राजनीति

राजनैतिक अस्पृश्यता के दौर से गुजरते नरेंद्र मोदी

-निर्मल रानी

लोकसभा के पिछले चुनावों के अंतिम चरण में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने अपनी आख़िरी रैली लुधियाना में आयोजित कर अपना अंतिम ‘रामबाण’ छोड़ने का असफल प्रयास किया था उस समय भी उस रैली में सम्मिलित होने न होने वाले नेताओं में दो ही नाम सबसे अधिक चर्चा में थे। एक नाम था गुजरात के विवादित मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का तो दूसरा नाम था बिहार के ‘विकास बाबू’ कहे जाने वाले मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का। उस लुधियाना रैली में भी यह चर्चा जोरों पर थी कि यदि नरेन्‍द्र मोदी एन डी ए के उस चुनावी मंच को सांझा करते हैं तो ऐसी स्थिमि में नीतिश कुमार उस मंच पर हाजिर होंगे या नहीं। यहां एक राजनैतिक दांव-पेंच का ख़ुलासा करते चलें कि बिहार के अल्पसंख्यक मतों पर गत् दो दशकों से लालू प्रसाद यादव का लगभग पूरा कब्‍जा रहा है। चूंकि अब नीतिश कुमार स्वयं को बिहार के मुसलमानों के नए अवतार के रूप में अवतरित करना चाह रहे हैं लिहाजा अब उन्हें शायद अपने लिए यह जरूरी जान पड़ता है कि वे जालीदार टोपी तथा अरबी रुमाला धारण कर मुस्लिम समुदाय के कार्यक्रमों में जाकर उन्हें यह जताने का प्रयत्न करें कि वह भी लालू प्रसाद यादव से कहीं बढ़कर उनके सच्चे हितैषी हैं, वहीं नरेंद्र मोदी का विरोध भी नीतिश कुमार को अपने इसी मकसद को पूरा करने में ‘उर्जा’ प्रदान करता दिखाई देता है। लिहाजाा नीतिश कुमार नरेंद्र मोदी से अपने मतभेद उजागर करने का कोई भी अवसर गंवाना नहीं चाहते। उधर नरेंद्र मोदी हैं कि नीतिश कुमार के इस ‘दूरगामी मकसद’ को भांपते हुए नीतिश कुमार को अपना मित्र प्रचारित करने का भी कोई अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। शायद यही वजह थी कि एन डी ए की लुधियाना रैली में किन्हीं भी दो अतिथि नेताओं द्वारा एक दूसरे का गर्मजोशी से हाथ पकड़कर मीडिया के माध्यम से देश को स्वयं को साथ-साथ दिखाने का ऐसा प्रदर्शन नहीं किया गया जैसा कि मोदी व नीतिश कुमार के हाथ मिलाने के समय हुआ। बहरहाल लुधियाना का जो चित्र गत् वर्ष लोकसभा चुनावों के दौरान चर्चित हुआ था उसी चित्र ने एक बार फिर मीडिया में भरपूर चर्चा हासिल की है।

गत् वर्ष जब नरेंद्र मोदी व नीतिश कुमार का यही चित्र लुधियाना के मंच से प्रकाशित हुआ था उस समय चर्चा इस बात की थी कि यदि नरेंद्र मोदी ने एन डी ए की लुधियाना रैली में भाग लिया तथा इस रैली में अपने न पहुंचने की तमाम अटकलों के बावजूद मोदी के साथ मंच सांझा करने हेतु बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कु मार वहां पहुंचे। मंच पर पहुंचते ही नरेंद्र मोदी ने नीतिश कुमार से किसी प्रकार के राजनैतिक मनमुटाव की खबरों पर विराम लगाने हेतु झट से नीतिश कुमार का हाथ पकड़ कर ऊपर उठाया तथा यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया था कि कांग्रेस के विरोध में हम एक थे और एक हैं। उधर बिहार में लालू प्रसाद यादव जैसे नेता इन चित्रों का प्रयोग नीतिश के विरुद्ध मुस्लिम मतदाताओं के बीच यह कह कर रहे हैं कि नीतिश कुमार तथा नरेंद्र मोदी आख़िरकार एक ही चने की दो दालें हैं। ऐसी स्थिति में नीतिश कुमार को नरेंद्र मोदी का बार-बार विरोध कर, उनसे फासला बनाए रखने का बार-बार प्रदर्शन कर उन्हीं मुस्लिम मतदाताओं को यह जताना पड़ता है कि गुजरात दंगों के संदिग्ध आरोपी नरेंद्र मोदी से मैं भी उतनी ही नंफरत करता हूं जितनी कि मुस्लिम समुदाय करता है। नीतिश कुमार के इस मुस्लिम प्रेम प्रदर्शन तथा मोदी के प्रति उनकी कुंठा के प्रदर्शन ने जहां उन्हें विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यकों के पर्याप्त वोट दिलवाए वहीं पिछले संसदीय चुनावों में इन मतों में और भी इजाफा हुआ। यहां गौरतलब है कि बिहार के विगत् विधानसभा चुनावों के दौरान तथा गत् संसदीय चुनावों के दौरान भी नीतिश कुमार ने भाजपा नेतृत्च को यह स्पष्ट कर दिया था कि राय में चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी को प्रचार में शामिल होने की कोई आवश्यकता नहीं है। और नीतिश के दबाव के चलते तथा बिहार में जे डी यू -बी जे पी गठबंधन के अनुपात की बारीकियों के मद्देनजर नरेंद्र मोदी बिहार गए भी नहीं।

