शादी, समाज और महिलाएं

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-केशव आचार्य

इन दो घटनाओं पर नजर डाले

पहली घटना है खास समुदाय द्वारा जारी फरमान जिसमें गोत्र में शादी करने के बाद पति पत्नी को अगर जिंदा रहना है तो उन्हें भाई बहन बनना होगा। दूसरी घटना बुलंदशहर की जहां अपनी मर्जी से शादी करने वाले लड़की के खिलाफ समाज ने सजाए मौत का फरमान सुना दिया। मेरा कहने का मतलब आप समझ गए होगे मै बात कर रहा हूं विकसित होने को आतुर भारत में शादी और समाज के बीच झंझावात में फंसे युवा और खासतौर पर महिलाओं की। भारत पुरूष प्रधान देश है लेकिन देश के गौरव को ऊंचा उठाने एवं पुरूषों को समानजनक स्थान तक पहुंचाने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। आजादी के बाद मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 के तहत महिलाओं को पुरूषों की तरह समानता एवं स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ है। भारत के 73वें और 74वें संविधान संशोधन के परिणाम स्वरूप ग्रामीण एवं नगरीय पंचायतों में महिलाओं हेतु एक तिहायी स्थानों को आरक्षित करे उन्हें चूल्हे चौके से बाहर निकाला गया। संविधान का 108वां संविधान संसोधन जिसमें महिलाओं के लिए 33 फीसदी का आरक्षण है भारी बहुमत से पारित हुआ। पिछले 3 चार दशकों से नारी के लिए तरक्की के लिए कई दरवाजें खुले है। लेकिन फिर भी उसकी जिंदगी एक सीमित घेरे में घूमती रही। आज महिलाएं करूणा, त्याग, उदारता, कोमलता आदि गुणों से परिपूर्ण तो है ही साथ ही शारीरिक, मानसिक, राजनैतिक, व्यवसायिक स्तरों पर भी अपनी पहचान दिलाई। बावजूद इसे आज भी महिलाओं का अपने लिए फैसले लेना समाज के लिए चुभने जैसी बात होती है। अपनी मर्जी से शादी करने वाली महिलाएं आज भी समाज के लिए क्रोध का केन्द्र बिंदु होती है।

तस्वीर का दूसरा पहलू

आर्थिक कठिनाईयों से जूझते हुए समाजिक वर्जनाओ और विषमताओं को तोड़ना महिलाओं के लिए आज भी नामुकिन है। भारतीय नारी में अदम्‍य क्षमता और मानसिक परिपक्‍वता के बावजूद वह जिस चौराहें पर खड़ी है उसे चारों ओर गड्ढे ही गड्ढे और दुर्गम चट्टाने है। राजाराम मोहन राय से लेकर दयानंद सरस्वती तक शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से लेकर पर्दा प्रथा की समाप्ति तक खुली हवा में सांस लेने वाली भारतीय नारी भले ही बाल विवाह, सती प्रथा, देवदासी के जीवन जीने से बच गई हो लेकिन घर की चारदिवारी को लांघ कर अपने लिए समानित जीवन जीने कल्पना करने वाली भारतीय नारी जीवन भर मानिसक तनाव और घुटन महसूस करती है। मल्टीनेशनल कंपनियों में बडे़ पदों पर बैठी हुई महिलाएं हो या फिर खेत खलिहानों में फसल काटने, बोझा ढोने वाले मजदूर, या फिर जेठ की चिलचिलाती धूप में सड़क के किनारे गोद में मासूम बच्चों को बांधे सड़क किनारे पत्थर तोड़नी वाली महिला जिसे सहानुभूति और दया तो मिलती है लेकिन समाज आज भी उने लिए गए फैसले के प्रति करूण नहीं। आज यह पीढ़ी पढ़ी लिखी है स्वतंत्रत है किंतु कहीं न कही दहेज की तेज लपटों में तंदूरों में जलाई जाती है तो कहीं स्कूल कालेज के चौराहों पर बलात्कार का शिकार बनाई जाती है तमाम कानूनी और प्रशासनिक उपायों के बीच आज भी कुटू बाई सती कर दी जाती है। तो तारा को निवस्त्र घुमाया जाता है तो कहीं खंडवा में उसकी नीलामी होती है तो कहीं भुनी नैना साहनी, तो कही शिवानी और मधुमिता हत्या कांड होता है। हर 7 मिनट में किसी महिला से छेड़छाड़ और लूटपात होती है हर 24वें मिनट में यौन शोषण का शिकार होती है। हर 54वें मिनट में बलात्कार का शिकार होती है। हर 102 मिनट में एक महिला दहेज के नाम पर उत्पीड़न की भेंट चढ़ जाती है। ऐसे में हमारे विकसित होने की सारे दभ धरासाई हो जाते है। घर के बाहर निकलते ही भारतीय नारी के दिमाग में एक ही चीज रहती है कि कोई नजर उसे पीछे है उसे हल पल अपने साथ होने वाली दुर्घटना की आशंका न जीने देती है न मरने देती है।

11 COMMENTS

  1. baat bilkiul sahi hai, adhunikta ka natak mhilaon ke kisi kam nahi a rha, jo tathakathi unke pairokaron dwara unpar thopne ki kosis ho rhi hai.

  2. अच्छा विषय उठाया है. वास्तिवकता यही है. महिलायों का साथ वाकई अत्याचार होता है. इन अत्याचारों में बहुत बड़ा हाथ महिलाऊ का भी होता है. लडको को शुरू से है लडकियों से श्रेष्ठ होना सिखाया जाता है. उदहारण : घर में लड़का लड़की बराबर है तो खाना खाने के बाद माँ हमेश लड़की को बोलेगी की थाली रख दो, रोटी ले आओ, गिलाश रख दो. लडको को पहले खिलाएगी, लड़की को बाद में. यह सिर्फ गाँव में ही नहीं बल्कि सहरो में भी होता है. नीव यही से डलती. जो बचपन में सीखा है वाही जीवन भर साथ चलेगा.

    शादी के बाद बहु को ससुराल में आधे बल्कि दस में से आठ मामलो में महिलाये ही तंग करती है. अगर महिलाये ठान ले की बहु तो तंग नहीं करना है तो कोई पुरुष हिम्मत नहीं करेगा. हर माँ लड़की को चाहती है किन्तु चाह लड़के की ही करती है.

    यह समस्या एक दो साल में ख़त्म नहीं होने वाली. यह सोच में परिवर्तन और घर में संस्कार विकसित करने से होगा. शुरआत हमें अपने घर से करनी होगी.

  3. असमानता को मौलिक रीतिसे देखने, सोचने हेतु प्रस्तुति।सोचिए–> (१)विवाह के पश्चात महिलाएं ससुराल जाती है। इस लिए १ व्यक्ति जो ससुरालके कुटुंबमें (४ -६) व्यक्ति वाले घरमें जाती है, उससे नए परिवारकी दिनचर्याके अनुसार बदलाव अपेक्षित है,या ४-६ व्यक्ति(बहुमति) १ व्यक्तिके(लघुमति) अनुसार बदलाव करें?(२)यदि पुरूष महिलाके घर (घर जवांई) जाए तो स्थिति अलग हो सकती है। (३) कल्पना करें। कि रातके समय एक महिला अकेले बाहर जाती है; और एक पुरूष अकेला बाहर घुमता है। इनमेंसे डर किसे लगेगा? रक्षाकी आवश्यकता किसे हैं? (४) महिलाएं बच्चेको जन्म देती है। साहजिकही बच्चेकी प्रेम भरी देख भाल वे अच्छे प्रकारसे कर सकती है। (५) जो निर्णय कर्ता है, वह सदा दूसरोंकी सुविधाको ध्यानमें रखकर निर्णय करे। यही रामके जीवनका आदर्श है।(६) ८०० वर्षकी दासतानें भी औए १५० वर्षकी अंग्रेजियत ने भी हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रीतिसे बदल दिया है।पश्चिममें नारी तो दासी ही है, यदि चेहरेपर रंग रंगोटि नहीं करेगी तो विवाह विच्छेद हो जाता है।
    (७) किसी विषमता का समर्थन नहीं, केवल आकलन है। कोई पक्ष नहीं ले रहा हूं।(८) कुछ जीवन चर्याके भाग इस लिए महिलाएं अधिक क्षमतासे निर्वाह कर सकती है। और अन्य कुछ भाग पुरुष अधिक क्षमतासे निर्वाह कर सकते हैं। यह विषमताएं नैसर्गिक है। यह आकलन हेतु लिखा है। पहली सीढी आकलन है।

  4. Bahut hi satik aur sahi soch hai aapki, aise hi aawaj uthane se mahilao ka kuch to bhala hoga…. aage badhate rahiye

  5. यदि हम महिलाओं की ख़राब स्थिति के लिए समाज को जिम्मेदार ठहराइ तो ये सही नहीं होगा क्योकि वो खुद ही डर के छाये में जी रही है यदि डर के छये से छुटकारा पाना चाहती है तो उसे ही आगे आना पड़ेगा, उसे ही चक्रव्यूह तोडना पड़ेगा. यदि में शोषित नहीं होना चाहता हु तो मझे दुनिया की कोई भी ताकत शोषित नहीं कर सकती है और रही बात महिलाओं के शोषण की तो एक तजा रिपोर्ट के अनुसार हर १०० में
    से ९० फीसदी दहेज के मामले फर्जी होते है .

    But even if u have wrote good keep it up……………..

