आतंकवादियों को महिमामंडित करती अरुंधती राय

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-गिरीश पंकज

अरुंधति राय जैसी पश्चिमोन्मुखी (और कुछ अर्थों में पतनोन्‍मुखी भी) लेखिकाओं को यह पता है कि अगर मीडिया में बने रहना है तो हथकंडे क्या हो सकते हैं। और वह अकसर सफल रहती हैं। अरुंधति के बहुत-से लटके-झटके मैं देखता रहा हूँ, सबका जवाब देने का कोई मतलब भी नहीं, लेकिन इस बार जब वह खुलेआम हिंसा की वकालत कर रही है तो न चाह कर भी कुछ लिखना पड़ रहा है। सृजनधर्मी मन हमेशा समाज को दिशा देने का काम करता है। मुक्तिबोध की कविता है-जो भी है उससे बेहतर चाहिए, पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए- तो लेखक की भूमिका कचरा साफ करने की होती है। कचरा बढ़ाने की नहीं। लेकिन जब समाज में हिंसा का कचरा फैलाने वाले बुद्धिजीवी बढ़ जाएँगे तो कल्पना करें कि सामाजिक परिदृश्य कैसा होगा? नक्सली कोई सामाजिक क्रांति के लिए जंगलों में नहीं भटक रहे हैं। वे हत्यारे हैं, एक तरह के आतंकवादी ही हैं, और सामाजिक समरसता के दुश्मन हैं। इनका मकसद है हत्या के सहारे अपने आतंक की सत्ता स्थापित करना। नक्सलवाड़ी से निकला आंदोलन उस वक्त जरूर विचारधारा के साथ सामने आया था। लेकिन धीरे-धीरे वह आंदोलन दिशाहीन घोड़े की तरह दौड़ता हुआ एक दिन अनैतिकता और अशांति की खाई में जा गिरा। नक्सलवाद के जनक कानू सान्याल को हताश हो कर आखिर आत्महत्या करनी पड़ी। सिर्फ इसलिए कि जिस आंदोलन को जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उन्होंने शुरू किया था, वे उद्देश्य तो पूरे नहीं हुए, उल्टे सामाजिक नुकसान ज्यादा हो गया। संघर्ष के सिपाही हत्यारे निकल गए। सुबह-शाम हत्या,हत्या और सिर्फ हत्या। हत्या नहीं तो फिर तोडफ़ोड़,अपहरण, लूटपाट आदि।

जंगल में मारे-मारे फिरते ये तथाकथित क्रांतिकारी आखिर चाहते क्या हैं? होना क्या चाहिए? एक बेहतर समाज-व्यवस्था ही न? लोग ईमानदारी से काम करें। गरीबों को उनका हक मिले। यह सब पाने के लिए मुख्यधारा में आने में क्या दिक्कत है? सामने आ कर चुनाव लड़ें। अपना पक्ष रखें और सरकार बनाएँ। मैं यह भी मानता हूँ कि अब जैसे चुनाव हो रहे हैं, उनमें बहुत अच्छे लोगों का निर्वाचन भी संदिग्ध है, क्योंकि वहाँ धन-बल और बाहुबल भी चलता है, फिर भी एक संभावना बनी हुई रहती है। कोशिश करके देखना चाहिए। हो सकता है, हम जैसी सरकार चाहते हैं, एक दिन वैसी ही सरकार बन जाए। मैं खुद इस वर्तमान व्यवस्था से नाखुश हूँ। जनप्रतिनिधि अपराधी है,धोखेबाज हैं। अफसर उससे भी ज्यादा खतरनाक है। और अगर आईएएस और आईपीएस हैं तो वो और ज्यादा भ्रष्ट, क्रूर, व्यभिचारी। दुर्भाग्य हमारे लोकतंत्र का,कि ये लोग ही देश चला रहे हैं। यह जो समूचा सिस्टम है, उसके खिलाफ मुहिम चलनी चाहिए। सबसे जरूरी है जनता को बौद्धिक बनानान। उसे ईमानदार करना। जनता को प्रलोभनों केसहारे बेईमान करने की काशिश होती है तंत्र के द्वारा। इसके विरुद्ध एक बिल्कुल नई लड़ाई की तैयारी की जानी चाहिए लेकिन सारी तैयारी अंहिंसक हो। अहिंसा हमारी ताकत बने। हिंसा भयानक कमजोरी है।

क्रूरता के विरुद्ध धैर्यपूर्वक लड़ी जा राही एक अहिंसक लड़ाई का एक उदाहरण देना चाहता हूँ। देवनार (मुंबई) में कसाईखाने के विरुद्ध तीस साल से आंदोलन चल रहा है। लोग आते हैं, धरना देते हैं, नारे लगाते हैं, गिरफ्तारी भी देते हैं और बाद में रिहा कर दिए जाते हैं। तीस साल से यह अभियान चल रहा है लेकिन कसाईखाना बंद नहीं हुआ। एक रास्ता यह भी हो सकता था, कि कुछ लोग जाते और कसाईखाना चलाने वाले की हत्या कर देते, कसाईखाने का बारूद से उड़ा देते। लेकिन क्या कसाईखाना बंद हो जाता? नहीं, वह चलता रहता। गाँधी और विनोबा जैसे चिंतन शांति और सद्भावना के साथ परिर्वतन की बात करते थे। विनोबा ने कहा था, कि अंहिंसक तरीके से अभियान चलाना,चाहे कितने ही साल लग जाए। कसाईघर के मालिक का दिल बदले। गो मांस खाने वालों में करुणा जगे। और यह दिल बदलने शताब्दियाँ भी लग सकती हैं। गाँधी की अहिंसा के सहारे चल कर एक दिन हम आजाद हुए ही। अँगरेजो को हमारे ‘करो या मरो’ के आगे झुकना ही पड़ा। हमारे लोग डंडे खाते थे और नमक बनाते थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन, सत्याग्रह जैसे जुमले गाँधीजी ने दिए। पूरी दुनिया उस रास्ते पर चल पड़ी ।

आज पूरी दुनिया में गाँधी जयंती ‘अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाई जाती है। और अरुंधती राय कहती है कि गाँधी के रास्ते से परिवर्तन नहीं हो सकता? कौन कहता है, नहीं हो सकता? इस राह पर चलने की कोशिश तो करो। हम पहले से ही यह सोच ले कि ऐसा नहीं हो सकता तो फिर वैसा हो भी नहीं सकता। कोशिश करें। बौद्धिक जागरण अभियान चलाएँ। यह भी ठीक है कि प्रक्रिया लंबी है। जैसा मैंने बताया तीस साल से आंदोलन चल रहा है, लेकिन कसाईखाना बंद नहीं हुआ, लेकिन कोई बड़ी बात नहीं, कि अगर कुछ लोग पूरे देश में आमरण अनशन पर बैठ जाएँ तो सरकार को झुकना ही होगा। लोग तय कर लें कि अब हमें गाय बचाने के लिए अपनी जान देनी ही है और बैठ जाएँ आमरण अनशन पर। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, सौ दिन..। जब तक जिंदा रह सकें, अनशन करे वरना मरने को तैयार रहें। एक दिन सरकार झुकेगी और बंद होगा कसाईखाना। गाँधीजी ने कितने उपवास किए, उसका असर होता था। अंगरेज सरकार झुकती थी। भगतसिंह और उनके साथियों ने भी जेल में यही किया। जेल में अनशन पर बैठ गए, सरकार झुकी। वैसे अब सरकारी नीचताएँ और ज्यादा सघन हो चुकी है। क्रूर लोग झुकते नहीं, लेकिन कहा गया है न कि पत्थर भी पिघल सकता है। यह व्यवस्थारूपी पत्थर पिघलेगा। हम अपनी जान देने के लिए तैयार तो रहें। लेकिन हम कायर लोग अपनी जान देने से डरते हैं और दूसरे की जान लेने के लिए तैयार रहते हैं। वो भी छिप कर। बस, साँप-छुछूमंदर का खेल चलने लगता है। नक्सली हिंसा करते हैं तो पुलिस और सैन्यबल उनको मारने की कोशिश करता है। इस चक्कर में भोले-भाले आदिवासी चपेट में आ जाते हैं।

दरअसल हिंसा इस दौर में एक एडवेंचर है। हिंसा करके बुद्धिजीवी समझते हैं, हम क्रांति कर रहे हैं। उनका समर्थन करके भी कुछ लोग यही समझते हैं कि हम सामाजिक परिवर्तन में अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। खादी का कुरता-पायजमा या जींस की फुलपैंट पहन कर आज के छद्म बुद्धिजीवी हवाईयात्राएँ करते हैं। पंचतारा होटलों मे रुकते हैं। वैभवशाली जीवन जीते हैं। तमाम तरह की चरित्रहीनताओं में लिप्त रहते हैं। महंगी शराब पीते हैं। अय्याशियाँ करते हैं। और वक्त मिला तो सामाजिक परिवर्तन का भाषण पेलते हैं। दुखद यह है कि पापुलर मीडिया (जनसंचार माध्यम) ऐसे ही लोगों के पास है। ‘आउटलुक’ पत्रिका में जब अरुंधति राय का नक्सलियों के साथ रहने वाली रपट छपी तो उसे और ज्यादा प्रचार मिला। अरुंधती को पता चला गया है कि उसकी कुछ तो मार्केट वेल्यू बन गई है। इसलिए वह डंके की चोट पर कहती है, कि उसे गिरफ्तार भी कर लिया जाए तो वह नक्सलियों का समर्थन बंद नहीं करेगी। और ठीक बात भी है। कल को अगर यह मूर्ख व्यवस्था उसका और अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए उसे गिरपफ्तार भी कर लेगी तो वही होगा जो अरुंधती चाहती है। वह और ज्यादा सुर्खियों में आ जाएगी। इसलिए कायदे से होना यह चाहिए कि उसकी बात तो सुनी जाए मगर उस पर कोई कानूनी कार्रवाई न हो। उल्टे जनता के बीच से ऐसे लोग सामने आएँ जो इस हिंसक मानसकिता का जवाब दे। हिंसक लोगों के खिलाफ अहिंसक तरीके से लड़ाई लड़ी जाए। वरना हिंसक और अहिंसक का भेद कैसे पता चलेगा? सरकार अरुंधती राय को गिरप्तार करेगी, जेल में ठूँस देगी या प्रताडि़त करेगी तो सरकार की अलोकतांत्रिक छवि ही उभर कर सामने आएगी। तब पूरी दुनिया में उसकी निंदा होगी।

हमारे देश में लोकतंत्र है। तानाशाही नहीं, कि किसी ने सरकार विरोधी बात की तो उसे अंदर कर दिया गया। कभी-कभी मूर्ख सरकारों द्वारा ऐसी हरकतें करने की कोशिशें भी होती है, तब दुख होता है। लोकतंत्र में खुल कर अपनी बात कहने की आजादी होनी चाहिए। तभी तो लोकतंत्र है। उसकी गरिमा है। लेकिन अगर कोई हिंसा की खुलेआम वकालत करता है तो जनता के बीच से आवाज उठे। दुख की बात है कि आवाजें उठती नहीं। हम लोगों के हाथों में जब से टीवी का रिमोट आ गया है, हम चैनल-बदल-बदल कर अपना समय निकाल देते हैं। ऐसी अराजक ताकतों के विरुद्ध गोष्ठियाँ नहीं करते। उनकी निंदा नहीं करते। इनका तरीके से जवाब नहीं दे पाते। देंगे भी तो हिंसक अंदाज में। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको है। अगर एक कहता है हम हिंसा के साथ है, तो दूसरा भी विनम्रता के साथ कहें कि हम अहिंसा के गायक हैं। अरुंधति के जो विचार सामने आए हैं, उससे साफ हो जाता है कि वे इस देश में हिंसक माहौल बनाना चाहती है लेकिन सरकार और समाज उनकी मंशा पूरी न होने दे। नक्सलियों के विरुद्ध सलवाजुडूम चल ही रहा है। इसे और मजबूत करने की जरूरत है। बस्तर और देश भर में नक्सलवाद के विरुद्ध जनजागरण अभियान चलना चाहिए। हिंसाप्रेमी लोगों को यह बात समझ में आनी चाहिए कि इस देश के लोग हिंसा के पक्षधर नहीं है। यह कोई बर्बरकाल नहीं है कि किसी ने अन्याय किया तो उसकी आँख फोड़ दी, हाथ काट दिया। यह लोकतांत्रिक समय है। यहाँ जो कुछ होगा, शांति के रास्ते पर चल की रही होगा। बस, धीरज की जरूरत है। नि:संदेह भ्रष्टतंत्र में जीते हुए मेरे जैसे गाँधीवादी को भी बेहद तकलीफ होती है। मेरे आसपास अनेक पापियों को फलते-फूलते देखता हूँ, उन नेताओ और घटिया-शातिर अफसरों को भी जानता हूँ, जिनकी जगह केवल जेल हैं। वे बड़े अपराधी है लेकिन हम लोग अहिंसा के सहारे क्रांति करने वाले हैं। समय लगेगा। व्यवस्था बदलेगी। हो सकता है हम लोग मर जाएँ फिर भी यह व्यवस्था बनी रहे। फिर भी आवाजें उठती रहे। आज नहीं को कल बेहतर लोग आएंगे। बेहतर दुनिया बनेगी। शातिर अपनी मौत मरेंगे। उनकी जान लेकर हम उनसे बड़े अपराधी बन जाते हैं। अगर नक्सलियों के संबंध में कहूँ, तो वे जान ले रहे हैं, तो सामाजिक परिवर्तन के लिए नहीं ले रहे। उनका उद्देश्य केवल सनसनी फैलाना है। यहाँ विचारधारा बेमानी है। इसलिए जब अरुंधति नक्सली-हिंसा का समर्थन करती है तो चिंता होती है। कहीं देश के अन्य बुद्धिजीवी भी पागल हिंसक सियार की तरह (हिंसा का) हुआ-हुआ न करने लगे इसलिए जरूरी है कि ऐसी अराजकताओं के विरुद्ध अहिंसक व्यवस्था को एकजुटता प्रदर्शित करनी ही पड़ेगी।

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  1. “हंस” मई ,2013 में एक आलेख है -“नक्सलवाद से निपटने का रास्ता है न्याय “कृपया पढ़ लें.

  2. आर के सिंह जी ये ना भूलें की बड़े नाम के होने से सारे काम बड़े नहीं हो जाते || अरुंधती राय जिस दिन आतंकवादियों असली चेहरे को जान जायेंगी उस दिन उनकी लेखनी कुछ और हीं बोलने लगेगी ||

  3. क्या है नक्सलवाद ?

    नक्सलवाद
    नासमझों की नादानी
    जो करते हैं अपनी मनमानी
    जिससे बदल रही है भारत की अपनी कहानी
    जिसपर उन्हें एक दिन पछताना होगा ||

    नक्सलवाद
    सभ्य समाज पर एक करारा ब्यंग
    जो बना रहा है हमें और आपको कटी पतंग
    बेगाने बनते जा रहे हैं अपने ही अंग
    उन्हें अपना बनाना होगा ||

    नक्सलवाद
    बन्दुक के बल पर देती है प्रभुताई
    बिना परिश्रम के करवाती है कमाई
    बन बैठे हैं अपने हीं घर में कितने बलवाई
    उन्हें कैसे भी हो फिर से समझाना होगा ||

    नक्सलवाद
    पूरब से आई एक आंधी जिसने
    हिंसा से अपनी समा बाँधी
    भूल गए जो गौतम और गांधी
    आज उन्हें फिर से याद दिलाना होगा ||

  4. नक्सलवाद का समर्थन एक तरह से देश के साथ धोखा है . झारखण्ड के उन गाँव में अरुंधती जी को जाकर देखना चाहिए जहाँ नक्षलवादियों ने आवा गमन के साधनों को बंद करा रखा है और तो और हर motorcycle चलने वाले को 5000 रुपये , बड़ी गाडी वाले को गाडी के साइज़ के अनुसार पैसा भरना पड़ता है एक पारा टीचर जो 4500 रुपये महीना पाता है उससे भी सालाना 5000 रुपये नक्सलवादी वसूलते हैं . आज झारखण्ड के गाँव में बीमार पड़ना भी एक अपराध है जिसकी सजा मौत से कम नहीं . नक्सलवाद के समर्थकों से किसी प्रकार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनकी आत्मा मरी नहीं वो तो थी हीं नहीं .

  5. girish ji.
    aap mafi na mange e aapka baddpan hain.kaya aapko ajib nahi lagta ki arundhi ke us bayan ke bzd,aayojko ke khandan aur arundhiti ke is babat bayan dene ke babjud bhi chhattisgarh ke kisi bhi akhbar ne nahi chapa.yaha tak ki us paper ne bhi nahi jo lagatar aise manvadhikar vadi aur shanti ke liye kam karne walo le khilaf abhiyan me laga hain.me akhbaro ko gambhirta se padhta hun.aisa kiyo hota he ki jab arundhiti ya aise hi samajik sarokar rakhne walo ke khilaf likhna hota hain to sab ke sab buri tarh likhne lagte hain,aur jab ve galat sidhh hote hain to un samacharo ko chapne laik bhi nahi mante.
    itne dino bad aaj bahskar me arundhiti ka spstikaran chapa hain aur raviwar.com ne samachar chapa tha.
    aske pahle bhi ruchir garg.sanjai shekhar.alok putul in jagho par jakar prshnshapurn bhav se likhte rahe hain.fir arundhiti se hi itni naraji kiyo.

  6. girishji namskar, me aapke lekh se purntya sehmat hu. isa lekhika ka dimad china maid he, ise china ki rajniti kare tab ise aate dal ka bhaw pata chalega. iske parijano ko train bethaya jaye arunidhiti ko kaha jaye chal khud blast kar train me………

  7. rashtriya chintan me kisi bhi sashastra vidroh ke liye koi isthan nahi hai.masumo ko marne ke baad kisibhi kranti ki baat karna beimani lagta hai

  8. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अरुंधति ने उस सभा में ऐसा कुछ नहीं कहा. मेरा लेख उस कथित बयान के बाद ज़रूर लिखा गया लेकिन यह लेख मुझे बहुत पहले लिखना था. क्योंकि अरुंधति राय शुरू से ही नक्सलियों को महिमामंडित करती रही है. पिछले महीने ”आउटलुक” में उन्होंने नक्सलियों के बारे मे जो लेख लिखा है, उसे ज़रा देख ले. ध्यान से पढ़े..पढ़ कर ऐसा लगता है कि नक्सली जंगल में रहकर कोई बहुत बड़ी सामाजिक लड़ाई लड़ रहे है. ऐसे लोगो को महिमामंडित करना ही गलत है. नक्सलियों से साक्षात्कार लिया जा सकता है. सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन उनसे मिलने जाना और उनके जैसे ही कपडे पहन कर जाना क्या दर्शाता है, कि वो भी उसी रंग में रंगी हुई है.खैर, यह विचारो एवं बहस का अंतहीन सिलसिला ही है. मै कुछ कहूंगा, और दूसरे कुछ और तर्क देंगे. माफी किस बात की? मेरा लेख अरुंधती राय की ”सोच” के खिलाफ है, उस ”बयान” के खिलाफ नहीं. इसलिए लेख अब भी सामायिक है.

  9. girish ji nishchit rup se apko vasvikta ki jankari nahi hai nhi to ap istarah ka lekh nahi likhte press trust ne galat tarike se Arndhuti ke kahe ki reporting ki usi din ke times of india aue the hindu ne vastvik report prakasit ki hai.Arundhati ne kabhi nahi kaha ki mai naxsl hinsa ka samrthan karti hu ya karti rahugi ap kripya in do akhbaro ko dekhne ke bad hi tipadi kare to behtar hoga.

  10. Girish ji,
    jaisa ki abhi khabar hain ki arundhu ki sabha ke aayojko ne bayan dekar kaha hain ki unhone aisa kuch bhi nahi kaha .pti ns purk tarh farji rwport di hain.arundhti ne ye nahi kaha ki ve naxli sanghrsh kasamrthan karti hain.chahe unhe jail bhi bhej diya jaye.
    ab aapke lekh me lagaye gaye aaropo ke liye mafi mangenge ya apni cat par kayam rahenge,aap sahitya ke aadmi hain ,kam se kam aapko ek bar sandeh ks lsbh arundhti ko dena hi chahiye tha.lekin aap to vishranjan ji ki bhasha bol rshe hain,ve bhi bhasha me shalinta banaye rakhte hain.agar yah sahi he ki arundhti ne yesa kuch nahi kaha hain to aapko jrur sarvjankk rup se mafi mangna chahiye hi.vese aapki marji.

  11. गिरीश जी, हम आपसे सहमत हैं, हिंसा का समर्थन कहीं से भी नहीं होना चाहिए, चाहे वह किसी के भी द्वारा हो। भारत को आज विकास के लिए शांति की आवश्यक्ता है। प्राप्त राजस्व की अधिकतम राशि आंतरिक सुरक्षा में ही खर्च हो जाती है, अगर शांति रहे तो यह राशि अन्य विकास की योजनाओं में व्यय हो सकती है।
    गांधी वादी तरीके से रास्ता अवश्य निकलता है, लेकिन धैर्य की आवश्यक्ता है। अरुंधती राय का इस तरह खुले आम हिंसा को समर्थन करना ठीक नहीं है। बुद्धिजीवी को ठंडे दिमाग से काम लेना चाहिए।

  12. अरुंधती और ऐसी व्यक्तिओ को कौन पैसा देता है वह जानकारी निकलके लोगों के सामने लाना पड़ेगा.

  13. bahut achchha likha sir ji.atangavdiyo ko samrthan dene valo ke khopadi me bhi ek goli utar deni chahiye,yaha ray ko samrthan dene vale jara amar nath andolan ke samay me usake dvra ki gae tippaniya padhe jo usane kashmir me ki thi,usake liye “bharatiy satta” ne jangal par kabjja kiya huva he,kashmir par kabjja kiya huva he bharat par kabjja kiya huva he,ese do kodi ki lekhikha ko pashchim ke log hi sar par chadate he,bharat me gaddaro ko lekhak or lekhika kab se kaha jane laga he???

  14. देश आज विकास के राह चल पड़ी है ! नाक्सालिसिम आपना हक़ का लड़ाई, यह हम मानतें हैं , लेकिन हक़ केलिए हिंशा किसी भी सभ्य समाज को कभी भी बर्दास्त नहीं है , ओडिशा में माओबाद पीछेड इलाकों को और भी पीछे ले गया है जिससे गरीब आदिवासिओं के विकास का कम रूक गया है , जिनलोगों के लिए माओवादी काम करने के बारें में जोर जोर से चीख पूकार लगाराखें है उनके ही पैरों पर कुल्हड़ मार रहें है. पुलिस इन्फोर्मेर के नाम यहाँ सरेआम कतल हो रहा है . अरुंधती जी एक बड़े लेखक हैं , सामाजिक सुधार के दिसा में उन्होंने काफी कुछ लिखें हैं , उनके कलम में आम आदमी की दुख दर्द बखूबी उकेरी है , लेकिन नक्सल के नाम आतंक को उनके लेख बढ़ाबा देनेकेबरें में सिकायत गलत है यह नहीं की इस छद्म आतंक को हम समर्थन कर रहे हैं लेकिन हम लोगों के हर काम सुधार की दिशा में होना चाहिए बस में इतना कहूँगा

