मीडिया

मीडिया और राष्ट्रवाद

राष्ट्र कोई भू-भौतिक संरचना मात्र नहीं है। राष्ट्र कोई जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है न ही यह किसी कबिले या कुनबे का नाम है। भारत के संदर्भ में इसका जन्म 15 अगस्त 1947 को नहीं हुआ था।

राष्ट्र एक सनातन अवधारणा है वैसे समाज का, जो किसी भू-भाग को अपनी जन्मभूमि, पितृभूमि, पुण्यभूमि समझता है और भारत का राष्ट्रवाद यूरोपीय नेशन-स्टेट के सादृश्य भी नहीं है जिसमें राजनीतिक गन्ध अधिक है। भारत का राष्ट्रवाद यहाँ की आत्मा अध्यात्म को बिना समझे समझा ही नहीं जा सकता।

विष्णुपुराण में कहा गया है –

”उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रैष्चैव दक्षिणम्

वर्षं यत् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति॥’

(समुद्र के उत्तर हिमालय के दक्षिण भारतवर्षं है जिसकी सन्तति का नाम भारती है।)

भारती हमारी राष्ट्रीयता का नाम है जो य =यवन के साथ मिलकर हिन्दी में भारतीय वैसे ही कहलाती है जैसे उर्दू के शब्दों से भरी हिन्दी।

संस्कृत इस देश की संस्कृति का परिचायक रही है जो क्रमश: भुलाई जाकर पूजा की भाषा रह गई है।

भारत का राष्ट्रवाद किसी के भी विरूद्ध नहीं है बल्कि यह सम्पूर्ण मानवता का द्योतक है।

मीडिया समाज का एकांगी दर्शन यदि कराए तो वह मीडिया कहाँ रह जाता है? मीडिया यानी माध्यम यदि समझा जाए तो उसे वायु की भांति निरपेक्ष होना चाहिए जो समाज के दर्पण साहित्य की तरह जैसी भी गन्ध-सुगन्ध या दुर्गन्ध को जस का तस प्रसारित कर दे।

पर इतने पर ही मीडिया का काम स्तुत्य नहीं होगा। उसे निर्माण की राह दिखानी होगी नवनिर्माण की पावन मेला में।

क्या यह मीडिया का काम नहीं है कि वह समाज हित में रचनात्मक खबरों को प्रमुखता दे?

मेरी सहकर्मिंणी एक महिला चिकित्सिका के इंजीनियर पति ने कहा था कि हिन्दी के स्थानीय समाचारपत्र घर में इसलिए क्यों मंगवाया जाए कि सुबह- सुबह हिंसा के खबर पढ़ने को मिले। मेरी इंजीनियर भांजी ने मुझे बंगलूर में बताया कि वह तो अंग्रेजी टाइम्स ऑफ इन्डिया के सिनेमा के नायक-नायिकाओं के चित्र देखने ही अखबार खोलती है।

‘जो रोगी को चाहे सो बैदा फरमावे’, की तर्ज पर हमारे अखबार, हमारे चैनल परोसते हैं सामग्री जिनका वास्तविकजा से भी नाता कम ही होता है क्योंकि अब वे मनोरंजन के साधन बन गए हैं निर्माण की वाहिका नहीं।

वैश्‍वीकरण की दौड़ में सब कुछ क्षम्य हो गया है। मीडिया व्यापार हो गया है। मीडिया का व्यापारीकरण हो गया है।

एक पत्रकार ने मुझे पटना में बताया कि हिन्दी के सम्पादकों द्वारा समाचार-पत्र में अंग्रेजी के अमुक प्रतिशत शब्दों का उपयोग अनिवार्य कर दिया गया है।

कभी लोग समाचार-पत्रों से हिन्दी सीखते थे आज समाचार-पत्र खिचड़ी भाषा परोस रहे हैं। अप्रचलित शब्दों को चला रहे हैं। अब प्रान्त सूबा इनके द्वारा लिखाता है। लगता है कि राष्ट्र या राष्ट्रवाद की अवधारणा माखनलाल चतुर्वेदी या गणेशशंकर विद्यार्थी के साथ खत्म हो गयी पर उनके नाम को हम वैसे ही ढ़ोये जा रहे हैं जैसे एक ट्रेडमार्क की तरह एक हिन्दू नाम को ढोता है पर हिन्दू हितों के विरूद्ध ही लिखना प्रगतिशीलता समझता है।

मैं पीत पत्रकारिता की बात नहीं करूंगा क्योंकि पत्रकार भी इसी समाज से आते हैं जहाँ मूल्यों का क्षरण हो रहा है पर मीडिया का काम राष्ट्र को जोड़ना है तोड़ना नहीं।

क्या 26/11 को मीडिया की अतिखोजपरकता की चर्चा बेमानी है? क्या बी. बी. सी. का भारत एवं पाक अधिकृत या प्रशासित कश्‍मीर की शब्दावली उचित है? क्या बिना तय हुए विवादग्रस्त राममन्दिर को बाबरी मस्जिद कहते जाना राष्ट्रपरक माना जाएगा? विवादग्रस्त ढ़ांचा भी उसे कहना और लिखना गलत ही कहा जाएगा क्योंकि आज भी वहाँ पूजा ही होती है। यदि विवादग्रस्त मन्दिर कहा जाता तो बंगलादेश में सैकड़ों मन्दिर नहीं टूटते जिसकी चर्चा तसलीमा ने लज्जा किताब में की है।

मीडिया समाज को तोड़ रहा है। वह आधुनिक मुद्रणतंत्र की सुविधा लेकर राष्ट्र या प्रान्त की एकता को स्थानीयता के आधार पर बाँट रहा है। बड़े-बड़े समाचार-पत्र स्थानीय पर्चों का रूप लेते जा रहे हैं। एक भाग में हुई घटना पर दूसरी भाग में प्रतिक्रिया होनी अब कठिन है। राष्ट्रीय स्तर के सामाजिक या वैज्ञानिक सम्मेलनों के प्रस्ताव नगरीय पन्ने में ही स्थान पा सकते हैं यदि नेता या अभिनेता उस सम्मेलन में उपस्थित नहीं हों।

जनता नेता से घृणा करती है पर आप हैं कि उनके बिना आपके कॉलम ही पूरे नहीं होते।

समाचारों के छपने का आधार क्या होता है? इस पर गहन सर्वेक्षण की आवश्‍यकता है।

राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत मीडिया भूमंडलीकरण की दौड़ में होना कठिन है पर इसके सहायता के बिना कोई राष्ट्रीय आन्दोलन भी तो खड़ा नहीं किया जा सकता। पर जब तक हमारी राष्ट्रीयता क्या है, मीडिया के लोग स्वयं आत्ममंथन से नहीं समझेंगे वे चाह कर भी जाने अनजाने में ऐसा भूल करते रहेंगे जिनसे राष्ट्र को क्षति होगी, उस राष्ट्र को जिसकी एक देवमयी, महिमामयी मूरत हम सबों के हृदय में स्थापित है।

-डा. धनाकर ठाकुर