मुखौटा

मुखौटों का शहर है यह जनाब !
यहाँ चेहरे पर ‘
हर कोई सजाए बैठा है हिज़ाब।
बड़ी लाजबाव चीज है यह
गुण हैं इसके बेहिसाब।

चेहरे पर डाल देता है यह
एक आकर्षक आवरण
असलियत छिपाने का नहीं कोई
इससे बेहतर माध्यम।

चेहरे की धूर्तता छिपाते यह
बड़ी आसानी से
सजाकर इसको पाखंडी भी लगते
सज्जन-दानी से।

किसी के अश्कों को बड़ी संजीदगी
से छिपा जाते हैं।
यह मुखौटे ही हैं जो दर्द में भी
कहकहे लगाते हैं।

सच कहूँ तो आज सबको
मुखोटों की आदत सी हो गई है।
इनके आवरण में सबकी
असली पहचान कहीं खो गई है।

रूप अनगिनत हैं इस मुखौटे के भी साहब !
जो जरूरत के हिसाब से बदले जाते हैं।
यही वो माध्यम है जिसके सहारे देश में
धर्म राजनीति के प्रपंच रचे जाते हैं।

मानव से मानवता को छीनकर यही मुखौटे
वैमनस्य के बीज बो जाते हैं।
मुखौटे पहनकर ही आजकल प्रबुद्ध जन
सहिष्णुता-प्रेम का बिगुल बजाते हैं।
चेहरे पर नया चेहरा पहनकर हर कोई
नित नए स्वांग रचता है।
क्या बताऊँ खूबी इसकी चेहरे पर
यह बखूबी जचता है।

कौड़ियों के भाव बिक गया अंतःकरण
स्वार्थ-लोभ का किया हुआ सबने वरण।
असली चेहरा आज सभी अपना छुपाते हैं
चेहरे पर लगा मुखौटा सबको लुभाते हैं।

असलियत न आ जाए ज़माने के सामने कहीं
आडम्बर धरा रह जाएगा सबका-सब यूँ ही।
इसलिए मुखौटे के ऊपर मुखौटे और न जाने
कितने ही मुखौटों से चेहरा छिपाते हैं।
वीभत्स-मलिन हो चुके चेहरे आज इतने कि
असली चेहरा दिखाने में खुद ही लजाते हैं।

अपनों को अपनों से जो आज कर रहा है दूर
इंसानियत को मिटाने वाला मुखौटा है बड़ा क्रूर।
क्यों हो रहे आज हम इतने लाचार और मजबूर
यह मुखौटा ला रहा हममें सिर्फ और सिर्फ गुरूर।

क्यों न उखाड़ फेंके आज हम उन मुखौटों को
जो राष्ट्र में बैर-हिंसा-साम्प्रदायिकता फैलाते हैं।
उन मुखौटों का भी कर देते हैं आज हम तर्पण
जिन्होंने समाज में पैदा किए धर्म-जाति-वर्ण।
उन मुखौटों को भी हम करेंगे आज खुद से दूर
जो मानव से मानव की पहचान छीन जाते हैं।
मुखौटे केवल और केवल हम वही सजाएंगे
जो किसी का जीवन फूलों सा महकाएंगे।

लक्ष्मी अग्रवाल

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