बी एन गोयल
मन बहुत चंचल होता है। डॉ० मधु सूदन जी ने संगीत की चर्चा चलायी तो बहुत सी बातें मन में आने लगती हैं। यादों के पृष्ठ खुलते जाते हैं. थिरकवा जी तो बहुत ही सीधे और सरल व्यक्ति थे। उन से जुड़े और भी पृष्ठ खुल गए . इन का जन्म उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ था लेकिन इन का तबला प्रेम इन्हें रामपुर खींच ले गया. रामपुर संगीतकारों का गढ़ रहा है. वहां के नवाब संगीत प्रेमी रहे हैं. आकाशवाणी में काम करने और दूर दूर स्थानों पर ट्रान्सफर होने का सब से बड़ा लाभ यही मिला कि इस तरह की महान विभूतियों से मिलने, उन को सुन ने और उन के बारे में जान ने का अवसर मिला. हमारे लिए रामपुर और अहमद जान थिरकवा एक दूसरे का पर्याय थे.
अनेक बार उन का तबला वादन सुनने और रेकार्डिंग करने का अवसर मिला। कहते हैं कि अहमद जान जब छोटी उम्र में ही तबला सीखते थे तो उन का हाथ तबले पर एक विचित्र प्रकार से थिरकता था. उन की उंगलियां जैसे तबले पर नृत्य करती थी। इसी लिए उन का नाम थिरकवा हो गया था । रामपुर के एक पुराने नवाब का संगीत प्रेम और वहाँ के प्रसिद्ध संगीतज्ञ उस्ताद वजीर खान के बारे में संस्मरण सुनाने में उन्हें अत्यधिक आनंद आता था। बात करते समय अकसर रामपुर संगीत की कहानी कहने लगते थे। उन का निधन 1976 में हुआ।
रामपुर के नाम से ही भारतीय शास्त्रीय संगीत परंपरा के पितामह आचार्य (उस्ताद) अलाउद्दीन खान साहब का नाम भी जीवंत हो जाता है। इन के जन्म तिथि के बारे में अटकलें ही लगती हैं. किसी को इन की जन्म तिथि का पता नहीं. किसी ने इन्हें 120 वर्ष का बताया था तो किसी ने 110 वर्ष। इन का निधन सितंबर 1972 में हुआ था ।
थिरकवा जी ने बताया था कि खान साहब को बचपन से ही संगीत सीखने की धुन थी. उन्होंने रामपुर के महान संगीतकार उस्ताद वजीर खान का नाम सुना था. वे अनेक कष्टों को झेलते हुए लम्बा सफर तय कर रामपुर पहुँचे. लेकिन वजीर खान को नवाब साहब का सख्त निर्देश था कि वे किसी को संगीत नहीं सीखाएँगे. युवा अलाउद्दीन को पता लगा कि वजीर खान प्रति दिन सुबह 4 बजे उठ कर रियाज़ करते हैं. युवक ने नियम बनाया. अब वे प्रति दिन सुबह चार बजे से पहले ही खां साहब के घर के बाहर एक कोने में छिप कर बैठ जाते और उन के रियाज को ध्यान से सुनते. कुछ दिन इसी तरह से निकले लेकिन यह कोई स्थाई हल नहीं था. मन तो बेचैन था गुरु को सामने बैठ कर सुनने और सीखने के लिए. इस के लिए नवाब साहब की आज्ञा चाहिए और यह कोई सरल काम नहीं था. अन्ततः एक दिन मन पक्का कर युवा अलाउद्दीन, सैर को निकले नवाब साहब की बग्गी के सामने, लेट गए. उन्हें पकड़ लिया गया – दरबार में नवाब साहब के सामने पेशी हुई. इस का कारण पूछा तो युवक ने संगीत सीखने की अपनी इच्छा प्रकट की, नवाब साहब ने पूछा कितना संगीत जानते हो ?
युवक – जी, कुछ नहीं जानता .
नवाब साहब – अच्छा कुछ गा कर दिखाओ जिस से संगीत के प्रति तुम्हारी रुचि का पता चले .
