मर्यादाहीन राजनीति की त्रासद विडम्बना


                                        मनोज ज्वाला

    राम मनोहर लोहिया ने कहा था- “ राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति है । धर्म का काम है, अच्छाइयों की ओर प्रेरित करना , जबकि राजनीति का काम है बुराइयों से  लडना । धर्म जब अच्छाई न करे , केवल उसकी स्तुति भर करता रहे , तो वह निष्प्राण हो जाता है और राजनीति जब बुराइयों से लड़ती नहीं, केवल निन्दा भर करती है , तो वह कलही हो जाती है । इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्वों का सम्मिलन हो । धर्म और राजनीति का अविवेकी (तत्वहीन) मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देता है, अतः यह जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें , मर्यादा निभाते रहें ।”  

       भारतीय दृष्टि में मर्यादा पश्चिम का ‘लिमिटेशन’ नहीं है । लिमिटेशन तो एक प्रकार का सीमांकन है, जबकि ‘मर्यादा’ अपेक्षित आचरण-व्यवहार है , जो धर्म का एक मूल तत्व है । भारतीय समाज-जीवन के हर क्षेत्र में प्रत्येक आयाम की रचना धर्म-तत्व से ही हुई है । इसी अर्थ में राजनीति के धर्मानुकूल होने की भी अपेक्षा की गई है । अंग्रेजों और मुगलों के शासन से पूर्व हमारे यहां राजनीति ही नहीं , युद्ध की भी अपनी मर्यादायें थीं । बच्चों, निहत्थों, स्त्रियों, ब्राह्म्णों पर प्रहार न करना तथा गुरुकुलों, पुस्तकालयों व उपासना-स्थलों को क्षतिग्रस्त न करना ; छिप कर , अंधेरे में या पीछे से प्रहार न करना और जन-धन एवं शत्रुओं की समपत्ति-स्त्री को शिकार न बनाना भारतीय राजनीति में युद्धक मर्यादा के उदाहरण रहे हैं । यहां राजनीति जितना ज्यादा धर्मानुकूल रही है, उतनी ही मर्यादित भी रही है । इससे यह स्पष्ट होता है कि राजनीति में मर्यादा उसकी धर्मानुकूलता पर निर्भर है , राजनीति में धर्म-तत्व की उपस्थिति पर निर्भर है । भारतीय दृष्टि में ‘धर्म’ भी पश्चिम के ‘रिलीजन’ का अनुवाद नहीं है । धर्म का आशय पूजा-पाठ-मूर्ति-मंदिर-मंत्र-जाप से भी नहीं है , बल्कि धारण करने योग्य उन मानवीय कर्त्तव्यों से है, जिनमें समस्त व्यष्टि, समष्टि व परमेष्टि का कल्याण सन्निहित होता है ।  

      हमारे देश में राजनीति जब तक जितना धर्मानुकूल रही,  तब तक उतनी ही मर्यादित भी रही  है । किन्तु वर्तमान संसदीय जनतांत्रिक राजनीति चूंकि पश्चिम की चुनावी राजनीति का संस्करण है, जिसका धर्म-तत्व से अपेक्षित लगाव-जुडाव नहीं है , बल्कि यह सत्ता-प्राप्ति का साधन मात्र है, इस कारण जाहिर है- इसमें मर्यादा की बात ही बेमानी है ; क्योंकि इस राजनीति में शासनिक सत्ता हासिल करने के लिए तमाम प्रकार के छल-बल-छद्म-षड्यंत्र आदि तमाम अवांछनीयतायें वरेण्य हो गई हैं । बावजूद इसके,  सन १९४७ से पहले और बाद के कुछ दशकों तक की अपनी राजनीति पर आप गौर करें तो पाएंगे कि उसमें पर्याप्त नहीं तो कम से कम आंशिक रुप से ही सही मर्यादा कायम थी । राष्ट्र-हित के प्रश्नों पर प्रायः सभी राजनीतिक समूह और उनके नेता-नियन्ता व्यक्तिगत व दलगत नीतियों स्वार्थों से ऊपर उठ कर एकमत हो जाया करते थे । वैचारिक विभिन्नताओं के बावजूद  व्यक्तिगत टिका-टिप्प्णी, गाली-गलौज एवं जातीय विद्वेष तथा परस्पर प्रतिशोध का कोई स्थान राजनीति में नहीं था , बल्कि आदर्शों व सिद्धांतों के प्रति निष्ठा-प्रतिबद्धता को ले कर ही प्रायः सभी राजनेताओं में प्रतिस्पर्द्धा हुआ करती थी । दरअसल राजनीति में धर्म-तत्व की प्रधानता होने के कारण राजनीति का उद्देश्य समाज व राष्ट्र के समग्र कल्याण की ओर उन्मुख हो जाता है । तब की राजनीति का उद्देश्य यही हुआ करता था- समाज का कल्याण व राष्ट्र का उत्थान ।

