मनुष्य और उसकी जीवात्मा

0
256

मनमोहन कुमार आर्य

दो पैर, दो हाथ तथा बुद्धि से सम्पन्न प्राणी को मनुष्य कह सकते हैं। पशुओं में प्रायः सबके पास चार पैर होते हैं। इसके अपवाद हो सकते हैं। कई पक्षियों के दो पैर होते हैं परन्तु हाथ नहीं होते। छोटे छोटे कीड़ो आदि में पैरों की संख्या अधिक भी हो सकती है। हाथ परमात्मा ने केवल मनुष्यों को ही दिये हैं। इन हाथों से मनुष्य वह अनोखे कार्य करता है जो कि बिना हाथ वाले प्राणी नहीं कर सकते। मनुष्य को हाथ कर्म करने और अच्छे कर्म करने के लिए ही दिये गये हैं। इनसे मनुष्य को दान व पुण्य के कार्य करने चाहिये। ऐसा इसलिए करना चाहिये कि परमात्मा ने हमें हाथों की जो सुविधा दी है उसका सर्वाधिक सदुपयोग हमें करना है। सदुपयोग यही हो सकता है कि हम पशु, पक्षियों को अपने हाथों से उनकी आवश्यकता के अनुरूप भोजन व चारा खिलायें। यह स्मरण रखना चाहिये कि प्शुओं के भीतर भी वही जीवात्मा है जो हममें हैं। हमारे इस जन्म से पूर्व कई जन्म ऐसे भी हुए हैं जिसमें हमने सभी पक्षी व पशुओं की योनियों में जन्म लेकर जीवनयापन किया है। अपने दोनों हाथों से हम मनुष्यों की सेवा करें, उनके दुःख दूर करें और धन व भोजन आदि से भी उनका यथायोग्य सत्कार करें। हमारे शास्त्रों व ग्रन्थों में कहा गया है कि माता, पिता व आचार्य हमारे देव हैं। यह हमारे पूजनीय देवता व सत्करणीय पुरुष हैं। इनका हमारे जीवन की उन्नति में प्रमुख योगदान होता है। यह न होते तो मनुष्य का जीवन चल नहीं सकता था। अतः इनके प्रति अपने सभी कर्तव्यों को वेद आदि ग्रन्थों से जानकर उन्हें पूरा करना चाहिये। हम सुनते हैं कि यूरोप में वहां पितृ यज्ञ व माता-पिता-आचार्यों की सेवा जैसी भावना शायद नहीं है। वहां के माता-पिता भी हमारे देश के उन माता-पिताओं के समान नहीं हैं जिनके संस्कार वेद ज्ञान पर आधारित हैं। अब तो हमारे देश में भी वैदिक शिक्षा की कमी व पाश्चात्य विलासिता के विचारों के कारण बच्चें अपने माता-पिता, गुरुजनों व परिवार के वृद्धों की उपेक्षा करने लगे हैं। न्यायालयों को यहां तक कहना पड़ा है कि बच्चों का कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता की सेवा करें और जो नहीं करते उनके लिए दण्ड का विधान व अपने माता-पिता को गुजारा भत्ता देने का भी प्राविधान कानूनों में किया गया है। अतः मनुष्य इतर पशु, पक्षी आदि प्राणियों से भिन्न है। परमात्मा ने इसे बुद्धि तत्व दिया हुआ है जिससे यह सेच विचार कर उचित अनुचित का निर्णय ले सकता है और विचार व निर्णय में सहायता के लिए माता, पिता व आचार्य सहित वेद और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ सहायक हैं।

मनुष्य के जीवन पर विचार करें तो यह माता-पिता से उत्पन्न उनके जैसा अर्थात् उनकी जैसी ही आकृति वाला प्राणी होता है। जीवात्मा मनुष्य जन्म में शिशु रूप में एक सीमा तक विकसित होता। शैशव व किशोरावस्था में इसके शरीर का अधिक विकास होता है और लगभग 18 व उससे अधिक आयु में यह युवा हो जाता है। युवावस्था में मनुष्य के पास शारीरिक शक्ति अन्य अवस्थाओं से अधिक होती है। मनुष्य की यह युवावस्था कुछ वर्षों तक स्थिर रहती है जिसके बाद शरीर की वृद्धावस्था का आरम्भ हो जाता है। वृद्धावस्था भी काफी समय तक रहती है जिसके बाद मनुष्य का जीवन मृत्यु आने पर समाप्त हो जाता है। जीवन के प्रथम भाग शैशवास्था में माता-पिता बच्चे का पालन पोषण करते हैं और उसे मातृभाषा का ज्ञान कराते हैं। उसे अच्छे संस्कार देते हैं जिससे वह भावी जीवन में सभ्य मनुष्य बनता है। 5 वर्ष से 8 वर्ष की आयु का हो जाने पर प्रायः सभी व अधिकांश बच्चे विद्यालय या पाठशाला में भेजे जाते हैं। उनका अध्ययन आरम्भ होकर लगभग 10 से 20 वर्ष की अवस्था तक चलता है। शिक्षा पूरी कर मनुष्य अपने व्यवसाय का चयन कर उसे आरम्भ करता है जिससे उसे धन की प्राप्ति होती है। इस धन से वह अपना घर बनाता व माता-पिता के घर का रखरखाव करता है। वाहन खरीदता है। माता-पिता व परिवारजनों के द्वारा उसका विवाह सम्पन्न किया जाता है। फिर उसकी सन्तानें होती है। अब वह भी माता-पिता की भूमिका में आ जाता है। जो 25-30 वर्ष पहले माता-पिता की भूमिका थी वह भूमिका अब वह स्वयं निभा रहा होता है। बच्चों का लालन पालन व उनकी शिक्षा का उचित प्रबन्ध उसे करना होता है और सभी माता-पिता ऐसा करते हैं। इस प्रकार से मनुष्य जीवन चलता जाता है। घर में वृद्ध माता-पिता होते हैं। उनकी सेवा का दायित्व भी उस पर होता है। इसका निर्वाह भी वह अपने संस्कारों, आर्थिक स्थिति व परिस्थितियों के अनुसार करता है।

