मंत्री मंडल विस्तार के निहीतार्थ

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प्रमोद भार्गव

मंत्री-मंडल के इस विस्तार में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने स्पष्ट संकेत दिया है कि भाजपा की भविष्य की राजनीति की दिशा क्या होगी। इस नाते इस जोड़ी की सबसे पहली कोशिश तो यह है कि भाजपा के वर्चस्व का विस्तार देशव्यापरी हो। जिससे वह कालांतर में गठबंधन के झंझट से मुक्त हो। इस नजरिए से उसने जहां पंजाब,हरियाणा,पश्चिम बंगाल और तेलंगाना को महत्व दिया है,वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश से सबसे सांसदों को इसलिए सत्ता में हिस्सेदारी दी है,जिससे यहां होने वाले विधानसभा चुनावों की मजबूत पृष्ठभूमि तैयार हो सके। विस्तार में घटक दलों को साफ संदेश दे दिया है कि गठबंधन के वह दिन लद गए कि कोई प्रधानमंत्री के हाथ ऐंठ कर अपनी बात मनवा ले। शिवसेना की दरकिनारी इसका बेहतर उदाहरण है। दूसरे यह कि नए बनाए गए 21 मंत्रियों में से केवल एक सहयोगी दल तेलुगुदेशम पार्टी से वाईएस चौधरी हैं। जिस राजग का नेतृत्व भाजपा केंद्र सरकार में कर रही है,उसके 336 सांसद हैं,बावजूद मनोहर पर्रिकर और सुरेश प्रभु दो ऐसे कैबिनेट मंत्री बनाए गए हैं,जो किसी सदन के सदस्य नहीं हैं। जाहिर है,भाजपा बहुत सोच-समझकर अपनी पैठ राष्ट्रव्यापी बनाने के अजेंडे को आगे बढ़ा रही है।

केंद्र में गठबंधन सरकारों के दौर में शायद यह पहला मंत्री-मंडलीय विस्तार है,जिसमें न तो सहयोगी दबाव चला,और न ही भाजपा के अंदरूनी धड़ों की मंशा की परवाह की गई। शिवसेना को यह समझना चाहिए था भाजपा प्रंचड बहुमत के साथ राजग का नेतृत्व कर रही है,अलबत्ता मनमोहन सिंह सरकार की तर्ज पर नरेंद्र मोदी को ब्लैक मेल नहीं किया जा सकता है। लिहाजा शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का ऐन वक्त पर अनिल देसाई को मंत्री-मंडल में शमिल नहीं होने देने का निर्णय गलत रहा। दरअसल उद्धव महाराष्ट्रसरकार में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने पर अड़े हुए थे। इस मांग को भाजपा ने कोई तवज्जो नहीं दी,इसलिए अनिल को दिल्ली हवाई अड्ढे से ही लौटना पड़ा। इसके उलट शिवसेना की परवाह किए बिना सुरेश प्रभु को शपथ दिला दी गई। जबकि प्रभु ने एक दिन पहले ही शिवसेना छोड़ कर भाजपा की सदस्यता ली है। अब वे किसी पिछले दरवाजे से सांसद बनाएं जाएंगे। प्रभु को महत्व देकर भाजपा ने शिवसेना के जले पर नमक छिड़का है। क्योंकि यह वही सुरेश प्रभु हैं,जिन्हें बाल ठाकरे की नाराजगी के चलते 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से हटा दिया गया था। हालांकि प्रभु की ईमानदार और कुशल प्रशासक की छवि है,जो उनके काम आई है। साथ ही वह मनोहर पर्रिकार और जयंत सिन्हा की तरह आर्थिक एवं तकनीकि मामलों के जानकर भी हैं।

विस्तार में व्यक्तिगत निष्ठां को भी महत्व दिया गया है। गोवा का मुख्यमंत्री पद छोड़कर केंद्रीय सत्ता की शपथ लेने वाले मनोहर पर्रिकर इसकी उत्तम मिसाल हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त मनोहर कुशल प्रशासक के साथ अद्भुत नेतृत्व क्षमता रखते हैं,लेकिन इससे भी बड़ी उनकी योग्यता यह थी कि गोवा में भाजपा के हुए राष्ट्रिय अधिवेशन में उन्होंने ही देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का नाम उछाला था। यह वह वक्त था,जब दसों दिशाओं से नरेंद्र मोदी पर हमले हो रहे थे और लालकृष्ण आडवाणी की वरिष्ठ होने के कारण संगठन में तूती बोलती थी। इसी दौर में पर्रिकर ने आडवाणी को सड़ा हुआ अचार कहकर खिल्ली उड़ाई थी। आडवाणी ही वह व्यक्ति थे,जिन्होंने मोदी की बढ़ती हैसियत को लगाम लगाने की सबसे ज्यादा कोशिश की थी। बरहलाल मोदी ने पर्रिकार को केंद्रीय मंत्री बनाकर एक तीर से दो निशाने साधे हैं। एक तो पर्रिकर के प्रति कृतज्ञता जता दी,दूसरे आडवाणी के पुराने घावों को हरा कर दिया। गोया कि मोदी का उपकृत और बहिष्कृत करते रहने का आगे भी सिलसिला जारी रहेगा, यह संदेश चला गया है। अब राजस्थान की पटरानी वसुंधरा राजे सिंधिया को सावधान रहने की जरूरत है। क्योंकि वह पुत्रमोह के चलते दुष्यंत को मंत्री बनवाना चाहती थीं। मोदी ने राजस्थान से दो सांसदों को मंत्री बनाया,लेकिन दुष्यंत को नकार दिया।

भाजपा संगठन में निष्ठांपूर्वक,प्रभावी व निर्णायक भूमिका निभाने वाले तीन पदाधिकारियों जेपी नड्डा,राजीवप्रताप रूडी और मुख्तार अब्बास नकवी को मंत्री मंडल में जगह दी है। इससे अब कालातंर में अमित शाह को अपनी रणनीतियों को धरातल पर पहुंचाने में दिक्कतों का सामना करना पडेगा,क्योंकि ये तीनों उनके रणनीतिकार थे। सरकार का हिस्सा हो जाने के कारण इन्हें संगठन से मुक्त होना पड़ेगा। संगठन में इनके जैसे ही कुशल और लगनशील लोगों को लाना थोड़ा मुश्किल होगा। लेकिन भाजपा की यह खूबी भी है कि वह संगठन के हर क्षेत्र में नई पीढ़ी को लाकर उसे दक्ष बनाने का काम करती है। जिससे भविष्य के नेताओं की पीढ़ी तैयार होती रहे।

इन तीनों को मंत्री बनाने के निहितार्थ हैं। जेपी नड्डा मोदी के पुराने व विश्वसनीय करीबी हैं। इस लिहाज से सत्ता में ऐसे विश्वास पात्र साथियों की इसलिए जरूरत हैं,जिससे आड़े वक्त में संकट से पार पाया जा सके। रूडी को इसलिए उपकृत किया गया क्योंकि एक तो उन्होंने लालू प्रसाद यादव की पत्नी और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री रावड़ी देवी को हराया, दूसरे रूडी टीवी की मुद्दाविहीन बहसों में भी नरेंद्र मोदी और सरकार का पक्ष तार्किक ढंग व वजनदारी से रखते रहे हैं। अर्से से भाजपा के प्रखर प्रवक्ता के रूप में छोटे पर्दे पर अवतरित होते रहने वाले मुख्तार अब्बास नकवी को जगह दी गई है। इससे एक तो अल्पसंख्यक नेतृत्व की भारपाई हो गई,दूसरे उपचुनावों के दौरान भाजपा के कुछ नेताओं पर सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने के साथ लव जिहाद का झूठा मुद्दा उछालने के आरोप लगे थे। नकवी इन मुद्दों पर धूल डालकर भाजपा की बेहतर छवि बनाने का काम करेंगे।

अब मंत्री-मंडल में उप्र व बिहार का सबसे ज्यादा नेतृत्व है। उप्र से चार नए चेहरे शामिल हो जाने के बाद अब 13 मंत्री हो गए हैं। जबकि बिहार के तीन नए चेहरों को जोड़कर कुल 8 मंत्री हो गए हैं। इन दोनों प्रदेशों के संसदीय भूगोल से ही दिल्ली का रास्ता गुजरता हैं। दो साल के भीतर दोनों प्रदेशों में विधानसभा चुनाव हैं। इसलिए मोदी-शाह की जोड़ी ने क्षेत्रीय,जातिय व पार्टी की व्यावहारिक छवि के अनुकूल चेहरों को इन राज्यों से चुना है। रामकृपाल यादव को इसलिए तरजीह दी गई है,क्योंकि वे लालू का 25 साल का पुराना साथ छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं। बगावती तेवर दिखाने के बावजूद वे लालू की बेटी मीसा को हराने में सफल रहे। उनकी यादव वोट बैंक में पैठ भी है। बिहार में भगवा फहराने के लिए ऐसे रचनात्मक विद्रोहरियों को मंत्री बनाकर ताकत देनी ही होगी,जिससे उन्हें कल के नायक बनने का अवसर मिले। इससे अन्य विद्रोहियों को भी शह मिलेगी। नतीजतन वह भाजपा का रूख कर सकते हैं। गिरिराज सिंह को इसलिए मंत्री बनाया गया क्योंकि वे अपने तल्ख बयानों से मोदी का खुला समर्थन करते रहे हैं। यहां तक की उन्होंने मोदी विरोधियों की जगह पाकिस्तान बता दी थी। गिरिराज से भूमिहारों को साधने की भी कोशिश की गई है। साफ है चुनाव के दृष्टिगत जातीय समीकरण भी साधे गए हैं। उप्र की साध्वी निरंजन ज्योती को मंत्री बनाकर भी निशाद समुदाय में पैठ बनाने की कोशिश की गई है। दरअसल भाजपा का बड़ा समर्थक मतदाता हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़ा है। इसलिए इन नेताओं को मंत्रीमंडल में स्थान दिया गया है। इससे यह संदेश भी गया है कि जो नेता पार्टी की विचारधारा के अनुरूप आचरण करेंगे उन्हें महत्व दिया जाता रहेगा। हरियाणा में जाटों के भीतर उपज रहे असंतोष को चौधरी वीरेंद्र सिंह को मंत्री बनाकर साधा गया है। नए राज्य तेलंगाना से भाजपा के एकमात्र विजयी सांसद बंडारू दत्तात्रेय को तेलंगाना में भाजपा की जमीन उर्वर बनाने की दृष्टि से मंत्री पद से नवाजा गया है। ऐसी ही उम्मीद पश्चिम बंगाल से आए गायक बाबुल सुप्रीयो को मंत्री बनाकर की गई है। आसनसोल से भाजपा के सांसद बाबुल सुप्रीयो वही सांसद हैं,जिनके कुछ समय पहले क्षेत्र में गुमशुदा होने के पोस्टर चिपकाए गए थे ? लिहाजा ये भाजपा की बंगाल में पैठ बनाने में कितने खरे उतरते हैं,यह तथ्य फिलहाल काल से गर्भ में है।

नए मंत्रियों में 14 ऐसे मंत्री हैं,जो पहली बार चुनाव जीत कर आए हैं। 45 पहले के और 21 नए मंत्रियों को जोड़कर मोदी मंत्री मंडल की सदस्य संख्या 66 हो गई है। मनमोहन सिंह मंत्रीमंडल में 78 मंत्री थे। इस मंत्रीमंडल का भाजपा जंबों मंत्रीमंडल कहकर मजाक उड़ाया करती थी। क्योंकि बड़े मंत्रीमंडल से खजाने का खर्च भी बढ़ जाता है। भाजपा अब खुद इसी नक्षे-ए-कदम पर हैं। जाहिर है,यह संख्या नरेंद्र मोदी के सुशासन के नारे ‘न्यूनतम सरकार,अधिकतम शासन‘के अनुरूप नहीं है। प्रधानमंत्री के विचार और आचरण में अंतर साफ दिख रहा है। इस विस्तार से यह अपेक्षा जरूर की जा सकती है कि अब मंत्रियों के श्रम का विभाजन होगा और कामकाज में अधिक चुस्ती दिखाई देगी। मंत्रीमंडल में कमोवेश युवाओं के शामिल किए जाने से यह निष्कर्षभी निकाला जा सकता है कि भाजपा ने भविष्य की टीम अभी से प्रशिक्षित करना शुरू कर दी है। इससे कांग्रेस को सबक लेने की जरूरत है। जो लगातार पराजय का मुहं देखने के बावजूद राहुल और प्रियंका के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है।

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