        किन्तु जैसे-जैसे राजनीति में धर्म-तत्व का क्षरण होता गया, वैसे-वैसे राजनीति का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ सत्ता-प्राप्ति में सिमटता गया । राजनीति जब समाज की बुराइयों व अवांछनीयताओं से लड्ने के अपने धर्म से विमुख हो कर महज सत्ता-प्राप्ति के लिए चुनावी जीत हासिल करने के बावत पारस्परिक निन्दा-आलोचना की राह पकड ली, तब लोहिया के शब्दों में वह कलही बन गई । कलही, अर्थात कलह करने वाली, झगडा करने वाली । सिद्धांतों व आदर्शों से रहित हो गई राजनीति । तिस पर भी सन १९४७ के बाद हमारी राजनीति में धर्म-तत्व की बची-खुची सम्भावना तो आपातकाल के दौरान हमारे संविधान से धर्मनिरपेक्षता का प्रावधान जोड दिए जाने के कारण पूरी तरह समाप्त ही हो गई । यह धर्मनिरपेक्षता जो है , सो बडी अनर्थकारी है । इसे अपनाया तो गया पश्चिम की ईसाई-पंथनिरपेक्षता के तर्ज पर , किन्तु अपने यहां इसे धर्म के प्रति निरपेक्ष होने के अर्थ में लागू किया जाता रहा है । पंथ और धर्म तो एक है नहीं , सो हमारी राजनीति पंथ के प्रति निरपेक्ष तो हो नहीं सकी , बल्कि पंथ-विशेष के तुष्टिकरण में उलझ गई और उल्टे धर्म से ही इस कदर विमुख होती गई कि धर्म को  राजनीति से दूर करने का एक रिवाज सा चल पडा । तो ऐसे में राजनीति से धर्म-तत्व का लोप होते जाने के दुःखद परिणाम वही होने थे, जो हम देख रहे हैं ; अर्थात सिद्धांतो व आदर्शों से वंचित मर्यादाहीन राजनीति का जनम और प्रचलन ।

