समाज

प्रवास

आदिकाल मे मानव जब फल इकठ्ठे करके और शिकार करके पेट भरता था, तब भोजन और सुरक्षित स्थान की तलाश मे इधर उधर भटकता था। जब उसने खेती करना और आग जला कर खाना बनाना सीख लिया, उसके बाद एक घर की ज़रूरत हुई इस तरह एक जगह टिक कर लोग रहने लगे पर जब ज़मीन का उपजाऊपन समाप्त हो गया या वहाँ की जनसंख्या बहुत बढ गई या कोई प्राकृतिक विपदा आगई तो उन्हे कहीं दूसरी जगह जाकर बसना पड़ा, अपना नया ठिकाना ढूंढना पड़ा। मानव ही क्यों पशु पक्षी भी सही मौसम और भोजन की तलाश मे दूसरे स्थान पर प्रवास करने चले जाते हैं। प्रवास का अर्थ होता है अपने घर से दूर कुछ समय के लियें या हमेशा के लियें चले जाना, कही और जाकर बस जाना। आज के संदर्भ मे प्रवासी शब्द उन लोगों के लिये प्रयुक्त होता है जो अपना देश छोड़कर एक बहतर ज़िन्दगी की तलाश मे दूसरे देशों मे जा बसे हैं।

प्रवास प्रकृति का नियम है। हमेशा से लोग दूसरे देशों मे जाते रहे हैं, बसते रहे हैं। पहली पीढी प्रवासी ही रहती है, सदियाँ या फिर पीढियाँ निकलने के बाद वह देश पूरी तरह उनका होता है। दूसरे देश की नागरिकता मिलने के बाद भी उन्हे उनके मूल के देश से पहचान मिलती है।

भारत मे भी कभी आर्य आये थे फिर कुछ मुस्लिम सल्तनत आईं, मुग़ल आये जो यहीं के हो गये। अंग्रेज़ आये जो बहुत वर्षो राज करके वापिस चले गये। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड की तो समूची जनसंख्या ही योरोपीय मूलके लोगों की है। वहाँ के मूल निवासी क्रमशः रैड इंडियन और ऐबोरीजनल तो कभी मुख्य धारा से जुड़े नहीं, ना उन्हे जोड़ने का प्रयत्न किया गया। प्रवासी योरोपीय समुदायों ने यहाँ की प्राकृतिक संपदा का अच्छा उपयोग करके अपना देश बनाया अपने मूल देशों से अलग हो गये।

तात्पर्य यही है कि अपना देश अपना घर छोड़कर एक बहतर ज़िन्दगी की तलाश मे मनुष्य सुदूर देशों मे जा बसता है। प्रवासियों की पहली पीढी को काफी संघर्ष करने पड़ते हैं, कशमकश से जूझना पड़ता है। नई जगह सामंजस्य बिठाना, छूटे हुए देश की संसकृति और भाषा का मोह, फिर अपने प्रवास के निर्णय को ख़ुद को और दूसरों को सही साबित करना। इसी की धुन मे बार बार छूटे हुए देश की कमियाँ गिनाना, नये देश की खूबियाँ गिनाने मे वे अपनी जन्म भूमि का निरादर तक करने लगते हैं जबकि उनका जुड़ाव मूल देश से आसानी से नहीं छूटता। पहली पीढी के बहुत वर्ष इसी उहापोह मे निकल जाते हैं।

प्रवास के लियें लोग उन्ही देशों मे आमतौर पर जाते हैं जहाँ की अर्थ व्यवस्था मूल देश की अर्थ व्यवस्था से अच्छी होती है धीरे धीरे उनमे यह भवना घर कर लेती है कि जिस देश को वो छोड़ आये हैं वहाँ पर लोग पता नहीं कैसे जीते हैं, चलो हम तो निकल आये वहाँ से। यह बात विशेष रूप से भारत से गये प्रवासियों मे मैने उनके देश मे बहुत देखी है। जहाँ चार भारतीय मूल के लोग बैठे उनकी चर्चा होती है कि वहाँ कितनी गंदगी है, सड़के ख़राब हैं वगैराह वगैराह। बोलने की स्वतंत्रता सबको है पर सोचिये कि प्रवासी तो यहाँ से पढाई करके निकल लिये, उनकी पढाई पर जितना ख़र्च हुआ उससे कई गुना पैसा एक सीट के लियें सरकार ख़र्च करती है, चलिये कोई बात नहीं यहाँ की जनसंख्या इतनी अधिक है कि एक जायेगा तो उसका स्थान लेने के लिये चार और लोग तैयार खड़े मिलेंगे। न प्रवासियों ने सरकार चुनी है न वो यहाँ के कर दाता हैं तो किस हक़ से वो शिकायत करते हैं, अगर ये देश पसन्द नहीं तो मत आइये और आये तो अपने मूल देश के लिये सम्मान तो लेके आयें जब आपने इस देश को कुछ दिया नहीं तो आपको शिकायतें करने का हक़ भी नहीं है। यह हक़ केवल देश के नागरिकों का है जो देश की सरकार चुनते हैं, कर देते है और देश की और अपनी उन्नति के लियें यहाँ रहकर महनत करते हैं। आप तो अपने बूढे माता पिता को भी छोड़ कर चले गये, सौ डेढ सौ डालर, यूरो या पांउड भेजकर आपको लगा कि आपने बख़ूबी अपना कर्तव्य निभा लिया लेकिन नहीं, जरूरत पड़ने पर केवल पड़ौसी या यहाँ रहे रिश्तेदार ही काम आते हैं। यहाँ रह रहे बुज़ुर्ग जिस अकेलेपन और असुरक्षा मे जीते हैं उसकी भरपाई डालर और यूरो से नहीं हो सकती है।

सभी प्रवासी इस प्रकार का व्यवहार नहीं करते कुछ जब यहाँ आते हैं तो महसूस ही नहीं होने देते कि वे प्रवासी है।कुछ प्रवासी भारतीय विदेशों मे हिन्दी तथा अन्य भरतीय भाषाओं मे साहित्य सृजन करके अपने मूल देश का नाम बढ़ा रहे हैं।कुछ लोग विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र मे महत्वपूर्ण योगदान देकर अपने प्रवासी देश और मूल देश का नाम ऊँचा कर रहे हैं।कुछ प्रवासी उद्योगपति मूल देश मे निवेश करके देश की अर्थ व्यवस्था सुधारने मे अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

प्रवासियों से मेरा आग्रह है कि जब वो भारत आयें तो यहाँ की हर परिस्थिति मे सांमजस्य बनाकर अपने प्रियजनों से मिलें पर अपने देश की ख़ूबियाँ न गिनायें आज संचार के इस युग मे हर कोई जानता है किस देश की क्या आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था है। अपने देश मे बैठकर वो अपने मूल देश की निन्दा करें तो उन्हे कौन रोक सकता है ! पर सोचिये जिस जगह आपने अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष बिताये हैं इतने रिश्ते जिये हैं उसकी निन्दा करना क्या एक सभ्य व्यक्ति को शोभा देता है।

दीवारों पर अपने बुज़ुर्गों के चित्रों को लगाकर रखने और उनके साथ ज़िन्दगी जीने मे बहुत अन्तर होता है।