  15. मै भी इस व्यवस्था से नाखुश हूँ. लेकिन मै कभी किसी की ह्त्या नहीं कर सकता. (आत्महत्या भी नहीं करना चाहूँगा) मै सविनय अवज्ञा आन्दोलन, धरना-प्रदर्शन, आमरण अनशन के रस्ते पर ही चलूँगा. भले हो कितने साल लग जाये. कोई मुझे लाख उकसाए, के तुम कायर हो, या गोली मार का बहादुरी दिखाओ, तो माफ़ करे, मै यह बहादुरी नहीं दिखा सकता. जो दिखा सकते है, या दिख रहे है, वे अपना काम करते रहे. छिप-छिप कर वार तो कर ही रहे है, भविष्य में भी करते रहे. लेकिन मेरा अपना वैचारिक पथ है, जिस पर चलता रहूँगा. गाँधी-विनोबा-लोहिया ही मेरे आदर्श है. लोग लाख गली दे. निंदा करे,लेकिन मै अहिंसक ही रहूँगा. एक ने कहा,कि ”आप कहा अरुंधति राय ?” और ”आप सात जनम भी ले लें तो अरुंधती राय नहीं बना सकते” आदि-आदि. भाई, मै जो हूँ, जितना हूँ, उससे संतुष्ट हूँ. इस जन्म को ही ठीक से जी ले. बहुत है.अपनी ख्वाहिश भी नहीं के मै अरुंधति बनू. मै जो हूँ,वही ठीक हूँ. मै व्यवस्था के विरोध मे भी निरंतर लिखता रहता हूँ. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मै कहू-सबको गोली से उड़ा दो. हिंसा के पक्ष में खड़े लोग इस बात काज़वाब क्यों नहीं देते की बस्तर में ३-३ साल के बच्चों को मार डालना कहाँ की वैचारिक लड़ाइ है? अगर यह भी जायज़ है तो फिर ठीक है, लड़ते रहो लड़ाई. बहाते रहो खून सबका. लेकिन मै व्यवस्था की निंदा करने के बाद भी यही कहूँगा,कि हिंसा नहीं होनी चाहिए. अब अनुज पंकज झा की बात. उनका कहना है कि मैं अरुंधति राय पर कारवाई न करने की बात कही, इसके पीछे कारण सिर्फ यही है कि ऐसा करके हम उसे और पापुलर ही करेंगे. उनके लोगो को उकसायेंगे और देश का माहौल फिर खराब होगा. हिंसा फैलेगी.वैसे बहुत अती हो जाये तो कानून अपना काम करे. किसी को भी हिंसा का समर्थन नहीं करना चाहिए. लेकिन मै देख रहा हूँ, कि लोग अब हिंसा के पक्षधर होते जा रहे है. अब लोग गो मान खाते है, और उसके पक्ष में तर्क भी देते है. ऐसे लोगो को अब क्या कहे. यह समाज अपने ही लोगो के हाथो मारा जाता है.

  16. आपने अपनी बात विरोधाभाषी तार्किक तरीके से प्रस्तुत करके अनेक लोगों की प्रतिक्रियाएँ लूटी हैं, लेकिन आप स्वयं ही सरकार और प्रशासन से पूरी तरह से निराश एवं हताश नजर आ रहे हैं। आज आप गाँधी की बात कर रहे हैं, जबकि गाँधी न तो तब प्रासंगिक एवं सर्व स्वीकार्य था, जब वह पैदा हुआ (अन्यथा उसकी हत्या क्यों की जाती?) और न हीं आज! ऐसे में आज के समय में आप ही के शब्दों में जब अफसर एवं सरकार भ्रष्ट और पथभ्रष्ट हैं, क्या आप आशा कर सकते हैं कि आम लोगों की साधारण भाषा में कही गयी बात सरकार और भ्रष्ट अफसर समझ पायेंगे? आप एक कसाईखाने को हटाने के लिये सारे देश के लोगों के आन्दोलन करने की बात कह रहे हैं जो हास्यास्पद है!

    मैं हिंसा का बिलकुल भी पक्षधर नहीं हँू, इसलिऐ ऐसे किसी भी व्यक्ति का पक्षधर नहीं हो सकता जो हिंसा में विश्वास रखता हो। परन्तु, यह परन्तु बहुत बडा है! हमारे देश का कानून कहता है कि यदि कोई आपकी हत्या करना चाहे तो आप अपने बचाव में हमलावर की हत्या भी कर सकते हैं। कानून की नजर में इसे राइट टू प्राईवेट डिफेंस कहा गया है। इस बारे में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि लोगों को कायर बने रहने की जरूरत नहीं है और नियम एवं कानून से चलने वालों पर हिंसा करने वालों के विरुद्ध हिंसा जायज है।

    गिरीश जी एक व्यक्ति अपने जीवन को बचाने के लिये एक हमलावर की हत्या कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति या कोई व्यवस्था पूरे गाँव की या पूरी नस्ल की हत्या करना चाहे तो ऐसी कौम या ऐसे गाँव वालों या आदिवासियों को अपने बचाव में हमलावर पर हमला करना चाहिये या नहीं, इस बारे में विचारों में भिन्नता हो सकती है, लेकिन कानून साफ कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को राईट टू प्राईवेट डिफेंस प्राप्त है।

    मुझे यह तो ज्ञात नहीं कि आपने आदविासी क्षेत्रों का कभी दौरा किया है या नहीं, लेकिन आपकी लेखनी में दर्द अवश्य प्रतिबिम्बित होता है। इसलिये मैं ऐसा उदाहरण देना चाहता हँू जिसे हर आम और खास पाठक समझ सके। भूख से मर रहे लोगों को जीवित रखने के लिये सरकार न्यूनतम दर पर राशन की विक्री करती है और राशन डीलर, राशन की कालाबाजारी करके राशन के हकदार परिवारों को भूखों मार देना चाहता है। भूख से बिलबिलाते परिवार के लोगों द्वारा ऐसे राशन डीलर की हत्या कर देना क्यों हिंसा है?

    दुर्घटना में घायल या हार्ट अटैक आने पर लोग पीडित को अस्पताल में भर्ती करवाते हैं, रोगी को दी जाने वाली जीवन रक्षक दवाई नकली होने के कारण रोगी असमय काल के गाल में समा जाता है। ऐसे में नकली दवा निर्माता एवं विक्रेता की हत्या करना क्यों हिंसा है?

    एक रेल संरक्षा अधिकारी का दायित्व है कि वह रात्री के समय अपनी पहचान छिपाकर रेल में यात्रा करके देखे कि रेल की संरक्षा के लिये क्या-क्या खतरा है? बजाय ऐसा करने के रेल संरक्षा अधिकारी अपने किसी मातहत से कह दे कि जाओ देख कर आओ और उसके आधार पर स्वयं घर बैठे ही रिपोर्ट बनाकर कागजी खानापूर्ति करता रहे। जिसके चलते रेल दुर्घटना हो जाये और सैकडों निर्दोष यात्री मारे जायें, ऐसे में ऐसे रेल अधिकारी की हत्या करना क्यों हिंसा है?

    चपरासी से लेकर कलेक्टर तक सबके सब को वेतन दिया जाता है, जनता की सेवा करने के लिये, इसलिये इन सबको लोक सेवक (जनताके नौकर) कहा जाता है, लेकिन जनता के नौकर के रूप में काम नहीं करके ये सब जनता को अपमानित करने और जनता को लूटने के साथ-साथ टाटा, बिडला, अम्बानी और विदेशी कम्पनियों के मुनाफे के लिये काम करने लगें, जिससे एक नहीं लाखों परिवार और पूरी की पूरी कौमों की अनेकों पीडियाँ बर्बाद और नष्ट हो रही हैं। ऐसे में इन लोक सेवकों की हत्या करना क्यों हिंसा है?

    उपरोक्त के बावजूद आपका कहना है कि मरते रहो, कुछ पीढियाँ मर जायें तो क्या फर्क पडेगा गाँधी का रास्ता ही सही है। अन्याय के खिलाफ पीढी दर पीढी संघर्ष करते रहो। श्री गिरीश जी क्या आप जानते हैं कि मोहनदास कर्मचन्द गाँधी नाकम व्यक्ति केवल अंग्रेजों के खिलाफ ही अनशन नहीं किया करता था, बल्कि आजादी से पूर्व इस दुराग्रही गाँधी ने आदिवासियों के हकों को छीनने के लिये भी अनशन किया था और सैपरेट इलेक्ट्रोल का हक छीन लिया। जो यदि रहा होता तो आज आदिवासी के हक को छीनने की किसी में हिम्मत नहीं होती! आज उसी गाँधी के अनशन के रास्ते को अपनाने की सलाह आप उन्हीं आदिवासियों के वंशजों को दे रहे हैं।

    इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि हिंसा का समर्थन नहीं करना चाहिये, शान्ति से काम लेना चाहिये, परन्तु यह बात तब तक ही है, जबकि कोई शान्ति की भाषा को समझता हो। आप स्वयं लिखते हैं कि दो दशक से एक कसाईखाना बन्द नहीं हो पाया है। ऐसे आन्दोलनकारी आन्दालनों की शक्ति को समाप्त कर रहे हैं। सच तो यह है कि गाँधी ने इस देश के लोगों को नपुंसक बना दिया।

    राजस्थान में गुर्जरों ने दिखा दिया कि भ्रष्ट एवं निकम्मी सरकार से अपनी बात किस प्रकार मनमवाई जाती है, जबकि एक दर्जन से भी अधिक अन्य जातियाँ राज्य में गुर्जरों से भी बदतर हालातों में जी रही हैं, लेकिन उनकी संख्यात्मक ताकत बहुत कम है। ये जातियाँ दशकों से शान्तिपूर्वक अपनी बात सरकारों के समक्ष प्रस्तुत करती रही हैं, क्या इनके साथ सारे देश के लोग न्याय दिलाने हेतु आन्दोलन करेंगे? लेकिन इनकी कोई सुनने वाला नहीं है, जबकि इनकी तुलना में गुर्जरों की मांग कम न्यायसंगत होते हुए भी सरकार गुर्जरों के समक्ष सरकार नतमस्तक है?

    गिरीश जी कुछ बातें लिखने में सुन्दर लग सकती हैं, जबकि हकीकत में उनको समझना और फिर उन पर लिखना ही सफल लेखन है। ऐसा नहीं है कि केवल सरकार या प्रशासन ही भ्रष्ट या निकम्मा है, बल्कि न्यायपालिका में भी मनमानी एवं भ्रष्टाचार है। आप जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट कर्मचारियों द्वारा की जाने वाली हडताल को असंवैधानिक करार दे चुका है, जिसके चलते आज हडताल करना सम्भव नहीं है। इसी के चलते पिछले दिनों एयर इण्डिया में अनेक कर्मचारी नेता बर्खास्त किये जा चुके हैं, जबकि अजा, अजजा एवं अपिव को उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिये जाने के सरकारी निर्णय के विरुद्ध डॉक्टरों द्वारा की गयी हडताल को न मात्र सुप्रीम कोर्ट ने जायज ठहराया, बल्कि उन्हें हडताल की अवधि का वेतन भी दिलवाया। आप सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को क्या कहेंगे?

    गिरीश जी आप बहुत अच्छा लिखते हैं, लेकिन लगता है कि आप पर गाँधी का जरूरत से ज्यादा प्रभाव है, आपसे आग्रह है कि गाँधी को समालोचनात्मक दृष्टिकोंण से समझने का प्रयास करें। गाँधी ने जो अनशन किये थे, कृपया उनके पीछे की सच्चाई को भी समझें। आपने गाँधी के साथ भगत सिंह का उल्लेख तो किया है, लेकिन साथ में यह भी याद रखना चाहिये कि भगत सिंह गाँधी के लिये अप्रिय था, केवल इसी कारण ही भगत सिंह को युवावस्था में फांसी पर लटकना पडा। क्या भगत सिंह को फांसी पर लटकने देने में तटस्थ (कुछ लेखकों की राय में सहयोगी) रहे व्यक्ति (गाँधी) को अहिंसक कहना अहिंसा शब्द का अपमान नहीं है?

    जहाँ तक अरुंधति राय का सवाल है, मैंने उनका लेख तो नहीं पढा, लेकिन यह सत्य है कि वह एक बहादुर लेखिका है। आज के नपुंसक आन्दोलनकारियों के बीच पौरुषता का अलख जगाने वाली और मनमानी तथा भ्रष्ट व्यवस्था का साहस के साथ विरोध करने वाली अरुन्धति को प्रचार पाने की लालसा कहने वाली कह कर आप हल्की भाषा का इस्तेमाल नहीं करें, इससे आपका सम्मान गिरता है। मैं नक्सलवाद का कतई भी समर्थक नहीं हँू, लेकिन जो कुछ आदिवासियों के साथ हो रहा है, उसका यह देश क्यों समर्थन कर रहा है? इसका जवाब भी तो आपको देना चाहिये। हजारों नहीं, लाखों नहीं, बल्कि करोडों आदिवासियों को सरकार प्रतिदिन मर-मर कर जीने को विवश किये हुए है। आज तक आजादी के बाद किसी ने आदिवासी की कराह को सुनने का प्रयास किया है? नहीं कभी नहीं? अन्य लोगों की बात तो छोडो दलित लोगों ने भी आदिवासी का जमकर शोषण किया है! शुभकामनाओं सहित।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश, सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है। इस संगठन ने आज तक किसी गैर-सदस्य, या सरकार या अन्य बाहरी किसी भी व्यक्ति से एक पैसा भी अनुदान ग्रहण नहीं किया है। इसमें वर्तमान में ४३०९ आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। फोन : ०१४१-२२२२२२५ (सायं : ७ से ८) मो. ०९८२८५-०२६६६
    =====================================

  17. इस बार कुछ नए सवालों के साथ दुबारा उपस्थित हूं आ गिरीश जी. आपके अनुसार भी गांधवादी मार्ग ही श्रेयष्कर है लेकिन कृपया यह बताए कि क्या, सड़क छाप उचक्कों, जेबकतरों, छुरेबाजों के साथ भी यही मानदंड अपनाया जा सकता हैं? सड़क पर उनकी जुलुस हमारी ही पुलिस द्वारा नहीं निकली जाती? आखिर दंड व्यवस्था का भी कोई तकाजा है या नहीं. अगर छोटे-छोटे, छिलटे से अपराध करने वालों को भारतीय दंड संहिता के पन्ने दिखाए जाते हैं तो करोड़ों लोगों को हिंसा के लिए उकसाने वाली के लिए गाँधी के किताबों के पन्ने क्यों? खास कर तब जब घोषित तौर पर सरे-आम इसने कहा हो कि गान्धीवीदी तरीके से अब समाधान संभव नहीं है. अगर दंड व्यवस्था ‘लोकतंत्र’ का भी एक ज़रूरी अंग है तो अरुंधती को क्यूं इससे छूट दे दी जाय? क्या उसका अपराध आप जेबकतरों से भी कम आंक रहे हैं? अपना नकली चेहरा हटा कर बिलकुल हिन्दी फिल्मों के खलनायिका की तरह अपनी औकात पर आ जाने वाली ‘राय’ के लिए दोहरे मानदंड क्यूं? इस पर आपके राय की अपेक्षा है….धन्यवाद.

  18. Arundhati ek pratishthit lekhika hain. Ve nirbhik hain..unke vichar se ham asahmat ho sakte hain yah bat alag hai..
    Gandhivadi vichardhara se naxal samsya ka jabab nahee hai..
    Hathiar ka jababw hathiar se hi hoga..
    Vanvasiyon ke vikas ke liye prayatn jarur hona chahiye.

  19. rk singh satya bol rahe hai ek jo naxali aatankvaad ke virodh me likh raha hai aur dusari naxali aatankvaadi hinsa ko samarthan de rahi hai. durbhagya desh ka hai deshdrohi ko saja dene ke badale use vaah vaahi di ja rahi hai. kahi isame sahayog media kar raha hai to kahin sarkar me baithi congress ke varishth neta de rahe hai. naam kisi se chhupa nahin hai.
    PREM CHAND SAHAJWALA ne jo tathya kashmir ke aatankvaadiyo aur naxalvaadiyo ke paksh mein diye hai Kya vah batayenge KASHMIRI PANDITO ka us chunavi rigging se kiya matalab tha jiski saja ve apane hi desh mein sharnarthi ke roop mein bhugat rahe hai. yeh sach hai vanvaasi chhetro mein jitana vikas hona chahiye tha utana nahin hua isake liye NETA aur PRASHASHNIK ADHIKARI doshi hai unhe majboor karke vikas karvaate to achchha hota lekin nihato ki hatya kahan tak jaayaj hai. 1600 crore ugahane vaale naxalvaadi is paise me se kuchh paisa kisi jile ke vikas par lagakar NETA aur PRASHASHNIK ADHIKARI ko disha dete to shayad kuchh achchha hota.