          महात्मा गांधी ने कहा था- “यदि मैं राजनीति में भाग लेता नजर आ रहा हूं , तो सिर्फ इसलिए , क्योंकि राजनीति ने सांप की कुंडली के समान हमें जकड़ लिया है, जिससे बचकर निकल नहीं सकता । इसीलिए मैं इस सांप से लड़ना चाहता हूं । और इस सांप से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका है- वास्तविक धर्म के उच्च आदर्शो को विकसित करना ” । गांधीजी ने बार-बार यह रेखांकित किया कि “सिद्धांतहीन राजनीति मौत के फंदे के समान है, जो राष्ट्र की आत्मा को ही मार डालती है ” । आज हमारे देश में राजनीति पूरी तरह से सिद्धांतहीन और आदर्शहीन हो गई है और इस कारण इसका उद्देश्य संकीर्ण स्वार्थों की सिद्धि में तब्दील हो गया है । उद्देश्य उत्त्कष्ट नहीं होने पर उसकी प्राप्ति के साधन का निकृष्ट होना स्वाभाविक ही है । महज सत्ता-प्राप्ति के संकीर्ण उद्देश्य को साधने वाले साधन के तौर पर कायम हमारे देश की निकृष्ट राजनीति की यह स्वाभाविकता इसकी मर्यादाहीनता के रुप में हमारे सामने है । जिन राजनीतिक दलों और उनके नेताओं का उद्देश्य केवल सत्ता-प्राप्ति ही है , उन्हीं के आचरण व कथन अमर्यादित होते रहे हैं , जो समय-समय पर समस्त भारत राष्ट्र को आहत कर दिया करते हैं । हमारी संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल की सजा माफी की वकालत करना, पाकिस्तानी जिहादी आतंकियों को सीमा पार जा कर सर्जिकल स्ट्राइक के द्वारा जवाब देने वाली भारतीय सेना से उसका प्रमाण मांगना , सैनिकों को गली-कूचे क गुण्डा बताना , पाकिस्तान के पक्ष में नारा लगाना , भारत को टुकडे-टुकडे करने की साजिशें रचने वालों का समर्थन करना, अयोध्या के राम को काल्पनिक बताना, हनुमान जी की जाति निर्धारित करना, प्रधानमंत्री को बिना किसी तथ्य व प्रमाण के ही चोर कहना, साधुओं-साध्वियों को भगवा-आतंकी कहना, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रवादी संगठन को जैश-ए-मोहम्मद जैसे भारत-विरोधी व जिहादी  संगठन के समतुल्य बताना, सेना पर पत्थर मारते रहने वाले आतंकी-समूहों के प्रति हमदर्दी जताना तथा भारतमाता-वन्देमातरम का विरोध करना और अभी-अभी पुलवाना (कश्मीर) में हुए आतंकी हमले को कांग्रेसी नेता सुरजेवाला द्वारा प्रधानमंत्री मोदी की नाकामी बताना व सुशील सिंदे द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक की प्रतिक्रिया करार देना एवं कपिल सिब्बल द्वारा हाइपर नेशनलिज्म का दुष्परिणाम कहा जाना अमर्यादित राजनीति के कुछ नायाब नमूने मात्र हैं । ऐसा बयान देते रहने वाले राजनेताओं के चरित्र व चिन्तन पर गौर करें तो आप सहज ही यह महसूस करेंगे कि इनकी राजनीति का एकमात्र उद्देश्य सत्ता-प्राप्ति के वास्ते अपना वोटबैंक बनने के लिए लक्षित समुदाय का येन-केन-प्रकारेण तुष्टिकरण करते रहना भर है । इस मर्यादाहीनता का दूसरा कारण यह भी है कि किसी भी राजनीतिक दल में नेताओं के बौद्धिक उन्नयन और सैद्धांतिक-चारित्रिक प्रशिक्षण की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है । नेताओं का बौद्धिक स्तर अभारतीय मैकाले अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति की डिग्रियों से चाहे जितना भी सुसज्जित हो किन्तु उसमें राष्ट्रीयता , सज्जनता , सदाशयता, प्रामाणिकता व पारदर्शिता जैसे नैतिक मूल्यों का सर्वथा अभाव है ; जबकि सत्य-अहिंसा-सेवा-संयम-सादगी की पंचाग्नि में तपने-तपाने की साबरमति, वर्द्धा, सेवाग्राम, पवनार , सदाकत आश्रम जैसी व्यवस्थायें तो आजादी के साथ ही स्थगित व स्खलित हो कर इतिहास के पन्नों में सिमट गई हैं और उनके बचे-खुचे अवशेष पर्यटन-स्थलों में तब्दील हो गये हैं । चरित्र-निर्माण की तपोभूमि से दूर राजनीतक दलों के नेताओं को महात्मा गांधी के शब्दों में राजनीति ने सांप की कुण्डली के समान जकड लिया है , जिससे मुक्त होने के लिए धर्म के उच्चादर्शों को आत्मसात करने के प्रति वे तनिक भी सचेष्ट नहीं हैं , बल्कि सर्वथा उदासीन ही हैं ; तो ऐसे में गांधी जी ने सिद्धांतहीन राजनीति से राष्ट्र की आत्मा के हनन की जो चिन्ता जाहिर की थी और लोहिया जी ने इस प्रकार की मर्यादाहीन राजनीति के कलही हो जाने की जो सम्भावना जतायी थी, सो अब चरितार्थ होती दिख रही है  । यह एक त्रासद विडम्बना है ।  

  • मनोज ज्वाला ; फरवरी’ २०१९
  • दूरभाष- ६२०४००६८९७

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,832 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress