माखनलाल विश्वविद्यालय : लाल ना रंगाऊं मैं हरी ना रंगाऊं

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– पंकज झा

सन 2001 की एक रात को इस लेखक को आजतक चैनल के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री से साक्षात्कार का ‘अवसर’ मिला था. लेकिन अपने कैमरा टीम और पूरे ताम-झाम के साथ प्रधानमंत्री निवास पहुंच कर पहला सवाल पूछने से पहले ही इस बालक की नींद टूट गयी थी. सुबह-सुबह अखबार में माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय का विज्ञापन देख दौर पड़ा था वह अपना सपना पूरा करने भोपाल. एक निम्न मध्यवर्गीय युवक का सपना, एक औसत विद्यार्थी का कुछ बड़ा सपना. हालाaकि एक दशक बीत जाने के बाद भले ही इस पत्रकार का स्वप्न अधूरा रह गया हो लेकिन तबसे लेकर अब तक या उससे पहले भी इस संस्थान ने उत्तर भारतीय परिवारों से अपनी जेब में पुश्तैनी ज़मीन या घर के जेवरात को बंधक रख कर लाये गए कुछ पैसे और झोले में समेटे कुछ सपनों को लेकर आने वाले लोगों को राह दिखाई है. आज की तारीख में ऐसा कोई समाचार चैनल, कोई अखबार, कोई जनसंपर्क संस्थान या अन्य तरह की सफल सम्प्रेषण संस्थाए ऐसी नहीं होंगी जिसमें आपको इस संस्थान के छात्र नहीं दिखे. आज इस विश्वविद्यालय को लो-प्रोफाइल का बड़ा संस्थान कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. आप देखेंगे कि पत्रकारिता के जो बड़े संस्थान महानगरों में हैं वो या तो ‘अंग्रेज़ीदां’ लोगों की बपौती बनी हुई है या फिर कुछ बड़े बाप की बिगड़ी औलादों का ऐशगाह. वहां आपको निरुपमा और प्रियभान्शु की कथाएं ज्यादे दिखेंगी बजाय किसी समाचार कथाओं के. या फिर देशद्रोह को फैशन मानने वाले लोगों की कतार से सामना होगा आपका. बाकी कुकुरमुत्ते की तरह उगे हुए पत्रकारिता के दुकानों का तो कहना ही क्या? मोटे तौर पर माखनलाल ने यह दिखाया है कि बिना जींस-कुरता और सिगरेट की भी पत्रकारिता हो सकती है. सरल शब्दों में कहूं तो अन्य उपलब्धियों के अलावा समूचे भारतीय पत्रकारिता को वामपंथ की जागीर समझने वालों से मुक्त करा कर अपने नाम के अनुरूप ही राष्ट्रवादी-राष्ट्रीय पत्रकारिता में इस विश्वविद्यालय ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है.

हर चर्चित संस्था की तरह इसका भी वैसे विवादों से चोली-दामन का साथ रहा है. राज्य शासन के सीधे नियंत्रण में होने के कारण निश्चित ही इसे राजनीतिक दबावों को ज्यादा झेलना पड़ता है. शरतचंद्र बेहार के कुलपति रहते जब यह लेखक वहां का छात्र था तो आश्चर्य लगता था देखकर कि किस तरह शिक्षकों को मजबूर होकर कांग्रेसी कार्यक्रमों में हिस्सा लेना पड़ता था. या फिर हिंदी-हिंदू-हिन्दुस्तान को मन भर गाली देने वाले लोगों के लिए किस तरह लाल-कालीन बिछाई जाती थी. आपको मजबूरी में उस बुजुर्ग (से.)आईएएस को खुश रखने के लिए अपनी ही मां-बहनों एवं संस्कृति का मजाक उड़ाने पर भी जबरन मुस्काते रहने पर मजबूर होना पड़ता था. इसके अलावा गली मोहल्लों में, पान ठेलों, बाथरूमों तक में फ्रेंचाइजी बांट कर भी इसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुचाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गयी थी. लेकिन लाख दबावों एवं सीमाओं के बावजूद कुछ अच्छे और कर्तव्यनिष्ठ शिक्षकों के कारण कम से कम यूटीडी में प्रवेश लेने वाले छात्र अपनी पढ़ाई पूरी कर निश्चय ही अपने पिता के लिए दो जून रोटी का जुगाड ज़रूर कर पाते थे. आज तक संस्थान की यह सफलता जारी है. कम से कम वहां से निकले कोई भी छात्र आपको बे-रोज़गार नहीं दिखेंगे. खैर.