 

मनुष्य जीवन क्या है और उसे यह किसने व क्यों दिया है? मनुष्य जीवन जीवात्मा को ज्ञान प्राप्ति व तदनुरूप सदकर्म करने के लिए परमात्मा से मिलता है। ज्ञान में परा व अपरा दोनों प्रकार की विद्याओं का ज्ञान सम्मिलित है। परा विद्या अध्यात्म विद्या को कहते हैं जिसमें वेद, उपनिषद व योग दर्शन आदि का ज्ञान व अभ्यास सम्मिलित है। ज्ञान प्राप्ति में ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु आदि का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इनका भी अध्ययन वा स्वाध्याय किया जाना चाहिये। इन ग्रन्थों से ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति का भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। जीवात्मा एक चेतन, सूक्ष्म, एकदेशी अनुत्पन्न, नित्य, अमर, ज्ञान व कर्म करने की सामर्थ्य रखने वाला, जन्म व पुनर्जन्म के चक्र में बन्धा व फंसा हुआ है। वेद और उपनिषद आदि की शिक्षा व आधुनिक ज्ञान-विज्ञान आदि की शिक्षा से मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है। ज्ञान प्राप्ति, वेदानुकूल व ऋषि मान्यताओं के अनुसार आचरण करने से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में अग्रसर होता है। अध्यात्म, ईश्वरोपासना, यज्ञादि कर्म, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय आदि से रहित मनुष्य का जीवन एकांगी होता है। अतः वेद व सत्यार्थप्रकाशादि ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपने कर्तव्यों का निर्धारण कर तद्वत व्यवहार करना चाहिये।

 

हमें जीवात्मा के विषय में भी यथोचित ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। हमारा जीवात्मा इस जन्म में इससे पूर्व के किसी जन्म से मृत्यु होने पर वहां से ईश्वर की प्रेरणा व शक्ति से इस शरीर में आया है। हमें यह शरीर परमात्मा ने हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर दिया है। हमें इस जन्म में पूर्व जन्मों के अभुक्त कर्मों का फल भोगना व नये कर्म करने हैं जिससे इस जन्म की तुलना में हमारा भावी जन्म समुन्नत हो। यदि इस जन्म में हमारे कर्म अच्छे नहीं होंगे, हम ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानकर उसकी यथाविधि स्तुति, प्रार्थना व उपासना नहीं करेंगे तो इसका प्रभाव हमारे इस जन्म सहित भावी जन्म पर भी अवश्य पड़ेगा। इसी कारण हमें किसी भी मनुष्य से अकारण भेदभाव नहीं करना चाहिये। पंचमहायज्ञों का यथाशक्ति आचरण व पालन करना चाहिये। वेदरक्षा और उसके प्रचार के प्रयत्न भी करने चाहिये। परोपकार व दान को भी जीवन में उचित महत्व देना चाहिये। इससे हमारा यह जन्म व भावी जन्म संवरेंगे। सबसे सद्व्यवहार करें। मनुक्त दस धर्म के लक्षणों का पालन करें और योगदर्शन निर्दिष्ट योगाभ्यास की रीति से ईश्वर की उपासना कर ईश्वर के साक्षात्कार का प्रयास करें। उपासना की सच्ची विधि व मन्त्र वही हैं जो ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों सन्ध्या, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व सत्यार्थप्रकाश में दिये हैं। ऐसा करके हम संसार के अन्य मत-मतान्तरों के लोगों से निश्चय ही अपना भविष्य अच्छा बना सकते हैं। हमें मांसाहार, मदिरापान, अण्डो के सेवन, घूम्रपान व सामिष सभी प्रकार के भोजनों का त्याग करना होगा। अधिक मिर्च, मसालों, तले व फास्ट फूड आदि जैसे व्यंजनों से भी बचना होगा नहीं तो हम रोगी होकर दुःखी होंगे व अल्पायु में पूर्व भोगों को भोगे बिना व नये पर्याप्त मात्रा में सद्कर्म किये बिना संसार से विदा हों जायेंगे जिससे हमारा परजन्म भी अधिक अनुकूल व सुखी शायद नहीं होगा।

 

हमने मनुष्य जीवन व जीवात्मा के विषय में संक्षिप्त चर्चा की है। इस चर्चा को विराम देते हैं।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress