कविता

मन का मेला

 

मेरे अतीत के आँगन में है,अनगिन सुधियों का मेला ।
कहाँ कहाँ ये जीवन बीता , कहाँ कहाँ ये  है खेला ।।
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रंग-बिरंगी लगीं दुकानें , तरह  तरह के  हैं  झूले ।
उन सब में भटका सा ये मन,अपना सब कुछ भूले ।।
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झूले  के  घोड़े पर  बैठा , ये  मन  सरपट  भागे ।
और कभी बैठा हाथी पर,धीमे धीमे बढ़ता आगे ।।
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कहीं ठहर जाता है पल भर, मन खोया खोया सा ।
और  कभी  होकर  उदास ये, लगता है रोया सा ।।
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सुखद याद जब आ जाती है , मन हर्षित हो जाता ।
बिन मौसम के तब तो है, मधुमास वहाँ  छा जाता ।।
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मेले  में  बिछड़े अपने जन , फिर  से  मिल जाते हैं ।
एकाकीपन तब मिट जाता,गीत पुराने मिल गाते हैं ।।
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शकुन्तला बहादुर