बात अभी के विवादों का. जैसा की ऊपर वर्णित किया गया है कि किसे तरह कांग्रेस इस संस्थान को अपनी बपौती समझते थे. अपने पिट्ठुओं को उपकृत कर, पत्रकारिता का ‘क ख ग’ की समझ नहीं रखने वालों को सूबेदार बना कैसे उसको नौकरशाहों का सैरगाह बनाने का बेजा प्रयास किया जाता रहा है. अब-जब मध्य प्रदेश की जनता ने गरदन पकड़ कर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया है तो ज़ाहिर है कि उस संस्थान में भी अब कोई बखत नहीं रह गयी है उस पार्टी का. अभी हाल में कांग्रेस के एक नेता ने भगवाकरण का आरोप लगा कर अपनी खीज उतारी है. कांग्रेस प्रवक्ता के अनुसार प्लेसमेंट सहायक के लिए आहूत परीक्षा में भाजपा से सम्बंधित सवाल पूछ कर बकौल प्रवक्ता “वर्ग विशेष को समर्पित संकीर्ण विचारधारा को परोसा जा रहा है.” मसलन जनसंघ के संस्थापक कौन थे, 25 दिसम्बर को किस नेता का जन्म दिन होता है आदि-आदि. अब आप सोचें…मानसिक दिवालियापन की भी कोई हद होनी चाहिए. मध्य प्रदेश को एक मात्र प्रधानमंत्री इस 63 साल में देखने को मिला. क्या उसके बारे में एक छोटा सा सवाल पूछना भगवाकरण हो गया? डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो नेहरु मंत्रिमंडल में मंत्री थे. संघ से उनका कोई प्रत्यक्ष संबंध भी नहीं था. क्या हम अपने ही भारतीय इतिहास के बारे में सवाल पूछने के अधिकारी नहीं हो सकते हैं? पता करने पर हमें बताया गया है कि उसी सवालों की शृंखला में यह सवाल भी था कि अर्जुन सिंह किस राज्य के राज्यपाल थे. तो वह कौन से भाजपाई हो गए? या कांग्रेस के अध्यक्ष रहे महामना मालवीय के बारे में सवाल पूछना भी क्या भगवाकरण था? सवाल अगर भाजपा से सम्बंधित भी हो तो इसमें कोई बुराई क्या है, यह कौन सी संकीर्णता हो गयी? आखिरकार जब असामाजिक तत्व जैसी छवि रखने वाले संजय गाँधी समेत पूरे नेहरु परिवार को हम याद कर सकते हैं. इस गरीब देश में 600 के करीब संस्थान एक ही परिवार के नाम पर रख सकते हैं. लेकिन विशुद्ध भारतीय विचारों की पार्टी जिसकी अभी भी आधा दर्ज़न राज्यों में सरकार हो या जिसके बुरी हालत में भी 116 सांसद हो, उसकी बात करना संकीर्णता हो गयी.

