यदि आतंक फैलाकर या बनाए रखकर ही माओवाद को ज़िंदा रखना माओवादियों का मकसद है, तो वे अपने मकसद में फौरी तौर पर इसलिए कामयाब दिख सकते हैं की आतंक फैलाने में वे कामयाब हो गए हैं| पर, यदि वे यह सोचते हैं की कांग्रेस बहुत बड़ी पार्टी है, उसके ऊपर हमला करके वे देश में कायम व्यवस्था को कमजोर कर पाए हैं या उसे बदलने की दिशा में माओवाद को तनिक भी दूर आगे बढ़ा पाए है, तो वे पूरी तरह गलत है| या, वे यह सोचते हैं कि वे नगरीय इलाके के जनमानस को यह सन्देश देने में कामयाब हुए हैं की माओवाद ताकतवर होकर बहुत आगे बढ़ आया है और अब बारी आ गयी है कि अरबन जनता भी हथियार उठाकर उनके साथ हो ले, तो भी वे पूरी तरह गलत हैं क्योंकि इस हिंसा के फलस्वरूप पैदा होने वाली व्यग्रता का पूरा फायदा देश का शासक वर्ग ही उठा रहा है|
बहरहाल , जो कुछ हो रहा है , वह उस लंबी कहानी का हिस्सा है , जिसमें भारत के शासक वर्ग ने नवउदारवादी विकास के रास्ते पर तेजी से चलने की उतावली में आदिवासियों के मध्य शिक्षा , स्वास्थ्य , क्रय शक्ति , नए रोजगारों में खप सकने वाली योग्यता का निर्माण किये बिना , जंगलों को देशी और विदेशी कंपनियों को औने पौने दामों पर बेचने की शुरुवात की और आदिवासियों की ओर से विरोध होने पर शासक वर्ग अपने प्रयास को सुरक्षाबलों और पोलिस की मदद से अंजाम देने की कोशिश में है | इसी का नतीजा है कि माओवादियों को आदिवासियों का समर्थन भी हासिल हो रहा है और माओवाद के बस्तर के आदिवासी अंचल से निकलकर रायपुर , धमतरी , राजनांदगांव दुर्ग और महासमुंद के सेमी-अरबन इलाके तक फ़ैलने की रिपोर्ट आ रही हैं | इन परिस्थितियों में माओवादियों से जब हिंसा का रास्ता छोड़ने कहा जाता है तो उनका उलट प्रश्न यही होता है कि तब फिर सरकार भी भारतीय समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले , आजादी के बाद भी अवेहलना के शिकार और हाशिए पर पड़े आदिवासियों के ऊपर नवउदारवादी हिंसा को छोड़े |
पर , इस जद्दोजहद में माओवादी जिस एक बात को भूल रहे हैं वह यह है कि सरकारें और शासक वर्ग जनसाधारण के मध्य माओवादी हिंसा को फोकस करने में और उसके खिलाफ एक आम वातावरण आदिवासी, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बनाने में सफल हुईं हैं , जो न केवल माओवादी राजनीति की साख को खत्म कर रहा है बल्कि सामान्य रूप से सभी तरह की क्रांतिकारी राजनीति की साख पर से लोगों का विश्वास हटा रहा है | माओवादी हिंसा का यह रास्ता राष्ट्रीयता , लोकतंत्र जैसे नारों की आड़ में सरकार और शासक वर्ग की नीतियों और विकास के उनके विनाशक नवउदारवादी रास्ते को भी पुख्ता कर रहा है | माओवादी हिंसा के प्रति आम लोगों के मन में पैदा हो रही इस घृणा की सरकार को बहुत जरुरत है और भविष्य में नवउदारवादी विकास की विनाशक नीतियों को और तेजी से लागू करने के लिये और भी जरुरत होगी | माओवादी जाने अनजाने इसमें मददगार हो रहे हैं |
अरुण कान्त शुक्ला
सरकार क्योंकिशान्ति से किसी की बात सुनती ही नही है ईसलिए माओवादियों को हिंसा का ग़लत और गैरकानूनी रास्ता अपन पअदा है लेकिन सच य्हिहाई के लिट्टे की तरेह एक दिन नक्सलवादी भी हर जायंगे.