राजनीति

आतंकवादी हैं नक्सली

अब न हो कोई रहम

-दानसिंह देवांगन

नक्सलियों ने बीते दो दिनों में जिस प्रकार निरपराध और मासूम लोगों को मौत के घाट के उतारा है, उससे साफ है नक्सली अब आतंकवाद की राह पर चल निकले हैं। इससे पहले जितने भी नक्सली हमले हुए, सीआरपीएफ, स्थानीय पुलिस या राजनीतिक नेताओं पर हुए, लेकिन ये पहली बार है जब, परीक्षा दिलाकर वापस लौट रहे मासूम बच्चे और अक्षय तृतीया पर शादियों में शरीक होने जा रही महिलाओं को बेरहमी से विस्फोट कर उड़ा दिया गया। वहीं ठीक एक दिन पहले राजनांदगांव और कांकेर में मुखबिर के शक में सरेआम सरपंच समेत दस लोगों को पीट-पीटकर मार दिया गया।

इन घटनाओं से साफ है कि नक्सली अब किसी आंदोलन या विचारधारा या आदिवासियों के हक की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि इस देश को तोड़ने की साजिश कर रहे हैं। आतंकवादी सीमापार से आते हैं और दहशत फैलाने के लिए जहां अधिक भीड़भाड़ होती है, वहां हमला करते हैं। उन्हें न किसी की जात दिखती है, न कोई धर्म, उनकी नजर में न कोई मासूम है और न ही कोई बुजुर्ग। उन्हें तो बस देश को तोड़ना है, इसलिए भीड़भाड़ वाले इलाकों में हमला कर सैकड़ों लोगों की जान ले लेते हैं। अब नक्सली भी इसी राह पर निकल पड़े हैं। ऐसे देशद्रोहियों से भी वैसे ही निपटा जाना चाहिए, जैसे आतंकवादियों से निपटा जाता है।

इस देश का दुर्भाग्य है कि नक्सली मासूम लोगों की खून की होली खेल रहे हैं और दिग्विजय सिंह, अरूंधती राय व महाश्वेता देवी जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी नक्सलियों को आदिवासियों का मसीहा साबित करने में जुटे हुए हैं। ये सच है कि आजादी के साठ साल बाद भी आदिवासियों तक विकास की धारा नहीं बह पाई है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि आप बंदूक उठाकर सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ दे और अब तो हद हो गई। मासूम आदिवासियों को ही मौत के घाट उतार दिया गया।

जहां तक शोषण का सवाल है, शोषण कहां नहीं होता, शहरों में जहां लोग अपने आप को 21 वीं सदी के प्रगतिवादी मानते हैं, क्या वहां शोषण नहीं है। क्या कार्पोरेट जगत में शोषण नहीं है। क्या मीडिया में शोषण नहीं है। क्या प्राइवेट नौकरियों में शोषण नहीं है। क्या सरकारी नौकरी में शोषण नहीं है। क्या दिल्ली और मुंबई में शोषण नहीं है। शोषण सब जगह है, तो क्या पूरे देश के लोग बंदूक थाम लें। शोषण है तो लोकतंत्र ने इससे बचने के तरीके भी दिए हैं। हाईकोर्ट है, फोरम है, विधानसभा है लोकसभा है और सबसे उपर सुप्रीम कोर्ट है, जहां आप अपनी फरियाद सुना सकते हैं। इसके बाद भी लगता है कि सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं, तो इसी लोकतंत्र ने आपको सरकार हटाने का अधिकार भी तो दिया है। इसके बावजूद यदि नक्सली हथियार उठा रहे हैं तो वे माफी के काबिल नहीं हो सकते। खासकर तब, जब वे आम लोगों को अपना निशाना बना रहे हों।

मैं देशभर के तमाम बुद्धिजीवियों को भी सावधान कर देना चाहता हूं कि जिन नक्सलियों के लिए वे देश और समाज के साथ गद्दारी कर रहे हैं, एक दिन ऐसा आएगा, जब वे उन्हें भी मौत के घाट उतारने में पीछे नहीं हटेंगे। नक्सलियों को जब तक लगता है कि शहरी इलाकों में माहौल बनाने के लिए इन बुद्धिजीवियों की जरूरत है, तब तक ठीक है, उसके बाद या तो उन्हें कलम से शांत कर दिया जाएगा या फिर सांसों से। ओसामा बिन लादेन का उदाहरण पूरी दुनिया के सामने है। जिस ओसामा को अमेरिका ने रूस के खिलाफ इस्तेमाल किया, वही ओसामा आज अमेरिका के लिए सबसे बड़ा खतरा बनाहुआ है। देश के तमाम बुद्धिजीवियों से मेरा निवेदन है कि अपने कलम का इस्तेमाल देशद्रोही नक्सलवाद को जड़ से खत्म करने के लिए करें न कि उनकी मदद के लिए।