ताज्जुब तो यह है कि हम हिटलर से लेकर हेराल्ड लास्की को पढ़ें. माओ से लेकर मेकाले तक का महिमामंडन बर्दाश्‍त है हमें, समाजवाद से लेकर अवसरवाद तक झेलते रहे. पकिस्तान और मुस्लिम लीग की बात करते रहे. घुसपैठियों को प्रश्रय देने वालों की बात करें, बस भूल कर भी कभी एक भारतीय विचारक द्वारा विशुद्ध भारतीय आधार पर, भारतीयों के लिए सोचे गए विचारधारा की बात जुबान पर ना लायें. अपने छात्र रहते हमें याद है कि किस तरह हमें अपने संस्थान में ‘लज्जा शंकर हरदेनिया’ जैसे दुराग्रही विचारकों को झेलना पड़ता था. छात्रों द्वारा बार-बार अपमानित कर बाहर निकल जाने को मजबूर करने पर भी निर्लज्ज हो गंगा और भारत के नक़्शे का मजाक उड़ाना वह नहीं छोड़ते थे. या अभी भी याद है किस तरह साहित्यकार ‘विजय बहादुर सिंह’ ने खुलेआम संस्थान के सेमीनार में यह कहा था कि “ आज के भारत में नक्सली एकमात्र मर्द हैं”. चिल्ला-चिल्ला कर हम जैसे छात्रों ने उनकी बातों का विरोध किया था. तो यह सब झेलना कही से संकीर्णता नहीं हुई, लेकिन किसी ऐसे नायक जिनने पूरे मध्य प्रदेश से प्रधान मंत्री पद का इकलौता गौरव दिया था, केवल इसलिए कि वो किसी दूसरी पार्टी से हैं, बात करना संकीर्णता हो गयी. विश्वविद्यालय प्रशासन य राज्य सरकार से आग्रह कि निश्चय ही किसी भी तरह के दबाव में आये बिना भारत के नायकों, भारतीय विचारों जिनको आज तक प्रश्रय नहीं दिया गया उन्हें लोगों तक पहुचाने का राष्ट्रीय कार्य करते रहे. लिखते-लिखते मीरा का भजन याद आ रहा है. लाल ना रंगाऊं मैं हरी ना रंगाऊं, अपने ही रंग में रंग दे चुनरिया. वास्तव में ‘लाल’ और ‘हरे’ रंग की अतिवाद से मुक्ति हेतु किसी भी तरह का प्रयास करने में कोई बुराई नहीं है. भले ही लाख सर पटक ले कोई. और बदरंग कांग्रेस को किसी भी तरह का बेजा आरोप लगाते समय अपने गिरेबान में पहले झांक कर इस संस्थान में जैसी उपरोक्त वर्णित गंदगी मचाई गयी थे उसको याद कर लेना चाहिए. तमाम तरह के आरोपों-अभियोगों के बावजूद माखनलाल छोटे-छोटे शहरों के भरी बोर दोपहरों से झोला उठाये तमाम सपनों को उसका आकाश मयस्सर करवाते रहे यही कामना.

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  1. अख़लाक़ जी की टिप्पणी में शायद (………) जहां पर है वहां-वहां मोडरेटर जी ने कुछ असंसदीयतम शब्दों को सेंसर किया है. ऐसे कुंठित लोगों से आप और उम्मीद भी क्या कर सकते हैं. मैं अब अपना यह रुख दुबारा दुहराता हूं कि कम से कम नक्सल मुद्दे पर केवल लिखने और चीखने से कुछ नहीं होने वाला. हम अपने अधिवक्ताओं से विमर्श कर रहे हैं. कि सीधे तौर पर मुकदमा कर नक्सलियों को महिमामंडित करने वालों पर कारवाई की जाय. अगर ऐसा करने में हम सफल हो पाए तो निश्चित ही अख़लाक़ जी की इन टिप्पणियों का भी ध्यान रखूंगा. तकलीफ तो ज़रूर होगी क्युकी दुर्भाग्य से अख़लाक़ हमारे सहपाठी रहे हैं. लेकिन राष्ट्र भावना को ऊपर रखते हुए हमें अपना कर्तव्य निभाना ही होगा. नक्सल समर्थक किसी भी सांपो को चाहे वह हमारे आस्तीन में ही क्यू ना रहे विष-दन्त तोड़ देना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है. एक नागरिक को मिले सामान्य संवैधानिक अधिकार और कर्तव्यों का उपयोग करते हुए हम विशुद्ध कानूनी तौर पर ऐसा करने का प्रयास करेंगे……सादर.

  2. पंकज जी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विवि को आप जैसे भाजपाई ……… से ही खतरा है। डा. विजय बहादुर सिंह, सुधीर रंजन सिंह, हसरत अर्जुमंद, दीपेन्‍द्र बघेल जैसे कई नाम हैं जिन्‍होंने इसकी प्रतिष्‍ठा बढ़ाई है। उन्‍हीं लोगों का पढ़ाया हुआ छात्र मैं भी हूं। आज उन्‍हीं की शिक्षा के बदौलत पत्रकारिता में बेहतर कर रहा हूं। आरएसएस और भाजपाई तो शुरू से …….. रहे हैं उन्‍हें कभी कुछ अच्‍छा दिख ही नहीं सकता। वाकई मर्द तो नक्‍सली ही हैं। ऐसे नक्‍सलियों को माखनलाल चतुर्वेदी प.विवि के एक छात्र का लाल सलाम।

