गजल

अपनी ग़ज़ल समाज का तू आईना बना…..

इक़बाल हिंदुस्तानी

वो शख़्स है मक्कार कहूं या ना कहूं मैं,

छिपकर करेगा वार कहूं या ना कहूं मैं।

 

रोटी ना अमन चैन पढ़ाई ना दवाई,

ग़ायब सी है सरकार कहूं या ना कहूं मैं ।

 

जिसने हमारे बीच में दीवार खड़ी की,

होगा ही बहिष्कार कहूं या ना कहूं मैं।

 

ताक़त से फ़न पे रोक लगाने चले हैं लोग,

मरता नहीं विचार कहूं या ना कहूं मैं।

 

मेरी ये पूंजी है कि शहर मेरे नाम पर,

करता है ऐतबार कहूं या ना कहूं मैं।

 

अपनी ग़ज़ल समाज का तू आईना बना,

छापेगा हर अख़बार कहूं या ना कहूं मैं।

 

ग़ज़लें किसी की नाम गला पैसा किसी का,

अच्छा है कारोबार कहूं या ना कहंू मैं।

 

दुश्मन भी घर पे आये तो बच्चे मेरे सदा,

करते हैं नमस्कार कहूं या ना कहूं मैं।।

 

नोट-मक्कारः धूर्त, फ़नः कला, ऐतबारः विश्वास, आईनाः दर्पण

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