मीडिया खड़ा बाज़ार में – प्रदीप जिलवाने

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mediaतकनीक ने आचार-विचार से व्यवहार तक जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित किया है. नित नये परिवर्तन देखने को मिल रहे है. चीजें बाज़ार में आ रही हैं और कुछ ही समय में ‘आउट ऑफ डेट’ करार दी जाकर व्यवहार से बाहर हो रही है.

एक समय था जब हमारी जरूरतें ही तय करती थी, बाज़ार में क्या नया होना चाहिए और कौन-सी चीज़ अब समयानुकूल नहीं रही है, लेकिन अब चौतरफा बाज़ार का दखल है. दखल इतना कि आम से लेकर ख़ास तक कोई भी इसके संक्रमण से बच नहीं पाया. बाज़ार ने आज परिभाषाएँ ही बदल कर रख दी है. अब बाज़ार ही तय करता है, आपकी जरूरतें क्या है ? कौन-सी चीज आपके घर में नहीं होगी तो आप समाज में उठने-बैठने लायक नहीं समझे जायेंगे. कौन-सी चीज इस्तेमाल करेंगे तो आप पिछड़े हुए माने जायेंगे.

बाज़ार ने आदमी को पूरी तरह ‘कमर्षियल’ बना दिया है. दूसरी तरफ से सोचे तो दरअस्ल बाज़ार ने आदमी की उपयोगिताएँ एवं सीमाएँ तय कर दी हैं. आदमी की सोच में अपनी गणितीय फार्मूले ‘फिट’ कर दिये हैं. लाभ-हानि का ‘परसेन्टेज’ व्यवहार में ला खड़ा कर दिया है. शायद ये गाली होगी परन्तु इससे बड़ा सच भी क्या होगा कि आज आदमी बाज़ारू हो गया है. बाज़ार जाता है तो बाज़ार ही घर ले आता है. इसी बाज़ारू सोच का नतीजा है कि आज एक आदमी के लिए दूसरा आदमी महज़ ‘प्रोडक्ट’ भर रह गया है.

कल तक बाज़ार का अपना दायरा सीमित था लेकिन बाज़ार के पास थी महत्वकांक्षा. और इसी महत्वकांक्षा के लिए उसे जरूरत थी मीडिया की. मीडिया ने भी लगे हाथ मौके को भुनाया और बहती गंगा में खूब गोते लगाए. लेकिन बाज़ार का अपना एक चरित्र होता है. और बाज़ार ने अपने इसी चरित्र का रंग दिखाया. आज स्थिति ये है कि बाज़ार की चकौचौंध में मीडिया अपनी वास्तविक द्युति खो बैठा है.

मीडिया में सच को उजागर करने वाली परिभाषा तो आज भी कायम है लेकिन खबर की सामाजिक एवं नैतिक जरूरतें लगभग गौण हो गई है. यही बाज़ार का असली चेहरा है. मीडिया में आज (षायद ही) खबर के इस पक्ष पर कम ही विचार किया जाता है, इस बात को ज्यादा तरज़ीह दी जाती है कि यह हमारे प्रतिस्पर्धियों के मुकाबिल हमें कितनी ज्यादा टीआरपी देगी. खबर यदि सनसनीखेज़ या चटपटी हो तब तो फिर क्या कहने! चौबिसों घण्टे खबर को लाग-लपेट कर परोसा जाता है. कुछ इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे वह उस तात्कालिन समय की सबसे बड़ी खबर है और इतिहास के पन्नों में इसे बड़ा महत्व दिया जाएगा. भले ही इस खबर से समाज का कोई भी वर्ग लाभान्वित न हो रहा हो, सिवाय इसके कि खबर में ‘मसाला’ है.

एक दृष्य ले-

पति-पत्नी का झगड़ा आम बात है. हर किसी को अपने पड़ोस में लगभग रोज ही देखने को मिल जाता है लेकिन भई झगड़े की वीडियो रिकार्डिंग या जीवंत तस्वीरें!

क्या भरपूर मनोरंजक दृष्य है!

वाह क्या मजेदार सीन है!

देखो पत्नी ने भी पति को दो जमा दिए!

हे भगवान! ये पति है या जल्लाद! गभर्वती पत्नी को भी लात मार दी!

एक अन्य दृष्य ले-

अभी ताजा ही मामला है एक अभिनेता ने शुटिंग के दौरान अष्लील इषारे करने पर एक मामूली से दर्षक को थप्पड़ रसीद कर दिया. अभिनेताजी भारतीय संसद के सम्माननीय सदस्थ भी थे. पड़ गया मीडिया पीछे! आखिर थप्पड़ मारा तो मारा ही क्यों ? मार खाने वाला भी सूर्खियों में छा गया! वहीं अभिनेता जो डेढ़ सौ ज्यादा फिल्मों में डेढ़ हजार से ज्यादा लोगों को लात-घूँसें मारकर सुपरस्टार बना. आज असल जिंदगी में किसी अपराध को देखकर सिर्फ एक थप्पड़ मारने पर मीडिया की ऑंख में किरकिरी बन गया!

बड़ी बात तो ये कि हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक फैले इस विषाल देष में दिनभर की सबसे बड़ी खबर यही थी!

एक अन्य दृष्य और ले-

तीन दिन से मीडिया एक गहरे गड्डे में ऑंखें गड़ाये हुए है. एक बच्चे ने पूरे सौ करोड़ लोगों की आस्थाओं को झकझोर कर रख दिया है. राष्ट्रीय राजनीति तक को प्रभावित कर दिया है. बच्चा ‘नेषनल हीरो’ बन गया है. दुर्घटना स्थल ‘राष्ट्रीय ग्राम’.

ठीक उन्हीें तीन दिनों में देष के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति ने क्या किया ? कौन-कौन सी महत्वपूर्ण बैठकें की ? यात्राएँ की ? किन-किन विदेषी डेलिगेट्स से मुलाकातें की ? इन वार्ताओं का आम जीवन पर क्या प्रभाव हो सकता है ? राष्ट्र के लिए या भविष्य के लिए ये कितनी हितकर साबित होंगी ? देश के चार दर्जन से ज्यादा केन्द्रीय मंत्रियों और दो दर्जन से ज्यादा राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इन तीन दिनों तक सैर-सपाटा ही किया! या समाज के लिए किसी नयी योजना पर विचार भी किया ! या किसी परियोजना को क्रियान्वित भी किया! ठीक उन्हीं तीन दिनों में सीमा पर जवानों की शहादत खबरों में कोई स्थान नहीं बना पाती!

अरे भई्! एैसी खबरों के क्या मायने ? एैसी खबरों को कितने दर्षन मिलेंगे! कितने पाठक जुटा पाऐंगे ऐसे समाचार!

हाँ, बाज़ार ने मीडिया के कानों में पहले से फूक जरूर मार रखी है. जवाब तैयार है. ”आखिर हमें भी बाज़ार में बने रहना है.”

मीडिया के वरदान से ही फला-फूला बाज़ार आज मीडिया के लिए भस्मासुर साबित हो रहा है. इसीलिए शायद कल तक जिस बाज़ार को मीडिया ने फैलाया था आज उसी बाज़ार में खुद मीडिया खड़ा है.

हालाँकि इस लेख के माध्यम से मैं मीडिया को किसी कटघरे में नहीं खड़ा कर रहा हूँ. अपितु मैं व्यक्तिगत तौर पर मीडिया का बड़ा सम्मान करता हूँ शायद इसीलिए भी समाज के इस दिग्दर्षक का दिषाहीन रूख मुझे (सिर्फ मुझे ही क्या) कुछ कचोटता भी है.

दरअस्ल मीडिया को अपने दायित्व पर पुन: गंभीरता से विचारना चाहिए. उसे बाज़ार की इस चाल से प्रभावित हुए बिना (जो कि बड़ा मुष्किल लगता है) अपनी भी कुछ गरिमा बनाए रखनी चाहिए. आखिर तो आज भी मीडिया ही समाज का दर्पण है. वह जैसा दिखाएगा, सच वही स्वीकार किया जाएगा. मीडिया यदि किसी व्यक्ति को अपराधी की तरह प्रस्तुत करेगा तो वह उसी वक्त से समाज में अपराधी की दृष्टि से देखा जाएगा और यदि किसी अपराधी को मीडिया मासूम की तरह प्रस्तुत करेगा तो समाज में उसके प्रति सहानुभूति भी स्वत: ही उपजेगी.

इसलिए या तो मीडिया खुद तय करे, वह क्या परोसे (और यह नैतिकता भी उसी की है) अन्यथा तो फिर बाज़ार उसे बता ही रहा है कि उसे क्या प्रस्तुत करना है ?

प्रदीप जिलवाने

5 COMMENTS

  1. सर, बहुत ही अद्भुत लेखन, बहुत ही रोचक पोस्ट! मुझे न जाने ऐसा क्यों लगता है की यह टीआरपी का खेल तो बस एक ड्रामा है, मीडिया अगर चाहता तो वो गंभीर मुद्दों को भी इस अंदाज में प्रस्तुत कर सकता था की वो लोगों को बोझिल न लगें| लेकिन मीडिया के आका शायद ऐसा करने में इच्छुक ही नहीं हैं| अभी इन्टरनेट और मोबाइल सरीखे ‘नए मीडिया’ के शस्त्रों को आम जन का माध्यम बताया जा रहा है, लेकिन क्या इस बात की भी संभावना नहीं है की इनकी पंहुच बढ़ने के साथ ही बाजार इन पर भी अपना कब्जा नहीं जमा लेगा|

  2. मीडिया की खींचाई कर दी यार तुमने…
    बधाई.

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