  3. प्रिय जेम्स बोंड .यह तय है कि माखनलाल में इस नाम का कोई अपना साथी अपने करियर मार्ग का सहचर नहीं था . अगर आप अपना असली नाम लिखते तो निश्चय ही मेरे आनंद का पारावार नहीं रहता. फिर भी हम यह मान कर चल रहे हैं कि अपन ने ज़रूर साथ में भैयालाल के ठेले की चाय और मामू के दूकान का समोसा साथ-साथ खा कर डेनियल पर्ल या प्रभाष जोशी बनने का सपना देखा होगा. आपकी सहमति के लिए शुक्रगुजारी.लेकिन जहां तक पूर्वाग्रह का सवाल है तो घोषित तौर पर मैं भाजपा की पत्रिका में नौकरी करता हूं. ज़ाहिर है वह राष्ट्रवादी विचार मेरे नमक तक में शामिल है. लेकिन बावजूद इसके मेरे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आप निश्चिंत हो सकते हैं. और वह ज़रूरी पड़ने पर अपनी पार्टी का आलोचना करने से भी बाज़ नही आता. रही बात ‘असामाजिक तत्त्व जैसा’ किसी को कह देने का तो यह लिखते समय मेरे मन में एक नारा गूंज रहा था…नसबंदी के तीन दलाल……….! आप समझ रहे होंगे कि आपातकाल के आलोक में आप उन महानुभाव को असामाजिक तत्त्व ‘जैसा’ कह ही सकते हैं. कुछ चीज़ें प्रतीक में कही जाती है जैसे ‘लाल’ रंग का सीधा मतलब हो जाता है वामपंथ, जबकि वह भी हम सबका रंग है उसी तरह सिगरेट और जींस मामले का जिक्र है. सब लोग इसका इस्तेमाल करते हैं लेकिन यह मान लिया गया है कि कंधे पर झोला लटकाए, पावों में स्लीपर, गाल पे दाढी. हाथों में सिगरेट, जींस और कुरता पहने एक खास वर्ग के चरित्र का पत्रकार ही होता है. यह केवल रूपक है और लिखने का एक शिल्प. इसको अन्यथा नहीं लें. जहां तक प्रेम कथाओं की बात है तो निश्चय ही हम भी अपने संस्थान के जोड़ों को देख कर ना केवल आहें भरते थे बल्कि जलन भी होती थी कि काश…….! लेकिन अपनी-अपनी तकदीर. हा हा हा हा ……! मगर बात यह है कि बड़ी झील जा कर गलबहियां किये हुए किसी अपने जोड़े के आँखों में भी अपने पिता का सपना ही हावी रहता रहा होगा तभी तो आज तक ऊपर जिस कहानी का जिक्र किया गया है वैसा कभी कुछ नहीं हुआ और नौकरी के साथ-साथ हर बैच के कुछ छात्रों पर भाग्य का ‘वर्षा’ भी हुआ लेकिन अपेक्षाकृत ‘सौम्य’ तरीके से. कई लोगों को वास्तव में ‘वात्सल्य’ सुख भी प्राप्त हुआ ही. तो कुछ लोगों के टाइम पास का साधन भी नसीब हुआ था. लेकिन शायद अपना लक्ष्य अधिकतर के लिए मुख्य रहा था.धन्यवाद.
    प्रिय केशव, बिल्लियों की लड़ाई में कोई ‘बन्दर’ ना बन पाए यही कामना. विकास सैनी जी, निश्चित ही हम होंगे कामयाब एक दिन. राजीव कुमार जी ने जिस तरह उत्साहवर्द्धन किया वह अच्छा लगा, खास कर उन्होंने इस ‘छात्राना’ आलेख को लोगों तक भी पहुचाया, मेरे जैसे छात्र को और क्या चाहिए? आदित्य जी का ‘जबाब हम देंगे’ वाली टिप्पणी प्रसंशनीय. जीत भार्गव जी ने भी सदा की तरह राष्ट्रवाद के प्रखर विचारों का कुछ बिंदु यहाँ भी प्रस्तुत किया, प्रेरणास्पद. एस. के. मिश्र साहब की चिंता जायज है, लेकिन बोलना या लिखना भी ज़रूरी है आखिर अपन और क्या कर सकते हैं. कुछ सही परिवर्तन हो बीजेपी में अपनी भी यही इच्छा. विश्व मोहन तिवारी साहब ने दो बार टिप्पणी कर इस आलेख को गंभीरता प्रदान की और इसको भाषा विमर्श का भी मामला बनाया. वास्तव में प्रेरणा मिलती है वरिष्ठतमों के गौर करने पर. लोकेन्द्र जी की बातों से दो सौ प्रतिशत सहमत कि “अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक पंथ विशेष की आड़ में काला-पीला किया जाए. इन्हें तब कुछ नहीं सूझा जब कांग्रेस के प्रति सहानभूति बटोरने के लिए राहुल बाबा छांट-छांटकर देश के विश्वविद्यालयों में घूमे। इनका माथा तब नहीं ठनकता जब कुछ लोग इस देश की रोटी और नमक खाकर अन्य देशों का भौंपू बजाते हैं। ये तब हो हल्ला नहीं मचाते जब बौद्धिक आतंकवादी खूनी नक्सलवाद और माओवाद का खुलेआम समर्थन करते हैं.” रघुराज सिंह जी आप चिंतित ना हो, भरोसा रखिये अपने कलम का स्तर कभी नहीं गिरेगा. यह आलेख भी समय का अधिकतम उपयोग कर ही लिखा गया है. नवीन जी आपसे हमने ‘अरेखीय संपादन’ के गुर सीखें हैं. उम्मीद करता हूं आपकी शंका और आपके कष्ट का निवारण होगा. सुनील पटेल जी ने भी उत्साहवर्द्धन किया. बहुत विनम्रता से अपने सभी अग्रजों, पाठकों, टिप्पणीकारों के प्रति ह्रदय से धन्यवाद. अनन्य-अशेष आभार….!

