राजनीति

मीडिया और पॉलिटिक्स में कार्पोरेट कल्चर हावी

kanchna-smritiविचारक और राजनेता के.एन.गोविंदाचार्य की यह बात कि आज के समय में लोकतंत्र सबसे चिंताजनक दौर में है, हर दृष्टिकोण से खरी उतर रही है। यह बात मीडिया पर ही उतनी ही लागू होती है। मीडिया और राजनीति में आज कार्पोरेट कल्चर पूरी तरह हावी हो चुका है।

सच ही है आज नेतागण और संपादक प्रबंधकों की भूमिका में तो कार्यकर्ता और पत्रकार कर्मचारियों की भूमिका में ही नजर आ रहे हैं। रही बात पार्टी या मीडिया संस्थानों की तो ये पूरी तरह से कंपनी की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। जिसके पास जितना धन और संसाधन मौजूद हैं, वह उतना ही बड़ा नेता या पत्रकार बनने की जुगत में लगा हुआ है।

वास्तव में देखा जाए तो आज जनसेवा का माध्यम माने जाने वाली दोनों ही रास्ते अपने पथ से भटककर निहित स्वार्थों की बलिवेदी चढ़ चुके हैं। जिस तरह कार्पोरेट सेक्टर में ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए गलाकाट स्पर्धा मची रहती है, ठीक उसी तरह इन दोनों ही क्षेत्रों में अपने आप को स्थापित दर्शाने के लिए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।

एक समय था जब नेता और मीडिया दोनों ही समाज के लिए उत्तरदायी होते थे। एक काल था जब कवियों और आलोचकों से देश के नीति निर्धारक खौफ खाते थे। कवि अपने छंदों के माध्यम से सरकार की बखिया उघेड़ देते थे, तो आलोचकों द्वारा नेतागिरी और मीडिया को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता था। आज समय बदल चुका है, आज ये आलोचक और कवि न जाने कहां खो गए हैं। इन दोनों प्रजातियों के लगभग विलुप्त होने के चलते मीडिया और राजनीति अपने पथ से भटक चुकी है।

गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में ”लोकतंत्र और पत्रकारिता को कैसे बचाया जाए” विषय पर हुई संगोष्ठी का स्वागत किया जाना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि इस तरह की गोष्ठियां या बहस बारंबार करवाई जाकर मीडिया और राजनीति दोनों को आईना दिखाया जाए।

प्रिंट, फिर दृश्य और श्रृव्य मीडिया के बाद अब वेब मीडिया का जादू सर चढ़कर बोल रहा है। सबसे अधिक मांग ”ब्लाग” की है। हर वर्ग के लोग आज खुलकर ब्लाग पर उंगलियां चटकाने से नहीं चूक रहे हैं। अपने अहसासों की अभिव्यक्ति का एक अथाह और सरलता से प्राप्त होने वाला सागर बन चुका है यह।

विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अखबारों में ”पत्र संपादक के नाम” अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। विजुअल मीडिया में जब तक दूरदर्शन का वर्चस्व रहा तब तक पाठकों के पत्रों को इसमें स्थान मिलता रहा है, किन्तु जैसे ही दूरदर्शन के बाद निजी समाचार चेनल्स की बाढ आई पाठकों और दर्शकों के विचार केवल पान की दुकानों, चौक चौराहों पर चर्चा तक ही सीमित रह गए।

अस्सी के दशक तक मीडिया की लगाम मूलत: पत्रकारिता से जुड़े लोगों के हाथों में ही रही है। इसके बाद निहित स्वार्थों के चलते मीडिया उद्योगपतियों की लौंडी बनकर रह गया है। मीडिया मुगल बनने की चाह में धनाडय लोगों ने अपनी थैलियां खोलीं और मीडिया में प्रधान संपादक या संपादक बनकर राज करना आरंभ कर दिया।

एक समय था जब समाचार पत्रों के मालिक नियमित तौर पर लेखन कार्य किया करते थे। आज कार्पोरेट कल्चर में व्यवस्थाएं बदल चुकी हैं। आज मीडिया के मालिक संपादकों को बुलाकर अपनी पालिसी और स्टेंड बता देते हैं, फिर उसी आधार पर मीडिया उसे अपनी पालिसी बता आगे के मार्ग तय कर रहा है, जो निश्चित तौर पर प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के लिए अशुभ संकेत ही कहा जाएगा। रूतबे, निहित स्वार्थों और शोहरत के लिए की जाने वाली पत्रकारिता का विरोध किया जाना चाहिए।

जिस तरह माना जाता है कि (कुछ अपवादों को छोड़कर) कंप्यूटर हिन्दी भाषा नहीं समझता, अर्थात हिन्दी फॉट लोड कर आप हिन्दी में लिख जरूर सकते हैं किन्तु अगर आपको कोई कमांड देनी हो तो उसे अंग्रेजी में ही देना होगा। ठीक उसी तरह भारत की शीर्ष राजनीति आज भी अंग्रेजी की गुलामी करने को मजबूर है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि देश के नीति निर्धारकों की नजरों में आज भी अंग्रेजी मीडिया पर ही आश्रित हैं। ब्यूरोक्रेसी और टॉप लेबल के पालीटिशन आज भी अंग्रेजी के ही पोषक नजर आ रहे हैं।

कलम के दम पर धन, शोहरत और समाज में नाम कमाने वाले पत्रकारों ने अपनी कलम बेचने या गिरवी रखने में कोई कोर कसर नहीं रख छोड़ी। पत्रकारिता को बतौर पेशा अपनाने वाले ”जनसेवकों” की लंबी फेहरिस्त मौजूद है। कल तक व्यवस्था के खिलाफ कलम बुलंद करने वाले जब उसी व्यवस्था का अंग बनते हैं तो दम तोड़ते तंत्र में उनका ज़मीर न जाने कहां गायब हो जाता है?

टूटती अर्थव्यवस्था में अब सरकारी नौकरियों में सेवानिवृति के उपरांत पेंशन समाप्ति के नियम भी आ गए हैं। सांसद या विधायक बनने के बाद आजीवन पेंशन सुविधा के साथ ही साथ उन्हें लाईफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड के तौर पर मुफ्त रेल्वे पास भी मुहैया करवाए जाते हैं। राजनीति में रहते हुए अनर्गल तरीके से लाभ कमाने के सैकड़ों अवसर भी मिलते हैं, रूतवे के साथ। फिर भला कोई बरास्ता मीडिया जनसेवक क्यों न बनने जाए?

मीडिया और राजनीति अब जनसेवा का साधन कतई नहीं रह गई है। दोनों ही पेशों में आने वाले बेहतर जानने लगे हैं कि वे उस क्षेत्र में जा रहे हैं जहां की पंच लाईन है ” मिले मौका, मारो चौका”। जैसे ही लाभ कमाने के उचित और अनुचित अवसर मिलते हैं, अवसरवादी नेता और पत्रकार मौका कतई नहीं चूकते हैं।

नब्बे के दशक के उपरांत मीडिया, नौकरशाही और राजनीति के काकटेल ने देश की एक एसे रास्ते पर ढकेल दिया है, जिसमें कुछ दूरी तक तो चिकनी और रोशनी से नहाई सड़क दिखाई दे रही है किन्तु कुछ ही दूर जाने के बाद पड़ने वाले मोड़ के बाद स्याह अंधेर में डूबा जानलेवा दलदल किसी को दिखाई नहीं दे रहा है।

-लिमटी खरे