  6. बहूत मुश्किल है कूद कर किसी नतीजे पर पहुच जाना केशव….आपने निश्चित ही काफी म्हणत से सन्दर्भों को इकठ्ठा कर अच्छा आलेख लिखा है. लेकिन आप सोचो ना ..हम लोग नियति के ऐसे दोराहे पर खड़े हैं जहां एक तरफ उत्तर आधुनिकता का चरम है, हमें इस तेज़ी से बदलती दुनिया के साथ कदमताल करते हुए अपने विचारों को उदार बना है. तो दूसरी तरफ हमारे ढेर सारे रीति-रिवाज़, परम्पारायें और मान्यताएं हैं. हमारा रास्ता कहीं ना कहीं उत्तर आधुनिकतावाद और पुरातनवाद के बीच से ही खोजना होगा. किसी एक को भी छोड़ देना मुश्किल ही है. तो ऐसे द्वंद की स्थिति में केशव की तरह कोई मार्ग दिखलाने वाला चाहिए. वैसे हम सब अपने जीवें के अलाल्ग-अलग महाभारत की लड़ाई लड़ रहे हैं. तो जाहिर है ‘गीता’ भी हमारा अलग-अलग ही होगा. तो कोई सर्वमान्य फार्मूला इस मामले में नहीं है.हमें अपने देश,काल और परिस्थिति के अनुसार ही अपने-अपने मार्ग का संधान करना होगा. सवाल जहां तक महिलाओं का है तो लाख विसंगतियों के बावजूद वो समाज के हर क्षेत्र में अपनी उपयोगिता साबित कर रही हैं. इतने बड़े देश में किसी २-४ घटनाओं से शायद हम उनकी ताकत या कमजोरी,उनकी महत्ता य उनकी अनुपयोगिता का अनुमान नहीं लगा सकते. वैसे अच्छा लेख, बढ़िया चिंतन………सादर.

    • पकंज जी एक छोटी सी बात पर गौर कीजिये मैं बहुत ज्यादा तोनहीं जानता लेकिन एक बात मुझे हमेशा समय और अधुनिकता के बीच के माहौल के बारे में सोचने पर मजबूर करती है 15 साल की लड़की के साथ घर से बाहर निकलने पर 5-6 साल के उसके छोटे भाई को भेजा जाता है आज भी घर में अम्मा खाना बनाने से पहले पिताजी से पूछती है कि क्या बनाउ इनके सब के बाद बीच रास्ता क्या हो कौन तय करेगा

      • asal me hum yani samaj ke log nari sashaktikatran ka matlab hi nahi samajh rhe ya fir smajhna nahi chahte bus ……….

  7. “शादी,समाज और महिलाएं” पढा।मेरी प्रतिक्रिया–>
    सामान्य रीतिसे, समाज परंपराओंके और रीति रिवाज़ोंके (श्रद्धा या अंध श्रद्धा के ) अनुसार व्यवहार करता है।और, परंपरा एक नदीके प्रवाह जैसी होती है; जिसकी दिशा बदलना महा कठिन होता है, और वह दीर्घ कालिक प्रक्रिया होता है।कानूनसे यह सहायता ही ले सकती है,क्रियान्वयन नहीं। मैं, सामाजिक व्यवहारके आकलन की बात कर रहा हूं; उसका अनुमोदन नहीं कर रहा।आकलन पहली सरल सीढी है। बदलना बडी कठिन सीढी है। बडे बडे समाज सुधारकोने एक एक परंपराको बदलनेमें पूरा जीवन लगा दिया है; जैसे कर्वे, बाबासाहेब अंबेडकर, गांधी, दयानंद, हेडगेवार, (और भी है)। कुछ और–>फिर प्रकृतिनें स्त्री और पुरूष को अलग गढा है।दोनोंकी शक्तियां अलग क्षेत्रकी है, वह एक दूसरे की पूरक है।जैसे एक आम= एक केला, गलत समीकरण है, वैसेही एक स्त्री=एक पुरूष, भी गलत समीकरण है।बौद्धिक क्षमताएं समान होते हुए भी शारीरिक क्षमताएं असमान है। परंपरा में बदलाव,कानूनसे नहीं; पर सारे समाजमें मानसिक(परिवर्तन) संस्कार करनेसे संभव है।यह काम, समर्पित जीवन देनेवाले, मस्तिष्कमें सदा, एक चिनगारी को अक्षुण्ण रखनेवाले महान राष्ट्र भक्तोंद्वारा संभव हुआ करता है।पहलु और भी है।छोटी टिप्पणीमें इतना ही।

  8. i appreciate your feelings and emotions for women in india .You focused on real story of indian women which is always neglected by social infrastructure.I think you have a bitter experience of this subject but sir your should think postive on matter because every coin had two sides and you cant ignore other side .Though women are still exploited in every manner ,relation ,social and other way but its not fault of our present scenerio of indian society.All blame goes to our indian mythology and past desades where women was pitty and sympathy idol for exploitation though exception are still present.Your work is satisfactory but lecture and writing is good but u still think it personally.

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