आधुनिकता बनाम परिवार

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-गंगानन्द झा-

lifeपरिवार की हमारी पारम्परिक अवधारणा और संरचना को आधुनिकता के ज्वार के कारण काफी तनाव का सामना करना पड़ रहा है । मनुष्य एक ही साथ व्यक्ति तथा समूह के अवयव की सत्ता रखा करता है । हमारी परम्परा में परिवार के सदस्य अपने को प्रथमतः परिवार के अवयव के रूप में पाया करते थे, यह सत्ता व्यक्ति के रूप में उनकी माँगों के ऊपर हावी रहती थीं । यह बात परिवार की औरतों के लिए तो पूरी तरह स्थापित-सी रही है । विभिन्न प्रकार के रिश्तों की संज्ञा में पहचानी जाने वाली नारी बेटी, बहू, बहन,पत्नी और अन्य रिश्तों से ही पहचान पाया करती, व्यक्ति की स्वतन्त्र सत्ता उसके लिए कल्पनीय भी नहीं रही है। आधुनिकता ने बड़ा फर्क पैदा किया है कि नारी की पहचान व्यक्ति की सत्ता में करा रही है । इससे नए तनाव, नई समस्याएँ उभरी हैं । व्यक्ति की सत्ता की ऐकान्तिक प्राथमिकता स्थापित करने की होड़ इस स्थिति का सूत्रधार है । आधुनिकता के प्रति उत्साही लोग व्यक्ति की सत्ता के दोहरे आयाम के प्रति यथासम्भव उदासीन हुआ करते हैं ; इसका नतीजा होता है कि परिवार की संरचना और कुशलता पर दबाव काफी बढ़ गया है ।

परिवार की उत्पत्ति और विकास के चरणों के अवलोकन से ज़ाहिर होता है कि व्यक्ति को अपनी सुविधा और कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए अपनी स्वतन्त्रता में सीमाबद्धता लागू करने की जरूरत हुई । परिवार की उत्पत्ति जननी (मातृ-सत्तात्मक) को केन्द्र में रखते हुए हुई और विकास की यात्रा में अन्ततोगत्वा पितृ-सत्तात्मक परिवार क़ायम हुए। अब यह सफर जिस मुकाम तक पहुँचा है, वहाँ व्यक्ति की समानता तथा उसकी क्षमताओं और सम्भावनाओं की पूर्ण उपलब्धि पर फोकस है; इसलिए व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र सत्ता के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो गया है। अपने को सम्पूर्ण मानने की ग़लतफहमी को वह अनमोल आभूषण की तरह इतरा-इतरा कर प्रदर्शित करता रहता है । परिवार और समाज के प्रति निष्ठा तथा संवेदनशीलता आज अपने को आधुनिक समझनेवाले लोगों के लिए अश्लील-से हो गए हैं । मूल्य-बोध के नए-नए स्वरूप उभरे हुए हैं : प्रतिदान, दायबद्धता और कृतज्ञता जैसी अवधारणा के अभिधान से इस आदमी की पहचान नहीं की जा सकती ।

आज के मूल्य-बोध का दर्शन – use and throw – पर आधारित हुआ करता है। आधुनिकता से अलंकृत परिवारों में किसी सदस्य की प्रासंगिकता वर्तमान तथा भविष्य में उसकी उपयोगिता से तय होती है, न कि उसके अबतक के अवदान से। बीत गई सो बात गई। आधुनिकता के वर्तमान दौर में परिवार का आचार-संलेख (protocol) क्षत-विक्षत हो गया है इसका कारण यह है कि आचार- संलेख का आधार परम्परा होती है और आधुनिकता के हिमायती परम्परा को आधुनिकता का विरोधी समझकर त्याज्य मानते हैं; जब कि परम्परा आधुनिकता का पथ-प्रदर्शक हो सकने की सम्भावनाओं से ओत-प्रोत हुआ करती है।

परम्परा बनाम आधुनिकता का समीकरण अक्सर ठीक से समझा नहीं जा पाता । परस्पर विरोधी स्थितियों के साथ जीना तथा नवीन में प्राचीन की रिसावट करते रहना आधुनिकता है। नई पीढ़ी का स्वरूप निर्द्धारित होता है उसके जैविक तथा सांस्कृतिक उत्तराधिकार (Biological and cultural inheritance) के सम्मिलित स्वरूप से । सांस्कृतिक स्वरूप की झलक मुख्य रूप से उसकी परम्पराओं में मिलती है । किसी समुदाय की पम्पराएँ उस समुदाय की विकास-यात्रा के अनुभवों को दर्शाती हैं । यह अपरिवर्तनीय या निर्विकार (immutable) नहीं होती । आधुनिकता नये अनुभवों, नई उपलब्धियों की ग्रहणशीलता और स्वीकार्यता है । जीवित और प्रगतिशील समष्ठियाँ अपनी इन क्षमताओं के द्वारा परम्पराओं का निरन्तर नवीकरण करती रहती है । परम्परा का कोई अपरिवर्तनीय गतिहीन स्वरुप नहीं हुआ करता, समय के साथ नये अनुभव इसमें नयापन लाते रहते हैं ।

प्यार की वेदना , वेदना का आनन्द तथा आनन्द की वेदना के आयाम की कोई समझ इन्हें नहीं होती । ये बस लेना ही जानते हैं , शेयर करने के आनन्द की कोई ललक नहीं; सुख के कंगाल ये जीवन मरीचिका के पीछे दौड़ने को अभिशप्त हुआ करते हैं । अस्मिता के भ्रम में अहंकार की ही पहरेदारी करते रहते हैं ये । आधुनिक विकास के साथ मनुष्य का मन बदलने लगा । सामाजिक हाशिये से केन्द्र पर आए लोग भी अपने निकट अतीत से पल्ला झाड़ते हुए आगे बढ़ने की लालसा पालने लगे । त्याग और बलिदान के बदले जीवन में लोभ और भोग का व्यक्तिवादी वर्चस्व बढ़ने लगा । व्यक्तिवाद का दबाव जितना बढ़ता गया, व्यक्तित्व का प्रसार उतना ही घटता गया । आज के उत्तर-आधुनिक समय में बाजारवाद अपने लाव-लश्कर के साथ हमारे घरों में घुसकर रिश्तों की संवेदना को भी पण्य बनाता जा रहा है ।

अपने को आधुनिक समझनेवाले इनलोगों ने अपनी उन संवेदनाओं को सुन्न कर लिया होता है,जिन्हें हम सामूहिक रुप से ‘विवेक’ कहते हैं ; इसका एक आनुषंगिक और अवश्यम्भावी परिणाम होता है कि कि ये स्नेह और भागीदारी की अनुभूति से परिचित ही नहीं हो पाते | उन्हें पता ही नहीं होता कि प्यार क्या होता है;

आधुनिकता ने नारियों के सम्मुख अभूतपूर्व सुयोग की सम्भावनाओं का आह्वान प्रस्तुत कर दिया है । आधुनिक नारी के सामने चुनौती भी इसके साथ-साथ उभड़ी है । अगर वह नए दिगन्त को नम्रता और कृतज्ञता से अपना अर्घ्य देने को प्रस्तुत होगी, तभी वह कल्याणीया हो सकेगी ।

“इच्छा का बहाव अपरिमित हो गया है, जिसमें सारे मूल्य-बोध विगलित होकर बहे जा रहे हैं । घर में माँ-बाप के लिए जगह नहीं है । सारे रिश्तेदार दूर के होकर रह गए हैं . लोभ की चपेट में ऐसा समाज विकसित हो रहा है , जिसमें न बूढ़ों के लिए सच्चा आदर बचा है न बच्चों के लिए सच्चा स्नेह । ऐसा समाज न केवल परम्पराओं की अच्छाइयों से विमुख होता है, बल्कि भविष्य के गर्भ में छिपी अच्छाइयों को पहचानने का विवेक भी खो देता है ।“

                                 -प्रफुल्ल कोलख्यान ; पूर्वग्रह,सितम्बर, 2003-

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  1. भारत की परिवार व्यवस्था पश्चिम के समाजशास्त्रियों के लिए एक अनबूझ पहेली की तरह है!वैसे तो समूचे दक्षिण एशिया में ही परिवार व्यवस्था कमोबेश प्रभावी रही है, लेकिन भारत में यह पूरी तरह से प्रभावी थी! यह परंपरा हमारे “मैं नहीं हम” की अवधारणा को पुष्ट करती है.सुनने में आया है कि पश्चिम के कुछ विश्वविद्यालयों में इस व्यवस्था को गहराई से समझने के लिए शोध भी किये गए हैं या किये जा रहे हैं!एक प्रश्न मन में उठता है कि जिस प्रकार से पश्चिम, विशेष कर अमेरिका, में अनेकों ऐसी संस्थाएं कार्यरत हैं जिनका उद्देश्य केवल ऐसे अध्ययनों को बढ़ावा देने का है जिनसे भारतीय समाज की ऊपरी विविधता को बढ़ाचढ़ाकर दर्शाया जा सके जिससे भारत में विखंडन की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जा सके!तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी परिवार परंपरा के अध्ययन की आड़ में ऐसे तरीके इज़ाद किये जा रहे हों जो हज़ारों वर्ष पुरानी इस परिवार नामक संस्था को तोड़कर भारतीय समाज को खोखला करने का काम कर रही हो! आज अधिकांश टीवी सीरियल्स में परिवारों में जिस प्रकार के षड्यंत्रकारी कथानकों को दर्शाया जाता है वो परिवारों के विघटन को बढ़ावा देने वाला है! इस दिशा में भारतीय समाजशास्त्रियों को परिवारों में एकता को बढ़ावा देने वाले तत्वों को पहचान कर उन्हें प्रोत्साहित करने का कार्य करना चाहिए!

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