  4. Pankaj jee. whatever you have written, i do agree but not fully. Some points raised and some words used by him seems to be his biasness towards ‘others’…….. (it may be congress or left ….or IIMC or others)There is no doubt about MCRPV. In fact i do agree that what i am today is due to the university and i think most of it’s students of hindi heartland do also feel.

    You gave the example of Nirupama and priyabhanshu. such incidents may take place anywhere. Pankaj jee tell me frankly… is not a fact. even in MCRPV where you can find more than one pair in each and every batch since the begining….

    Dusri baat ….in IIMC, and other institutes there is fixed number of seats for hindi students as well as for english…..so bapauti kahna uchit nahi hai mere mitra….keans kurta aur cigaratte kaha nahi hai aaajjjjj…….

    asking question’s is totally a prerogative of university so it cant be raised but to abuse somebody is not also ur prerogative….by using words like anti social elements and other

    मध्य प्रदेश की जनता ने गरदन पकड़ कर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया है तो ज़ाहिर है ……….this line says everything…..

  5. पंकज जी ठीक कह रहे है. माखनलाल राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय बहुत अच्छा कार्य कर रहा है. पत्रकरिता के साथ साथ और भी बहुत से व्यावयासिक पाठ्यक्रम चला रहा है.

  6. जहा तक इस विश्वविद्यालय की बात है निश्चित तौर पर युवा और होनहार मीडिया कर्मी देश को देने वाले संस्थान के रुप में पहले नंबर में गिना जाएगा चाहे वह मीडिया के किसी क्षेत्र से ताल्लुक रखता हो, हर तरह के मीडिया कर्मी इस संस्थान से निकल कर सफलतम रुप से काम कर रहे है इस बाबत् मै संस्थान को निश्चित तौर पर बधाई देना चाहूँगा , पर एक टीस मन में हमेशा लगी रहती है वह है समय समय पर संस्थान की छबि बिगडने का, कहते है कि शिक्षा संस्थानो को राजनीति के तीन-पांच से दूर रखना चाहिए पर शायद इस संस्थान के नसीब में ये नही है, बात चाहे बेहार साहब की हो या कुठीयाला जी की सभी की बाते पुरी तरह जग जाहिर है , कांग्रेस की सरकार आती है तो अपना आदमी रखती है बीजेपी की आई तो संघ का आदमी आ गया(दिल्ली में चले भारी उठापटक के बाद) आने वाले समय मे यदि कोई और पार्टी सत्ता में आई तो निश्चित तौर पर उसका आदमी ही शीर्ष पर होगा इसे कोई नही झुठला सकता और न ही हमे किसी तरह की मुगालतें में रहना चाहिए इसमें कोई नई बात नही है जिसकी लाठी उसकी भैस ,रही बात हाल फिलहाल कांग्रेस के विरोध की तो ये उनका राजनीतिक धर्म है कि वर्तमान सरकार के लंगोठी खिचे, चाहे किसी भी मुद्दे पर हो अगर कांग्रेस सत्ता में होती तब संस्थान की किसी न किसी गतिविधियों को लेकर भाजपा या अन्य पार्टी आरोप प्रत्यारोप जरुर लगाती ये सब तो चलते रहता है यही भारतीय लोकतंत्र है मेरे भाई….इन सब पचडो में काहे टाईम खोटी करे …..

  7. यह किसी पार्टी की बात नहीं है और नहीं किसी विचार धारा की ये लड़ाई है हमारे विश्वाश और आत्मसम्मान की जिस संसथान ने देश की पत्रकारिता की पूरी पीढ़ी दी है अब उसी पर सवाल खड़े हुए है आखिर हमारी जिम्मेदारी है इस नमक क हक को अदा करना …….आइये इस बार इसे सिर्फ बहस का मुद्दा ना बनाये बल्कि एक पूरी बिरादरी की आवाज़ बने ऐसा प्रयास हो….

  8. शक्ति के शासन का होना दर्शाता है कि वह समाज या राष्ट्र अभी पर्याप्त सभ्य नहीं‌हो पाया है।
    सभ्यता और सण्स्कृति तो शक्ति का नहीं वरन मानवता का शासन चाहतीहै।
    शक्ति और सम्स्कृति का यह द्वन्द्व होना ही चाहिये । कलमकारों का इसमें योगदान आवश्यक है।

  9. शक्ति का शासन हमेशा रहा है..और जिसकी लाठी उसकी भैंस…जो सत्ता में रहता है वह अपने ढंग से अपना गुणगान कराता है…रही बात इस मुद्दे को लेकर हो रहे हो हल्ले की तो भारतीय सियाशतदारों के पास इतना ही बचा है… इस पर माथापच्ची करना कलमकारों का अपना स्तर गिराना है…..

  10. पंकज सही लिखा आपने। तथाकथित सेक्यूलर और वामपंथियों का पेट और सिर तभी दुखता है जब कोई सच कह दे। इनका पेट तब नहीं दुखता जब जेएनयू पर पूरी तरह से कम्युनिष्ट (भारत के प्रति कम निष्ठावान) को कब्जा रहे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक पंथ विशेष की आड़ में काला-पीला किया जाए। इन्हें तब कुछ नहीं सूझा जब कांग्रेस के प्रति सहानभूति बटोरने के लिए राहुल बाबा छांट-छांटकर देश के विश्वविद्यालयों में घूमे। इनका माथा तब नहीं ठनकता जब कुछ लोग इस देश की रोटी और नमक खाकर अन्य देशों का भौंपू बजाते हैं। ये तब हो हल्ला नहीं मचाते जब बौद्धिक आतंकवादी खूनी नक्सलवाद और माओवाद का खुलेआम समर्थन करते हैं। जिनके संबंध में परीक्षा में प्रश्न पूछे हैं वो कोई आतंकवादी तो है नहीं इसी देश के वासी हैं। जिनका सम्मान करोड़ों जनमानस करते हैं। ये लोग देश का भला नहीं होने देंगे।

  11. यह तो आचार्य जीने ठीक कहा कि जब भारतीय भाषाएं आपस में लड़ेंगी तब लाभ अंग्रेज़ी को ही मिलेगा, जैसा कि मिल रहा है।
    जिस सरकार ने इस देश में एक विदेशी‌भाषा को थोप दिया, जिसके नेता भारत में अंग्रेज़ी राज्य को आपना सौभाग्य मानते हैं, उन से तो आशा करना ही व्यर्थ है.
    पत्रकारों, साहित्यिकों तथा कर्मठ समाजसेवियों पर ही आशा टिकी है। किन्तु उनकी संख्या कम ही है।
    देश प्रेमियों को कुरुक्षेत्र में न्याय के लिये उतरना होगा।
    माखनलाल विश्वविद्यालय इस दिशा में कुछ कार्य कर रहा है यह आशा बढ़ाता है।