  20. Hame deshvirodhi aur vidhvansank tatvon ko bahar se lane ki awashyakta hi kya hai jab ve log yahan is lekh par tippani dene aur arundhti jaisi deshtodak aur desh nashak nari ke bhesh main dushman desh ki jasoos ke kukartyon ko srahne ke liye yahin mojood hain.

    Aise sab logon ko Bharat rashtar ke dushman ghoshit karke chorahon par fansi lgani chahiye taki fir koi apne hi desh ke virudh khda hone ki himakat na kar sake. Main lekhak ke vicharon ke poori tarah se samrathak hoon aur anurodh karta hoon ki kde dhang se samne aayain aur apne vicharon ko aur adhik khulepan se likhain. lekhni samjhota prast nahi chahiye.

  21. बच्चा जब पहली बार गलत रास्ते में जाये तो उसे समझाया जाता है दोबारा जाये तो ड़ाटा जाता है और जब उसकी आदत बन जाये तो उसे……..ठीक समझे ……यह दुर्भाग्य है कि अरूंधती राय इसी देश में रहती है……यह बह बिगडी औलाद है जिसे बातों या समझाने से नहीं बल्कि नाता तोड लेने में ही भलाई है

  22. गिरीश जी, लगता है रास्ते से भटक गए हैं. बातें वही दोहरा रहे हैं जिन्हें नाक्साली कहते हैं. यह व्यवस्था भ्रष्ट है, नेता चोर हैं, अफसर घूसखोर हैं. फिर जिस व्यवस्था को बदलने की बात नाक्साली कर रहे हैं, गिरीश जी उसी के समर्थन में खड़े हैं. जहाँ तक गांधीवाद का सवाल है, तो मजेदार बात यह है की गांधी के हत्यारे वैचारिक गिरोह के लोग अब गाँधी के भक्त हो गए हैं. चलो देर से सही गांधी की ताकत को पहचाना तो सही. दूसरा हमारे साथी पंकज झा जी से कहना है की साहित्य अकादमी का सदस्य होना साहित्यकार होने का पैमाना नहीं होता. गिरीश पंकज को अभी अरुंधती के समकक्ष होने में सत्तर जन्म लगेंगे. हाँ विचार की लडाई है वोह किसी के भी अलग हो सकते हैं. अब पतन और उत्थान का प्रमाणपत्र गिरीश जी बाँट रहे हैं तो बांटते रहे, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.

  23. सरकारों की कोताही के चलते पीड़ितों को कत्ले आम का अधिकार नहीं मिल जाता….इन स्वयंभू बुद्धिजीवियों को समझ आना चाहिये. लेकिन इनके लिए यह सब गाल बजाने से ज़्यादा शायद कुछ नहीं है

  24. मेरे लेख पर एक-दो नकारात्मक टिप्पणियाँ आयी हैं,ज़्यादातर सकारात्मक है. हौसला बढ़ाने वाली है. यही संतोष की बात है. क्योंकि अधिकांश लोग हिंसा के विरुद्ध है, यह क्या कम है? और जो लोग गालियाँ दे रहे है, उनके लिए क्या कहा जाये. मै उन लोगो जैसा महान नहीं, कि उनकी ‘ऊंचाई’ प्राप्त करके उनकी ‘भाषा’ में व्यवहार करू. अभद्र भाषा भी हिंसा है. और हिंसा के समर्थक अगर ऐसी भाषा बोल रहे है तो वे गलत कहाँ है? वे तो अपना काम ही कर रहे है?

  25. अरुंधती जी चर्चा के योग्य नहीं, सजा के योग्य हैं जो की आनेवाले वक़्त में देश भक्त समाज उन्हें देगा.
    आज प्रश्न और चर्चा उन नक्सल वादी बनने पर मजबूर लोगों पर करने की है जिनकी ज़मीन,खेत-खलिहान छीन कर भीमकाय कंपनियों को सरकार सोंप रही है. विदेशी वामपंथी ताकतें मौके का फ़ायदा उठाने से क्यों चुकेंगी पर इतना याद रखें की नक्सलवादी मरे या हमारा सैनिक, मरता कोई अपना भारतीय ही है.किस किस को मरोगे. भाषा, जाती, संप्रदाय, राजनीती,प्रांतवाद के नाम पर हमें टुकडो में बांटने की जो साजिश चल रही है, उसको समझकर रोकने के उपाय किये बिना निस्तार संभव नहीं. देश के दुश्मन बड़ी चालाकी से हमारे हाथों का इस्तेमाल हम ही को समाप्त करने केलिए कर रहे हैं.,इसे समझना ही पडेगा. उस दुश्मन को पहचानकर समाप्त नहीं करेंगे तो समस्या का हल संभव नहीं.

  26. अरुंधति राय एक विचारधारा की प्रतिनिधि हैं, जो भारत विरोधी है। हर वह विचार या कार्य को जो देशघाती हो उसे ऐसे लोगों का हमेशा समर्थन मिलेगा। यह उनके स्वभाव में है या बिकाऊपन के कारण है यह जरूर शोध का विषय है

    • प्रेमचंद जी , नक्सलवाद से हमदर्दी रखने वालों को प्रभावित क्षेत्र में जा कर कुछ समय अवस्य बिताना चाहिए ताकि असलियत का पता लग सके | राजधानी में बैठ कर जमीनी हकीकत का अहसास भी संभव नहीं | गिरीश जी के बात में दम है | अरुंधती जी को आतंकवादियों के साथ साथ आम आदमी की भी सुध लेनी चाहिए क्योंकि मानवाधिकार केवल मारने वालों के लिए हिन् नहीं मरनेवालों के लिए भी बना है |

  27. लेखक श्री गिरीश पंकज शायद अरुंधती रॉय को व नक्सली समस्या दोनों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने में बुरी तरह चूक गए है. उनके विचारों में काफी कुछ विरोधाभास भी हैं. वे कहते हैं कि नक्सली हिंसा को उन जैसे गाँधी वादी अहिंसा द्वारा ही सुलझा सकते हैं तथा अहिंसा के गुण गाते हुए यह भी कह रहे हैं कि पूरा विश्व गाँधी जन्म-दिवस को अहिंसा दिवस के रूप में मनाता है. अरुंधती भी कमो-बेश यही कह रही है कि जिन गरीब लोगों के पास साधारण हथियार हैं उन के खिलाफ सुपर-पावर माना जाने वाली भारत सरकार उच्च-कोटि के जटिल से हथियार इस्तेमाल कर रही है और हवाई हमलों तक का सोच रही है. अब तो सेना तो सीधी और प्रत्यक्ष भूमिका भी देना चाहती है सरकार. अरुंधती के अनुसार इन बेहद गरीब लोगों की ज़मीनें छीन छीन कर उन ज़मीनों को टाटा या एस्सार जैसी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है. जिन पहाड़ियों को ये गरीब अशिक्षित लोग देवता की तरह पूजते हैं उन पहाड़ों को खोद कर विदेशी अरब-पति कंपनियों की भेंट चढ़ाया जा रहा है. उस पर तुर्रा यह कि देश की नई और प्रगतिशील नीतियों के तहत यह ज़रूरी है कि ये ज़मीनें उन से छीनी जाएँ. अपने अधिकार के लिए हथियार उठाने वाले इन आदिवासियों के बारे में यह ज़रूर सच माना जा सकता है कि उन का शोषण कर के अपने मूल रास्ते से भटकाने वाली ताकतें भी हैं. कोई भी आन्दोलन अपने जन्म के समय बेहद पवित्र होता है पर बाद में अनेक प्रकार के शोषक उस आन्दोलन को अपने आपराधिक स्वार्थों के तहत हत्यारों में ही परिवर्तित कर देता है. जैसे एक दिन दूरदर्शन पर दिखाया जा रहा था कि इन माओवादियों के संबंध लश्करे तायबा से भी होने की संभावना है. इस प्रकार के जितने भी आंदोलन विश्व में हुए वे अपने जन्म के कुछ ही समय बाद पैसे की मोहताजी के कारण भी स्वयं भ्रष्ट रास्तों पर चल पड़े. कश्मीर में आतंकवाद तब शुरू हुआ जब सन् 88-89 के असेम्ब्ली चुनावों में ज़बरदस्त Rigging हुई. Rigging के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले यासीन मालिक व अफज़ल गुरु जैसे नौजवानों को जेलों में ठूंस दिया गया. कुछ नौजवानों को तो बेहद यातनाएं दी गई. जैसे एक नौजवान के शरीर में लगातार सुलगती हुई सिगरेट लगा लगा कर पूछा गया कि क्या तुम्हारे संबंध पाकिस्तान से हैं? जेलों से छूट कर ये सब नौजवान आक्रोश में आ कर सीमा पर यानी आजाद कश्मीर चले गए और वहां तो इन के शोषक बैठे ही थे. वहां से ये सब हथियार लाए और कश्मीरी नौजवानों को लगा कि भारत उनका देश नहीं है और कि उन्हें आज़ादी के लिए क्रांति करनी चाहिए. उनकी इस पवित्र भावना का दुरुपयोग पाकिस्तान की ISI ने जी भर कर किया, गैर-कानूनी हथियार बेचने वाली कंपनियों ने किया तथा नशीली दवाइयां बेचने वाली कंपनियों ने किया. इन तमाम नौजवानों की दुखती रग को पहचाने बिना सेना इन नौजवानों को पिछले दो दशकों से गोलियों से भून रही है. यही नक्सलियों के साथ भी हो रहा है. पुलिस व CRPF इन सब को भून डालना चाहती है, बजाय इस बात के कि सरकार अपनी उदारीकरण की नीतियों में सिर्फ मामूली परिवर्तन लाए और केवल कुछ प्रतिशत आदिवासी ज़मीनों को निजीकरण या उदारीकरण बख्शे. पर डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार आर्थिक नीतियों द्वारा अंधाधुंध निवेश बढ़ा कर विश्व के बड़े देशों की कतार में खड़ी होना चाहती है. इसलिए केन्द्र सरकार व रमण सिंह की सरकार ने एक ब्रह्मास्त्र सा पैदा किया है – सलवा जुडूम, जिस के प्रशंसा में भी गिरीश पंकज जी कसीदे पढ़ रहे हैं. अरुंधती outlook के अपने 32 पृष्ठीय लेख में स्पष्ट लिखती हैं कि सलवा जुडूम ने कोई ब्रिटिश के समय की पुरानी नीति अख्तियार की कि आप जिन लोगों की रक्षा करना चाहते हैं, वे सब के सब पहले अपनी जगहों से हट कर अपना क्षेत्र खाली कर दें. नतीजतन छतीसगढ के कई निहत्थे निर्दोष आदिवासी अपने गांव छोड़ आंध्र की तरफ प्रस्थान कर गए जहाँ वे बेघर से सिर छुपाने की जगहें तलाशते फिरते हैं. सलवा जुडूम के हिंसक से दिखते नौजवां गरीब आदिवासी लड़कियों के बलात्कार करते फिरते हैं और ये सताई हुई लड़कियां ही आक्रोश में बंदूकें उठा कर माओवादियों से मिल जाती हैं, यह भी अरुंधती स्पष्ट कर चुकी हैं. प्रसिद्ध राजनीति विश्लेषक रामचंद्र गुहा व उनके कुछ साथियों ने इस के लिए सर्वोच्च न्यायलय में एक जन-हित याचिका भी कर रखी है कि सलवा जुडूम को समाप्त कर दिया जाए.
    इस सब के बावजूद मैं यह कहूँगा कि ये माओवादी क्यों कि अब आम जनता पर भी प्रहार करने में नहीं चूकते अतः इन से निपटने का तरीका पूरी तरह गांधीवादी भी नहीं हो सकता. इस सारी समस्या के तीन आयाम हैं. एक तो उदारीकरण की नीतियों का अतिरेक जो मैं पहले ही कह चुका हूँ. दूसरा आदिवासी जीवन को समझने की ज़रूरत है. जब मनमोहन सिंह कहते हैं कि देश की प्रगति का लाभ यह आदिवासी भी उठाएं तब वे उन्हें व उनकी संस्कृति को समझने में बुरी तरह चूक जाते हैं. ये सब अपनी ज़मीनों पर खुश हैं. यहाँ ज़रूरत है राजनीतिक समाधान की कि लोकतंत्र की आत्मा को संतुष्ट करते हुए इन से ही बातचीत की जाए कि वे स्वयं अपने लिए क्या चाहते हैं, न कि मनमोहन सिंह या रमण कुमार उनके लिए क्या चाहते हैं. तीसरा आयाम यह कि ये सब माओवादी कहलाते हैं. माओ की तो अपनी नीति ही हिंसा और हत्या की थी. माओ ने लाखों लोगों को मरवाया. उस हिंसा से निपटने का एक तरीका तो राजनीतिक है जो मैंने ऊपर से समझाया और दूसरा है अपनी intelligence को सशक्त व सूझ-बूझ से भर कर ज़रूरत पड़ने पर किये जा रहे रण की रणनीति भी बनाना. रमन कुमार इस मामले में अक्षम मुख्यमंत्री लगते हैं क्यों कि उनकी intelligence बेहद कमज़ोर है और राजनीतिक दृष्टि से भी उनकी सूझ-बूझ कम लगती है कि इन सब से बातचीत का भी कोई रास्ता खोलें. आज केवल अरुंधती नहीं, नितीश कुमार जैसे श्रेष्ठ माने जाने वाले मुख्यमंत्री भी यही मानते हैं कि केवल बन्दूक के रास्ते से माओवादी समस्या का हल नहीं हो सकता. इधर सोनिया व दिग्विजय ने भी कमो-बेश यही राय दीप और अरुंधती के अलावा भी बुद्धिजीवियों लेखकों की एक लंबी क़तार है जो इन नक्सलवादियों से हमदर्दी रखती है. आशा है गिरीश जी मेरी बातों की ओर अवश्य ध्यान आकर्षित करेंगे.

  28. girish bhai.
    aapne arundhiti ko patonmukhi likha hain,iska matlab thoda samjha de ye patan unka kaise gogaya.ye to aap bhi jante honge ki arundhi ko mediya main me bane rahne ke liye ye sab karne ki jarurat nahi hain.aapne to unke latke jhtke ki bat ki hain,iska kaya matlab hota hain.aap to sahity ke aadmi hain aapko pata hoga ki rarendra yadav ne hans ke sampadkiya main yahi kaha tha.bhai ji chidmbri shorya ke sath raman singh ji aur unki parti ke alava desh main koi nahi hain.jab sarkare carporet secktor ki dalal ho jaye aur forse ka stemal latheto ki tarh karne lage to aadiwasi apne jiwan ki rakcha ke liye hathiyar uthayega hi ,ise aap hinsa kahain ya aatmrakcha.pankaj ji jaha tak main aapko janta hu aisi bhasha shobha nahi deti.

  29. यदि अरूंधति राय अपना विचार थोपने के लिये हिंसा को सही मानती हैं तो वह बतायें कि क्या जो उनसे सहमत नहीं हैं उन्हें भी अपनी बात मनवाने के लिये अरूंधति से हिंसा करना सही रहेगा? तब क्या वह उनकी बात हिंसा के ज़ोर पर सही मान लेंगी?

    यह महान लेखिका चाहे माओवादियों द्वारा अपनी बात मनवाने के लिये हिंसा के रास्ते को सही ठहरायें पर सभ्य समाज किसी भी व्यक्ति को उनसे अपनी बात मनवाने के लिये उनके विरूध्द हिंसा को सही नहीं ठहरायेगा, अरूंधति चाहे ठहरायें।

  30. क्षमा करें मुझे फिर से आना पड़ा! च.भू. जी इस देश की स्थिति/ भ्रष्टतंत्र ने लोकतंत्र को कलंकित कर रखा है किन्तु इस कारण नक्सल को स्वीकृति/ महिमामंडन और अरुंधती- विदेशों से पुरस्कृत मिडिया से प्रतिष्ठित होने के अतिरिक्त क्या विशेषता है उसकी! जिस देश ने ऐसों को सम्मान दिया उसीकी छिछालेदारी करने वालों से घटिया और कौन? यह देश ठीक नहीं तो जा तूं भी हुसेन हो जा?