युवक ने डरते हुए उसी दिन सुबह सुनी वजीर खान साहब के रियाज की बंदिश सुना दी. नवाब साहब भौचक्क – इस एकलव्य की उपलब्धि से हैरान हो गए. स्वयं वजीर खान भी चौंके – ‘यह मेरी बंदिश इस नवयुवक ने कहाँ सीख ली जब कि मैंने किसी को भी नहीं बताई’.
कहते हैं नवाब साहब ने उस्ताद वजीर खान को युवक को संगीत सीखाने का निर्देश दिया. यही युवक बड़ा होकर भारतीय शास्त्रीय संगीत का पितामह बना. चार घंटे प्रतिदिन अपने गाँव मैहर की देवी के मंदिर में संगीत आराधना करना इन का नियम था. इन्होनें मैहर गाँव के बच्चों को इकठ्ठा कर एक मैहर बेंड बनाया. उसी से ये मैहर वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो गए. बड़े बेटे अली अकबर खान विश्व प्रसिद्ध सरोद वादक बने, बेटी अन्नपूर्णा देवी ने सितार वादन में नाम कमाया. वे प्रसिद्ध सितार वादक पंडित रवि शंकर की पत्नी थी. इन के पौत्र शुभेन्द्र शंकर, आशीष खान, ध्यान खान और आलम खान ने भी संगीत में नाम कमाया
रामपुर के सन्दर्भ में इतना कहना आवश्यक है कि देश में छोटी बड़ी सैकड़ों देसी रियासतें थी जहाँ राजे, महाराजे अथवा नवाबों का राज्य था. बड़ी रियासतों में संगीत के महान कलाकार भी होते थे. ऐसी ही एक रियासत थी – बड़ोदा/वड़ोदरा. साठ के दशक में मेरा सौभाग्य कि मुझे आकाशवाणी के अहमदाबाद/ वड़ोदरा केंद्र में काम करने का अवसर मिला. रियासती समय में यहाँ के शासक थे महाराजा सैय्याजी राव गायकवाड. ये एक कुशलतम प्रशासक, श्रेष्ठतम शिक्षा विद, न्याय विद, परोपकारी, कला पारखी, संगीत पारखी, परम देश भक्त और क्या कुछ नहीं थे. इन्होंने नरेश होते हुए भी अपने राज्य में प्रजातांत्रिक प्रणाली लागू कर रखी थी. यह सब वहां के प्रशासन में देखा और अनुभव किया जा सकता था.
स्वतंत्रता से पूर्व रियासत का अपना आकाशवाणी केंद्र था. इन के समय में दरबार के संगीतकार थे आफ़ताबे मुसिकी उस्ताद फैयाज़ खां. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद रियासती रेडियो केंद्र भारत सरकार के प्रसारण तंत्र का भाग बन गया. रियासती रेडियो के कर्मचारी, कलाकार और अधिकारी अब भारत सरकार के हो गए थे. इन में से इस समय कोई भी उपलब्ध नहीं है लेकिन इन के नाम याद आते हैं जैसे स्व० सुबंधु त्रिवेदी (अधिकारी), विष्णु रावल (उद्घोषक), राम भाऊ मोरे (तबला वादक), शब्बीर हुसैन (सारंगी) आदि इन लोगों से रियासती समय के अत्यंत रोचक संस्मरण सुनने को मिलते थे. बड़ोदा विश्व विद्यालय के संगीत विभाग के तबला वादक सुधीर सक्सेना भी दरबार से जुड़े हुए थे. महाराजा साहब रात में रेडियो से खां साहब का गायन सुन कर ही सोने जाते थे और उस के बाद ही रेडियो केंद्र की रात्रि सभा समाप्त होती थी. खां साहब का निधन 1950 में हुआ. उन्हें अपने गायन के कारण बहुत अधिक मान सम्मान मिला. जीवन में मिले सोने चाँदी के मेडलों से भरा एक काफी बड़ा बक्सा मैंने स्वयं बड़ोदा में इन के घर में देखा था. इन की कोई संतान नहीं थी. गायन में वारिस के तौर पर शराफत हुसैन खां को मान्यता मिली थी लेकिन केंसरग्रस्त होने के कारण युवास्था में ही उन का निधन हो गया था . ठुमरी दादरा (लागत करेजवा माँ चोट) की गायिका रसूलन बाई अहमदाबाद में ही रहती थी. उन का निधन 15 दिसम्बर 1974 के दिन अहमदाबाद में हुआ.
आकाशवाणी की प्रातःकालीन पहली प्रसारण सभा उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के शहनाई वादन से प्रारम्भ होती है. इन का नाम भी भारतीय संगीतकारों में शीर्ष पर रहेगा. वे एक प्रतिष्ठित शहनाई वादक होने के साथ एक अत्यंत सरल, सहज और विनम्र व्यक्ति थे. उन्हें शहनाई के साथ जो अन्य तीन वस्तुओं से लगाव था. एक बनारस, विश्वनाथ का मंदिर और गंगा मैया का घाट. कुछ लोगों ने उन से कहा कि दुनिया काफी आगे बढ़ रही है. सभी कलाकार अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर रहे हैं आप भी बाहर जा कर देखो. उन का सरल सीधा सा उत्तर था – “आप मेरे साथ गंगा मैया और बाबा विश्व नाथ को भेज दो – जहाँ कहोगे वहां चले जायेंगे”.
एक और दिलचस्प किस्सा – पंडित रवि शंकर ने 60 वर्ष की आयु में श्रीमती सुकन्या से विवाह किया और उन के शिष्यों ने दिल्ली के प्यारे लाल भवन में एक स्वागत समारोह रखा था. इस में बिस्मिल्लाह खान भी आये थे. खान साहब से कुछ बोलने के लिए कहा गया. उन्होंने कहा. ‘अरे भैय्या रवि शंकर तुम बाकी जो चाहे करो लेकिन इस उम्र में यह शादी वादी का फंदा हमें अच्छा नहीं लगता’. यह केवल बिस्मिल्लाह खान ही कह सकते थे. आखिर दोनों ही बनारसी जो ठहरे. ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ इन दोनों की आत्मीयता और सरलता झलकती थी.
अब थोड़ी सी बात संगीत सम्मेलन के बारे में. एक समय था जब आकाशवाणी द्वारा प्रत्येक शनिवार रात्रि में प्रसारित होने वाला शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष खुले वातावरण में होता था. पुराने वयोवृद्ध लोग अब भी उस समय को याद करते हैं. कुछ लोग कहते हैं कि इस के निमंत्रण पत्र प्राप्त करने के लिए एक तरह से मारामारी होती थी. इसी लिए आकाशवाणी भवन और प्रसारण भवन के बीच में एक सभागार बनाया गया था जो बाद में दूरदर्शन के स्टूडियो में परिवर्तित कर दिया गया और संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम स्टूडियो रिकॉर्डिंग आधारित कार्यक्रम हो गया. लेकिन आमंत्रित श्रोताओं के सामने आयोजित आकाशवाणी वार्षिक संगीत सम्मेलन बना रहा. इन सब की रेकार्डिंग आकाशवाणी के पास एक अमूल्य धरोहर है. इस के अतिरिक्त वर्ष में एक बार आयोजित होने वाले ग्वालियर का तानसेन संगीत समारोह, दक्षिण भारत का त्यागराज संगीत सम्मेलन और जलंधर का हरी वल्लभ संगीत मेला अत्यंत प्रसिद्ध हैं. इस के अतिरिक्त वृन्दावन में श्री गोपाल जी द्वारा आयोजित स्वामी हरि दास संगीत सम्मेलन का अपना एक अलग स्थान है. ये सभी समारोह तीन दिन चलते हैं और देश के शीर्षस्थ कलाकार इन में भाग लेते हैं. ०००००
आचार्य बाबा अलाउद्दीन खाँ साहब के बारे में पहली बार इतनी जानकारी मिली।
बहुत सुन्दर और पठनीय लेख। बहुत बहुत धन्यवाद म
The purpose of this article was just to remember my old days of Akashvani – not to undermine or to hype or compare any one. No prejudice at all towards any one.
It was written on the insistence of my friend Dr. Madhu Sudan Jhaveri while I was paying my homage to the departed soul of his intimate friend the late Arun Kumar – an accomplished tabla player……. So my request to all not to find fault ….
