केरल से…एक यात्रा संस्‍मरण

6
1386

बीनू भटनागर 

ईश्वर ने तो पूरा ब्रह्मांड रचा है, फिर भी कहते हैं ईश्वर की अपनी धरती केरल है। भारत के दक्षिण पश्चिम छोर पर यह प्रदेश बहुत ही सुन्दर और हरा भरा है। हाल ही में मुझे सपरिवार इस प्रदेश की यात्रा करने का अवसर मिला। ये यात्रा मेरी अति सुखद और यादगार यात्रा रही।

कोची ऐरनाकुलम सटे हुए दो शहर, केरल के बड़े शहर है, ये तटीय शहर हैं, कोची एक व्यावसायिक बन्दरगाह होने के साथ भारतीय नौसना का मुख्य केन्द्र भी है। केरल का पूरा समुद्रतट कटाफटा है और बैक वाटर धरती के बीच आकर गलियाँ सी बना लेते हैं जो वहाँ रहने वालों के लियें स्थानीय यातायात का साधन भी बन जाती हैं। इन पानी के रास्तों पर मोटरबोट के स्टैंड बने होते हैं जिनसे यात्री शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से मे आते जाते रहते हैं ,सड़क के रास्ते अधिकतर बहुत लम्बे होते हैं। मोटर बोट के अलावा भी छोटी छोटी नावों से लोग इधर उधर आते जाते रहते हैं। इन बैकवाटर की गलियों के तटों पर केले के पेड़ो के झुंड और नारियल के पेड़ों के समूह बहुत ज़्यादा नज़र आते हैं। लगभग सभी तटीय शहरों मे ऐसी व्यवस्था है।

कोची हवाई अड्डे पर उतर कर हम मुन्नार की ओर चल दिये। 4-5 धन्टे ये पहाड़ की यात्रा बड़ी सुखद लगी। नीलगिरि पर्वत की चढ़ाई पर सड़क के दोनो ओर के दृष्य अति मनोहारी हैं। निचले पहाड़ो पर अधिकतर चीढ के बडे बड़े वृक्ष और केले के पेड़ों के झुंड नज़र आते हैं। कुछ ऊँचाई पर पंहुचकर लगभग 2500 फुट के बाद ढलानो पर चाय के बाग़ान शुरू हो जाते हैं। चाय बाग़ान ऐसे लगते हैं मानो दूर दूर तक प्रकृति ने हरी हरी मेज़े लगा रक्खी हों और पाइन के पेड़ छतरी बने खड़े हों। चाय के ये बाग़ान बहुत सुन्दर दृष्य प्रस्तुत करते हैं ,बीच मे ही कहीं चाय की फैक्ट्री भी दिखाई देती हैं। यहाँ की मशहूर चाय कानन देवन है पर अन्य कई प्रकार की चाय भी यहाँ पैदा होती हैं। मुन्नार के पास एक चाय का म्यूज़ियम है जहाँ मुन्नार के चाय के इतिहास, चाय के प्रकार, चाय के लाभ और चाय की पत्तियों के प्रौसैसिंग की पूरी जानकारी दी जाती है। यहाँ से हमने विभिन्न प्रकार की चाय ख़रीदी।

यहाँ से कुछ दूरी पर मैटूपट्टम डैम और रैसरवायर भी देखे जहाँ नौकाविहार का आनन्द लिया जा सकता है। मुन्नार शहर लगभग 6000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है,यह चाय बाग़ानों का मुख्य केन्द्र है। यहाँ मौसम हमेशा सुहावना बना रहता है। पर्यटकों के आने से इस छोटे से शहर मे छोटे बड़े बहुत से होटल व रैस्टोरैंट बन गये हैं। पर्यटकों के आने से स्थानीय लोगों को रोज़गार के अवसर मिले हैं। यहाँ से कुछ दूर रोज़ गार्डन हैं इस मौसम मे गुलाब तो कम थे पर अन्य पुष्पों लताओं की बेशुमार किस्मे बड़े करीने से पहाड़ी ढलानो पर उगाई गईं थी। हज़ारों गमलों मे विभिन्न प्रकार के क्रौटन और फूल लगे थे। इन सुन्दर दृष्यों का शब्दों मे वर्णन करना कठिन है।

हमारा अगला पड़ाव ठेकड़ी था। नीलगिरि पर्वत पर 5 घन्टे की यात्रा हमने लगभग 7 घन्टे मे पूरी की,कई जगह प्राकृतिक झरनों और मनमोहक चाय के बाग़ानो पर रुके चित्र खींचे, वातावरण का आनन्द लेते हुए आगे बढ़े । पूरी पहाड़ी यात्रा बडी सुहानी रही। यहाँ से ही पैरियार झील जाकर नौका विहार का आनन्द भी लिया। यहीं से सफारी के लियें भी जाया जाता है। ठेकड़ी के आस पास बहुत से मसालों और आयुर्वैदिक जड़ी बूटियों के उद्यान हैं। सबसे ज्यादा सड़क के दोनो ओर इलायची के पौधे दिखाई दिये ।मुन्नार चाय का केन्द्र है तो ठेकड़ी मसालों का।

यहाँ कई मसाले के उद्यान हैं, जहाँ वहीं के लोग पर्यटकों को मसालों की खेती और विभिन्न प्रकार की आयुर्वैदिक जड़ी बूटियों के बारे मे विस्तारपूर्वक जानकारी देते हैं। हमने जो मसाला उद्यान देखा उसमे डेढ़ एकड़ ज़ीन पर उन्होने पर्यटकों को दिखाने के लियें सभी मसाले और जड़ी बूटियाँ लगाई हुई थीं, इसके अलावा पचास एकड़ ज़मीन पर यही मसाले, केले और जड़ी बूटियों का उत्पादन व्यावसायिक तौर पर होता है। वहीं पर मसाले तैयार किये जाते हैं जड़ीबूटियों से तेल और औषधियाँ भी बनाई जाती हैं। पर्यटकों की सुविधा के लियें वहाँ उन्होंने अपने उत्पादन बेचने के लियें दुकान खोली हुई हैं। हमने भी यहाँ से मसालों की ख़रीदारी की।

काली मिर्च की लतायें किसी भी मज़बूत पेड़ के साथ चढ़ा दी जाती हैं।काली मिर्च गुच्छों के रूप मे लटकती रहती हैं। इस मौसम मे कालीमिर्च का रंग हरा था उन्होने बताया कि मार्च तक पक कर वो लाल हो जायेंगी तब उन्हे तोड़ा जायेगा फिर धूप मे सुखाने से वो काली पड़ जायेंगी।कच्ची हरी काली मिर्च हमने तोड़ कर खाई बहुत तेज़ नहीं लगी, बड़ी स्वादिष्ठ लगी।

इलायची का पौधा क़रीब 4 फुट ऊँचा होता है,बड़े बड़े पत्तों वाला। इस पौधे के निचले हिस्से से छोटी छोटी पत्ती वाली शाखायें फूटती हैं इन पर इलायची लगती है।इलायची की फसल हर 45 दिन मे मिलती रहती है। ये पौधे कई साल फसल दते हैं।

दालचीनी और तेजपत्ता एक ही पेड़ के उत्पाद होते हैं। दालचीनी पेड़ के तने की छाल होती है और पत्ते तेजपत्ता। लौंग एक उँचे से पेड़ पर फूल या कली के रूप मे लगती है।

हींग के पेड़ के तनों मे चीरा लगाकर एक द्रव्य निकलता है जो सूखकर हींग बन जाता है।

2-3 प्रकार के केले यहाँ होते हैं छोटे, केले पतले छिलके वाले,बड़े बड़े केले चिप्स बनाने के काम आते हैं। लाल छिलके के केले मे लौह तत्व बहुत होता है।

साबूदाना भी यहाँ उगाया जाता है जो पौधों की जड़ों मे लगता है।

इसके अतिरक्त आयुर्वैदिक औषधियों और सौंदर्य प्रसाधनो मे काम आने वाली जड़ी बूटियाँ भी बहुत लगाई जाती हैं। हल्दी और अदरक भी यहाँ उगाये जाते हैं।हमे बताया गया कि हल्दी का एक प्रकार खाने के काम आता है और दूसरा सौंन्दर्य प्रसाधन बनाने मे। अदरक से अदरक पाउडर( सौंठ)भी बनाई जाती है।

इन्ही उद्यानो मे पान, सुपारी और कौफी भी उगाई जाती है। कौफी के पेड़ों मे बेर के आकार के फल लटके रहते हैं जिनमे कौफी का बीज होता है इस बीज को भूनकर पीसने से कौफी पाउडर मिलता है।

मुन्नार की तरह ठेकड़ी भी नीलगिरि पर्वत पर बसा छोटा सा शहर है। यहाँ से हमे ऐलेप्पी जाना था जो समुद्र तट पर स्थित है। पहाडी ढलानों पर यहाँ भी काफी दूर तक चाय बाग़ानों के अनुपम दृश्‍य दिखते रहे। नीचे आते आते आते गर्मी बढने लगी थी। अब सड़क के दोनों ओर रबड़ और इलायची अधिक दिख रहे थे। रबड़ के पेड़ो के तनों मे चीरा लगाकर वहाँ से एक द्रव्य एकत्रित किया जाता है जिससे रबड़ बनती है। केले और नारियल के पेड़ो के साथ अब तटीय मैदानों मे हरी घास जैसे चावल के खेत भी आरंभ हो गये थे। उत्तर भारतीयों के लियें इतने हरे भरे क्षेत्रों मे यात्रा करना ही एक अनोखा अनुभव है। रास्ते मे बड़े सुन्दर आलीशान मकान भी हरियाली के बीच थे,जैसे शहर कहीं समाप्त ही न हुआ हो। मकान छोटे हों या बड़े सबके प्रागँण मे नारियल और केले के पेड़ अवश्य दिखे, नारियल केरल वासियों के भोजन का अभिन्न हिस्सा है। केले के भी लगभग हर भाग को खाया जाता है। आमतौर पर घरों मे और कुछ केरल के भोजनालयों मे भी केले के पत्ते पर भोजन परोसा जाता है।एक ऐसे ही भोजनालय मे केले के पत्ते पर साँभर चावल और नारियल के साथ पकी सब्ज़ियों का आनन्द लिया। यहाँ खट्टे दही मे भिगोकर हरी मिर्च को सुखाकर फिर तला जाता है ,इन खट्टी खट्टी कुरकुरी हरी मिर्चों के साथ ने भोजन का स्वाद और बढ़ा दिया। यह केरल के रोज का खाना है। केरल वासी मछली और सामिष भोजन भी खाते है।

रास्ते भर प्रकृतिक सौंदर्य का आनन्द लेते हुए हम ऐलैप्पी पंहुच गये। ऐलैप्पी से ही गर्मी की शुरुआत हो गई थी दिसम्बर के महीने मे तापमान 30 डिग्री सै. के आसपास था। हम सब अपने हल्के पुल्के कपड़ों मे आ चुके थे। यहाँ हाउसबोट मे हमे लगभग 24 घन्टे रहना था। हाउसबोट का डैक बहुत सुन्दर था।रसोई भी आधुनिक उपकरणों से सज्जित साफ सुथरी थी अगले एक दिन केवल इसी रसोई मे पका भोजन हमे हमे उपलब्ध था। हम 5 लोग थे इसलियें हमने 2 कमरों वाली हाउसबोट ली थी।वैसे यहाँ 1-2-3 कमरों वाली हाउसबोट भी उपलब्ध हैं। हाउस बोट के डैक पर बैठकर हम केरल की विशेषता बैकाटर मे भ्रमण करने का आनन्द लेते रहे और बाहर के दृष्य देखकर मंत्रमुग्ध होते रहे। बोट मे खाते पीते बातें करते तस्वीरें खींचते समय तेज़ी से बीत गया। हाउसबोट चलती रही ऐलैप्पी शहर के दर्शन करते रहे। यहाँ भी मोटरबोट से स्थानीय यातायात होता है क्योकि बैकवाटर की बहुत सी धारायें हैं जो सड़क का काम देती हैं। छोटी छोटी नावों से भी लोग इधर से उधर आते जाते रहते हैं। हाउसबोट को रात मे कहीं दूर ले जाकर लंगर डाल दिया जाता है। हाउसबोट मे रहकर पर्यटक बहुत आनन्दित होते हैं। कई हाउसबट दोमज़िली भी होती हैं। बैकवाटर के तटों से छोटे छोटे घर झोंपडे नारियल और केले के पेड़ों के झुंड दिखते रहते हैं। आगे जाकर बैकवाटर का फैलाव बहुत बढ़ जाता है और चारों तरफ पानी ही पानी दिखाई देता है। हाउसबोट का ये मनोरम अनुभव बहुत ही अनूठा था।

ऐलैप्पी से हमे कोवलम जाना था। तापमान 30 डिग्री सै. के आसपास था। कोवलम तक के रास्ते मे, तटीय मैदान मे नारियल रबड़ और केले के सघन जंगल सड़क के दोनो ओर दिखते रहे। उत्तर भारत के लोंगों के लियें इतनी हरियाली देखना, बिना धूल का सफर भी एक अनोखा अनुभव होता है। त्रिवेंन्द्रम या तिरुवनन्तपुरम एक बड़ा शहर है, केरल की राजधानी है। यहाँ आधुनिक और पुरानी बहुत सुन्दर इमारतें दिखी, पहली बार केरल मे बहुमंज़िला रिहायशी और कार्यालयों के ऊँचे ऊँचे कुछ टौवर दिखे। बड़े बड़े शोरूम वाले बाज़ार भी दिखे। कोची हवाई अड़डे से हम सीधे मुन्नार चले गये थे इसलिये पहली बार केरल के किसी बड़े शहर से गुज़रे। केरल से कुछ ही दूर कोवलम बीच पर हमारे रहने का प्रबन्ध एक रेसोर्ट मे था। यह रेसोर्ट समुद्र के बहुत पास था। कमरे की बाल्कनी से स्विमिग पूल दिखता था, विदेशी सैलानी मस्ती कर रहे थे। कभी कुछ नौजवान साथी वाटर बाली बौल जैसा कुछ खेल रहे थे। स्विमिग पूल भी नारियल के पेड़ों से घिरा हुआ था। शाम के समय बीच पर लहरों के साथ समय गुज़ारा। यहाँ की रेत बहुत साफ है और उसमे काली रेत भी आती है। काली रेत इस बीच को एक अलग पहचान देती है।यहाँ बीच पर खाने पीने के कोई स्टौल न होने के कारण सफाई बनी रहती है। आस पास कुछ रैस्टोरैंट और हस्तशिल्प के सामान की दुकाने हैं। समुद्र मे मोटर बोट से नौका विहार की व्यवस्था भी है। बीच पर कुछ धन्टे बिताकर हम रेसौर्ट मे वापिस पंहुच गये।

केरल की भाषा मलियालम है। थोड़ी बहुत हिन्दी अंग्रेज़ी से काम चल जाता है।ये लोग मृदुभाषी व ईमानदार हैं। पर्यटकों की मदद करने के लियें तत्पर रहते हैं। पर्यटकों को ठगने,लूटने जैसे अपराध भी नगण्य ही सुनने मे आते हैं।

एक तरह से हमारी केरल यात्रा यहीं समाप्त हो गई परन्तु हम आगे कन्याकुमारी भी गये जोकि तमिलनाडु राज्य मे है।

कन्याकुमारी

भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी छोर कन्याकुमारी है।यहाँ अरब सागर ,बँगाल की खाड़ी और हिन्द महासागर मिलते हैं।यहाँ सू्र्यास्त और सूर्योदय दोनो ही सागर मे होते हैं। मुख्य धरती से कुछ दूर पर एक चट्टान पर बना विवेकानन्द स्मारक भी कन्याकुमारी के आकर्षण का केन्द्र है।

त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी का दो सवा दो घनटे का रास्ता तय करने मे आजकल तीन साढ़े तीन घन्टे लग जाते हैं क्योंकि सड़के संकरी हैं और रास्ते मे छोटे छोटे कस्बों और उनके बाज़ारों से गुज़र कर जाती हैं।रास्ते मे कई दर्शनीय मंदिर भी हैं। हमने पद्मनाभ महल देखा जो लकड़ी का बना400 साल पुराना है।यहाँ बहुत बड़ा डाइनिंग हाल है। पुराना फर्नीचर और राजाओं का अन्य सामान संरक्षित है।