  31. सच कहा आपने गिरीश जी। नक्सलवाद अपने मूल उद्देश्य से भटककर। लूटमारी, अपहरण-फिरौती, बलात्कार, हत्या और डकैती आदि पर आ गया है। यह एक व्यवसाय हो गया है गंदा धंधा। दूसरों को खून पीकर ये लोग जिंदा रहने की जुगाड़ में हैं। अगर ये वनवासियों की उन्नति के लिए लड़ रहे हैं तो उन्हें ही क्यों मार रहे हैं…… क्यों रेल में सफर कर रहे हजारों लाखों बेगुनाहों के सफर को अंतिम सफर बना देते हैं…… क्यों वनवासियों के बच्चों को पढ़ाने आए मास्टर का अपहरण कर उसकी हत्या कर देते हैं… क्यों उन क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। ये सिंह जैसे गरीबों के हत्यारों के समर्थक के पास भी इनका कोई जवाब नहीं होगा। हां कुतर्कों की कोई कमी नहीं होगी। रही अरुंधति राय की तो.. उनकी भी दुकान इसी से चलती है। कभी अरुंधति या उसके प्रिय की छाती पर लात रख कर बंदूक नहीं तानी नक्सलियों ने वरना कभी न कहतीं ऐसा। ये इतनी ही बड़ी पैरोकार होती नक्सलियों की तो खुद न पहुंच गई होती जंगल में बंदूक थामकर। लेकिन, इससे और आम भारतीय लोगों से इसे कुछ लेना देना नहीं है, इन्हें तो अपनी दुकान चलानी है।

  32. इस लेख को भी पढ़ा, र क सिंह की टिप्पणी भी! पहले भी ऐसा देखने को मिला! लेख में कुछ भी आपत्तिजनक न होकर भी/ यदि है तो स्पष्ट करे! अन्यथा ऐसे ही रोते किलस्ते अपनी जात दिखानेवाले अपना घटियापन दर्पण में देखते ही घटिया है-२. चिल्लाते हैं, हम समझ जाते है दर्पण झूठ न बोले, इनका तो नाम ही रोते किलस्ते सिंह है! अब समझ आया “घटिया कौन” या और समझाउं! वैसे भोंकने वाले की परवाह नहीं करता, कोई पीछे पड़ जाये तो पीछा छुड़ाना ऐसे ही होता है! संपादक युगदर्पण!

  33. सादर वन्दे !
    बहुत ही बढ़िया लेख, और हाँ एक भाई को पसंद नहीं आया, अरे भाई हमें अरुंधती राय से तुलना भी नहीं करना , कहाँ वो (खूनियों के लिए लड़ने वाली मानवाधिकारवादी) और कहाँ हम आम जनता (जिसके नसीब में मरना ही लिखा है)|
    पंकज जी वाकई आप अपने विचार मत थोपिए क्योंकि राष्ट्रवाद इन्हें पचता नहीं और देशप्रेम इनमे होता नहीं …आपभी अरे कहाँ आप कहाँ अरुंधती राय …. मैंने सही कहा ना भाई साहब!
    रत्नेश त्रिपाठी

  34. Arundhati roy ke vicharon ko thik se samjha nahin gaya. darasal mahatma gandhi islieye safal rahe kyonki us samay angregon ke ander naitikata aur samaj ko samajhane ki takat thi.
    Vakt badal gaya hai, Aaj loktantra un hathon mein hai jo angrejon jaisa kanoon vayastha banaye rakhane ke pakhsadhar hain,bhrast hain, japan jaisa vikas ke badale apna ghar bharne mein lage hain. neta,afsar apne leye hathiyar bandh ka kawach le leten hain aur aam janta ko marne chore deten hain, is halat mein ahinsa nahin in desh ke gaddar neta aur afsaron ko sareaam goliyon se ura dena hi behter hai kyonki inse bada koi na to atankwadi hai aur na hi naxali.

  35. मानवधिकार की ओट में घटिया राजनीति करने वाले देश की छवि तो बिगाड़ ही रहे है, हमारे सशस्त्र बलों का मनोबल भी तोड़ रहे हैं।जल्दी ही कोई देश इन्हें कोई न कोई सम्मान देकर अनुगृत कर देगा । गिरीश पंकज जी की बात से मैं सहमत हूँ ; मैं कहना चाहूँगा-हथियारों के सौदागर भी
    अमन के नारे लगा रहे ।
    पहने मुखौटे मानवता के
    भस्मासुर को जगा रहे।
    बेबसी की इस क़त्लग़ाह में
    मानव ही कहीं सो गया।

  36. bakwaas lekh
    agar apko jangalon me reh rahe adivasiyon aur naxal ke raste pe utare logon ki vastavik sthiti ka andaza hota to aap aisi bakwaas cheez kabhi na likhte

  37. बहुत ही उत्कृष्ट आलेख है | मैं सिर्फ एक ही बात कहना चाहूँगा सरस्वती की छह रखने वाले मान और धन का लोभ नहीं करते और कायर, डरपोक, धनगामी बुद्धिजीवी परिवर्तन नहीं कर सकते |

    नक्सलवाद का जो वास्तविक उद्देश्य था वो तो कब का बदल गया है , अब तो यह बस एक धंधा है| दूसरी बात राजनीती की, जहाँ तक मेरा मानना है राजनीती से ज्यादा समाज और समाज से ज्यादा अपने आपको बदलने की जरुरत है| हम बदलेंगे समाज बदलेगा और समाज बदलेगा तो राजनीति भी बदलेगी |

  38. जिनके पास कोई तथ्य नहीं रहते वह ऐसे ही शब्द का इस्तेमाल करते हैं जैसा कि आर के सिंह ने किया है. इस पूरे लेख में सिंह को कहाँ घटियापन दिख गया यह मालूम नहीं. छोटे लोग इसी तरह दूसरों को औकात दिखाने पिल पड़ते हैं. गिरीश जी के बारे में लिखने से पहले उनका बायो-डाटा देख लेना था. सम्प्रति वे साहित्य अकादमी के सम्मानित सदस्य हैं, और इस तरह के किसी व्यक्ति के लिए घटिया शब्द इस्तेमाल करने वाले को क्या कहा जाय. बहुत अच्छा आलेख गिरीश जी. इसी तरह मां भारती की सेवा करते रहने का आग्रह. जहां तक सवाल अरुंधती का है तो अब उसके बारे में लिखने में वक्त जाया करने की ज़रूरत नहीं है. अगर उसको भारत में रहना है तो भारतीय लोकतंत्र और क़ानून का सम्मान करना ही होगा. ज़रूरत इस बात की है कि उस पर जनसामान्य द्वारा भी मुकदमा करके, जिस जेल में जाने की इच्छा व्यक्त की है उसने वही पहुचा दिया जाय. इस बदतमीज़ महिला के लिए अब और कोई रियायत बरतने की ज़रूरत नहीं है. अगर भारत इसको इतना ही खराब लगता है तो चीन या और जहां इसके माई-बाप रहते हों वहां भेज देना चाहिए.आपके द्वारा बताया गांधीवादी मार्ग वास्तव में श्रेयष्कर है .लेकिन आखिर क़ानून व्यवस्था के लिए दंड भी तो एक ज़रूरी तत्त्व है. भगवत के अनुसार शठ को एक सीमा तक ही सुधरने का मौका दिया जाना चाहिए. उसके बाद दंड देना ही पड़ता है. क्या आपको लगता है कि बिना किसी तरह का दंड दिए देश अरुंधती जैसी अभागी संतान को सुधार सकता है?

  39. अच्छा लेख।
    अपने देश की प्रमुख समस्या हर स्तर पर ‘अनुशासन’ की कमी है। परिवर्तन वाद का मुहताज नहीं होता। नेतृत्त्व में ईमानदारी होनी चाहिए। अपने यहाँ तो नेतृत्त्व ही नहीं है – ईमानदारी बेईमानी तो बाद की बात है।

  40. प्रचार पाने के लिया कुछ लोग कुछ भी करने को कहने को तैयार रहते है. अरुंधती भी उन्ही में एक है. गिरीश जी ठीक कह रहे है की हिंसा का रास्ता आतंकवाद है. विरोध का और भी तरीके है किन्तु इतनी व्यापक हिंसा तो देश द्रोह है.

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