा यह है कि परमाणु करार के वक्त की तरह कांग्रेस को बिकने वाले सांसद भी मिलने वाले नहीं हैं ? बहरहाल ममता ने इस लड़ार्इ को गरीब और अमीर की लड़ार्इ में जिस तरह से विभाजित किया है, मनमोहन के प्रधानमंत्री रहते हुए कांग्रेस उसे पाट नहीं पाएगी और मनमोहन के चेहरे को लेकर ही आगामी आम चुनावों में जाती है तो मनमोहन की भूमिका कांग्रेस के लिये भस्मासुर की भूमिका भी साबित हो सकती है ?