  12. भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी बिडम्बना यही रही की आजादी के बाद कांग्रेस ने उन लोगों को टिकेट दिया जिन्होंने हमेशा अपने निहित स्वार्थ के लिए अंग्रेजों की तरफदारी की | परिवारवाद के नाम में टिकेट लेने वालों से आप सेवा की अपेक्षा न करें | दुर्भाग्य ये है की बीजेपी भी उसी राह पर अग्रसर है जिस पे कांग्रेस चलती है | अब जरुरत है नई सोच की और नए संगठन की | पर जिन लोगों को इस बारे में सोचना चाहिए वो सिर्फ बोलकर और लिखकर अपनी भड़ास उतार रहे हैं| “Dare to Die to Change”

  13. कम्यूनिस्टो का बौद्धिक आतंक कोइ नई बात नहीं है. अब तो जेहादी और चर्च भी उनके साथ जुड़ गए हैं. इन लोगो से भारत-भारती के सम्मान की अपेक्षा करना ही बेमानी है. आखिर ये जिसका खायेंगे, उसी का ही गायेंगे. भारत ही नहीं, भारतीय साहित्य और पत्रकारिता की दुर्दशा के जिम्मेदार यही वामपंथी हिटलर है. ना तो इनमे सच सुनाने की हिम्मत है और नाही सच कहने की. ये लोग चाहे कितना ही गला फाड़ ले, माखनलाल विवि एक स्तरीय संस्थान बनाकर उभरा रहा है और यह अपना डंका बजा कर रखेगा. हम किसी भी हालत में इसे जे एन यु जैसा नक्सलियों और देश के dushmano का addaa नहीं banane denge.
    हमेशा की तरह आपके धारदार आलेख के लिए धन्यवाद.

  14. ye rajneeti wale khud ko pta nahi kya samjhte hai.inhe to bus doosro ki ga…….. me ungki karni aati ahi .pankaj ji aapne teek lilkha hai ,hume iska jabab dena chahuye

  15. Writer has written reality. His story has praiseable. I am giving this story expension in orkut,myspace,twitter,face book and mediaclubofindia.com. Congress can’t see the growth of hindutva. If they talk muslim tustikaran then they r pure secularist, If Bjp arise the question of hindutva then he is Sampradaik.
    India has finded freedom sacrifice of Bhagal Singh, Subas chand bos, Savarkar . Not only for Gandhi ji and Nehru. One time will come our generation would know all reality that Congress has harmed India more.
    Congress is Protesting of Kutiala ji, it’s his inferior Poltics.

  16. कुलपति श्री बीके कुठियालाजी के कुशल मार्गदर्शन में माखनलाल राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय दिनोंदिन प्रगति के नए सोपान तय कर रहा है। कुठियालाजी मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में इतिहास रचने का काम कर रहे हैं जाहिर उनके विरोधी इसे कैसे बर्दाश्‍त कर लेंगे। उनके विरोधी मनगढ़ंत आरोप लगाकर उनकी छवि को विकृत करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन कुठियालाजी को स्वामी विवेकानंद का वचन अच्छी तरह याद रखना होगा: ‘हर एक बड़े काम को चार अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है: उपेक्षा, उपहास, विरोध और अंत में विजय।’ कुठियालाजी को इसी विजय को अपनी नियति मानकर विरोधों की परवाह किए बगैर अपने मिशन में जुटे रहना होगा।

  17. मुझे एक कहानी याद है दो बिल्लियां कंही से एक रोटी ले आई और रोटी को दो हिस्सों में बाटने के नाम पैर लड़ने लगी एक बन्दर बड़ी देर से ये सब कुछ देख रहा था उसने मोके का फायदा उठाया और बराबर रोटी बटने का नाम पर पहले एक बिल्ली की रोटी का कुछ हिस्सा खा गया प्गिर जब दूसरी बिल्ली ने पहली बिल्ली की रोटी को बड़ा बतया तो उसकी रोटी कहा गया फिर बारी baari दोनों की रोटियां खा गया ……….कुछ समझ में आया ……….भाईसाहब

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