कन्याकुमारी हम क़रीब 35 साल पहले भी गये थे उस समय सड़क अंतिम छोर तक जाती थी और दूर दूर तक 3 दिशाओं मे समुद्र देखने का आभास मिलता था। इतने सालों मे पर्यटन बहुत बढा है इसलियें समुद्रतट पर बहुमंज़िला होटल दुकाने और चर्च आदि बना दिये गये हैं। एक स्थान से सूर्योदय और सूर्यास्त देख पाना अब संभव नहीं है। दोनो को अलग अलग स्थान से देखना पड़ता है जहाँ बहुत भीड़ लग जाती है। समुद्र का फैलाव भी नहीं दिखता। सौभाग्यवश हम अपने कमरे से सूर्योदय देख पाये। सूर्यास्त के लिये 3-4 कि. मी.जाना पड़ता, बादल भी थे अतः यह दृष्य देखने से वंचित रहे। पर्यटकों की सुविधा के लियें विकास करते समय राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि विकास से प्राकृतिक सौंन्दर्य पर विपरीत प्रभाव न पड़े। होटल और बाज़ार समुद्रतट से 3-4 कि. मी. अंदर बनाना सही रहता समुद्रतट पर अधिक से अधिक उद़्यान बनाकर पर्यटकों के लियें बैंच बना देना सही होता।

विवेकानन्द स्मारक के सामने वाली छोटी सी चट्टान पर तमिल संत कवि थिरुवल्लूर की विशालकाय प्रतिमा बनाने से भी विवेकानन्द स्मारक का सौंदर्य घटा है। कवि थिरुवल्लूर की प्रतिमा वाली चट्टान के पास समुद्र उथला है इसलियें हाई टाइड मे ही मोटर बोट वहाँ जा पाती हैं। कवि थिरुवल्लूर की प्रतिमा उसके पीछे बने स्मारक से काफी ऊँची है। कवि की प्रतिमा लगाने के लियें कोई अन्य स्थान चुनना सही होता। विवेकानन्द स्मारक मोटर बोट से 10 मिनट मे पंहुच जाते हैं पर लाइन बहुत लम्बी होती है। यहाँ से समुद्र के विशाल फैलाव का अनुभव होता है। स्वामी विवेकानन्द की विशाल मूर्ति एक कक्ष मे स्थापित है। इस स्मारक पर स्वामी विवेकानन्द की लिखी हुई पुस्तकें और उनके विभिन्न भाषाओं मे अनुवाद के साथ साथ अन्य लेखकों ने जो पुस्तकें स्वामी विवेकानन्द के बारे मे लिखीं हैं वह भी ख़रीदने के लियें उपलब्ध हैं।

कन्याकुमारी मे कन्याकुमारी देवी का मंदिर भी दर्शनीय स्थल है।

कन्याकुमारी से हमारी वापिसी की यात्रा शुरू हुई। त्रिवेंद्रम हवाई अड्डे से हमने दिल्ली की उड़ान ली।

6 COMMENTS

  1. वाह वाह
    हमें भी अपने माता पिता के साथ 1991 में की गई यात्रा याद आ गई

    धन्यवाद

  2. आप का आलेख पढकर केरल पर्यटन के लिए जाने का विचार जाग्रत हुआ.
    कन्या कुमारी भी अवश्य जाएंगे.
    आपका आलेख बहुत रोचक बन पाया है.
    धन्यवाद.

  3. बीनू जी,
    केरल के सौंदर्य का इतना सुन्दर चित्र … वाह, वाह, वाह।
    ३ साल पहले की हमारी यात्रा की सारी यादें लौट आईं।
    बधाई।
    विजय निकोर

  4. घर बैठे ही बीनू भटनागर जी ने केरल के विशाल दर्शन करवा दिए हैं . यात्रा संस्मरण
    पढ़ कर आनंदित हो गया हूँ . बीनू जी की लेख – कवितायें पढना बहुत अच्छा लगता
    है .

Leave a Reply to डॉ. मधुसूदन उवाच Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here