संगीत में रामपुर का नाम आये और आचार्य बृहस्पति का उल्लेख न हो, ये कुछ कमी लगती है. वे संगीतकार तो नहीं थे लेकिन संगीत शास्त्र के मर्मज्ञ थे. आकाशवाणी में विभिन्न संगीतज्ञों के साथ उनके इंटरव्यू आज भी आकाशवाणी की अमूल्य धरोहर है. आचार्य जी रा.स्व.संघ के प्रचारक रहे थे. बाद में उन्होंने अपना पूरा जीवन संगीत में शोध को ही समर्पित कर दिया था. उनकी पत्नी सुलोचना बृहस्पति भी रामपुर घराने की प्रख्यात गायिका रहीं.
श्री दीक्षित जी –
आप ने ठीक कहा – आचार्य बृहस्पति जी का नाम आकाशवाणी की किसी भी संगीत चर्चा से छूट जाना एक अपराध जैसा है. मैं इस के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ. आचार्य जी से मेरा भी संपर्क था और उन से प्रायः मिलता रहता था. इसी प्रकार एक और नाम है श्री अनिल बिस्वास का. ये लोग संगीत के स्तम्भ थे. लेख लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य किसी भी कलाकार अथवा विद्वान की छवि को उठाना अथवा छोड़ना नहीं था. इस में किसी घराने को लेकर कोई क्रम बद्ध चर्चा थी. मैं इस योग्य भी नहीं हूँ. ये सभी लोग स्वनाम धन्य थे, पूजनीय थे, अग्रज थे. मैं इन सभी को नमन करता हूँ . आप का आभारी हूँ …..
(शुद्ध पाठ इस प्रकार है )
श्री दीक्षित जी –
आप ने ठीक कहा – आचार्य बृहस्पति जी का नाम आकाशवाणी की किसी भी संगीत चर्चा से छूट जाना एक अपराध जैसा है. मैं इस के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ. आचार्य जी से मेरा भी संपर्क था और उन से प्रायः मिलता रहता था. इसी प्रकार एक और नाम है श्री अनिल बिस्वास का. ये लोग संगीत के स्तम्भ थे. लेख लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य किसी भी कलाकार अथवा विद्वान की छवि को उठाना अथवा छोड़ना नहीं था. न ही इस में किसी घराने को लेकर कोई क्रम बद्ध चर्चा थी. मैं इस योग्य भी नहीं हूँ. ये सभी लोग स्वनाम धन्य थे, पूजनीय थे, अग्रज थे. मैं इन सभी को नमन करता हूँ . आप का आभारी हूँ …..
उपरोक्त में एक शब्द छुट जाने से अर्थ का अनर्थ हो गया – वाक्य होना चाहिए था ” इस में नहीं छुट गया था .
आ. गोयल महोदय–मेरे अनुरोधपर आप ने अपनी स्मृतियों को सार्वजनिक किया। ऋणी हूँ।
मेरे संगीत प्रेमी मित्रों को आलेख की कडी अवश्य अग्रेषित करूँगा। प्रवक्ता के पाठकों को विशेष लाभ होगा।
यहाँ ॐ हिन्दू कम्युनिटी सेन्टर (६ मिलयन डॉलर) प्रकल्प खडा हो रहा है। उस की ओर से संगीत कार्यक्रम आयोजित किया गया था। यह संगीत कार्यक्रम, गत रात्रि बॉस्टन के परिसर में आयोजित था।
युवा गायक अनुराग हर्ष और तबले पर नीतिन मित्ता दोनो उदीयमान कलाकार थे। दोनों बहुत आशा जगाते हैं। अनुराग हर्ष भीमसेन जी की ऊर्जावान शैली में गाते हैं। उन्हीं की परम्परा में साधना भी करते हैं। साथ साथ आय टी के क्षेत्र में शिक्षित हैं।
नीतिन मित्ता भी साथ देने में और एकाकी निस्संग उडान भरने में कुशल हैं। तानों पर बार बार तालियोंकी गडगडाहट से श्रोताओं ने दोनों युवाओं का बार बार स्वागत किया। अंत में खडे होकर भी तालियाँ बजती रही।
प्रारंभ में, दिवंगत आत्माएँ, अशोक जी को और अरुण अग्रवाल को ३० सेकंद मौन रहकर श्रद्धांजली भी अर्पण की गयी।
आप ने बडी रोचक और गतिमान शैली में आलेख लिखा।
बहुत बहुत धन्यवाद।