मेरे अतीत के आँगन में है,अनगिन सुधियों का मेला ।
कहाँ कहाँ ये जीवन बीता , कहाँ कहाँ ये है खेला ।।
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रंग-बिरंगी लगीं दुकानें , तरह तरह के हैं झूले ।
उन सब में भटका सा ये मन,अपना सब कुछ भूले ।।
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झूले के घोड़े पर बैठा , ये मन सरपट भागे ।
और कभी बैठा हाथी पर,धीमे धीमे बढ़ता आगे ।।
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कहीं ठहर जाता है पल भर, मन खोया खोया सा ।
और कभी होकर उदास ये, लगता है रोया सा ।।
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सुखद याद जब आ जाती है , मन हर्षित हो जाता ।
बिन मौसम के तब तो है, मधुमास वहाँ छा जाता ।।
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मेले में बिछड़े अपने जन , फिर से मिल जाते हैं ।
एकाकीपन तब मिट जाता,गीत पुराने मिल गाते हैं ।।
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शकुन्तला बहादुर