परंतु गत् दिनों भाजपा ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक संभवत: पटना में इसीलिए आयोजित की ताकि नीतिश कुमार नरेंद्र मोदी के आने को लेकर कोई ‘दिशा निर्देश’ जारी न कर सकें।

आख़िरकारU भाजपा के देश के सभी बडे नेता भाजपा की इस बैठक में भाग लेने हेतु पटना पहुंचे। नरेंद्र मोदी ने भी अपनी हाजिरी लगाई। परंतु एक बार फिर यहां भी नीतिश बनाम मोदी विवाद ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। भाजपा द्वारा अपनी कार्यकारिणी की इस बैठक के दौरान कुछ प्रचार सामग्रियां वितरित की गईं। जिनमें कुछ चित्र भी प्रकाशित किए गए थे। इनमें एक चित्र तो वही विवादित चित्र था जो मोदी व नीतिश कुमार का हाथ मिलाते हुए लुधियाना में एन डी ए की रैली के दौरान लिया गया था। परंतु इस चित्र में बड़ी होशियारी के साथ चित्र की पृष्ठभूमि बदलने की कोशिश की गई थी। जहां लुधियाना रैली में इस फोटो की पृष्ठभूमि में एन डी ए का बैनर तथा एन डी ए के नेता बैठे दिखाई देते थे, वहीं इस छेड़छाड़ की गई फोटो की पृष्ठभूमि में भारतीय जनता पार्टी के मंच का रंग दर्शाया गया था। संदेश सांफ था कि यदि नीतिश कुमार मोदी से फासला बनाकर अपने वोट बैंक में बढ़ोत्तरी करना चाहते हैं तो भाजपा उन्हें अपने साथ जुड़ा हुआ दिखाकर नीतिश कुमार की उन कोशिशों पर पानी फेरना चाह रही है।

इतना ही नहीं भाजपा ने अपनी इसी पटना कार्यकारिणी की बैठक के दौरान जो प्रचार सामग्री वितरित की उसी में एक ऐसा चित्र भी प्रकाशित हुआ था जिसमें यह दिखाने की कोशिश की गई थी कि गुजरात में मुस्लिम महिलाएं किस प्रकार कंप्यूटर शिक्षा ग्रहण कर वाईब्रेंट गुजरात के मिशन में अपना सहयोग दे रही हैं। इत्तेफाक से यह चित्र भी गुजरात का नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के किसी कंप्यूटर संस्थान से लिया गया बताया जा रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी को राजनैतिक पैंतरेबाजी की वर्तमान जरूरतों के तहत स्वयं को कभी नीतिश का मित्र तो कभी अल्पसंख्यक समुदाय का हितैषी साबित करने के लिए छेड़छाड़ की गई अथवा झूठी फोटो का भी सहारा लेना पड़ रहा है।

बहरहाल, बिहार में आयोजित भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी वहां पहुंचे। नीतिश कुमार ने मोदी के चलते भाजपा नेताओं को दिया जाने वाला भोज भी गुस्से में स्थगित कर दिया। हालांकि नीतिश कुमार के इस फैसले की कांफी आलोचना भी हुई। परंतु वोटों की राजनीति जो कुछ भी न कराए वही थोड़ा है। हां, पटना की भाजपा रैली में नरेंद्र मोदी जब आ ही गए तो उन्हें गरजना भी था। और वह खूब गरजे भी। परंतु इस बार उनकी गरजना की हवा कुछ यूं निकल गई क्योंकि उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी के लिए सोनिया गांधी को ‘मौत का सौदागर’ ठहराने का प्रयास किया। मोदी का सोनिया पर किया गया यह वार हालांकि सोनिया गांधी की भाषा में ही था। ज्ञातव्य है कि गुजरात में गत् लोकसभा चुनावों के दौरान सोनिया गांधी ने गुजरात दंगों के लिए नरेंद्र मोदी की भूमिका को संदिग्ध बताते हुए उन्हें ‘मौत का सौदागर’ के लंकब से नवाजाा था। सोनिया गांधी देश की अकेली ऐसी नेता नहीं थीं अथवा हैं जो नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों का दोषी, आरोपी अथवा उसमें उनकी भूमिका को संदिग्ध मान रही हों। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह सोनिया गांधी के ‘मौत का सौदागर’ कहने पर नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी के गुजरात दंगों के पक्षपातपूर्ण रवैये के मद्देनजर ही दी थी। सुप्रीम कोर्ट तथा गुजरात दंगों की जांच करने वाले आयोगों ने मोदी को यूं ही नहीं संदिग्ध मान लिया। ए टी एस ने पिछले दिनों दो दिन तक लगातार नरेंद्र मोदी से पूछताछ की। आख़िर वे मौत के सौदागर होने के संदिग्ध नहीं फिर चारों ओर से उन पर उठने वाली उंगलियों का औचित्य क्या है। परंतु भोपाल गैस त्रासदी के सिलसिलसे में यूनियन कार्बाइड प्रमुख को भोपाल से भगाए जाने तथा उसे अमेरिका तक सुरक्षित पहुंचाए जाने में भले ही राजीव गांधी अथवा अर्जुन सिंह दोनों ही दोषी क्यों न रहे हों या इनमें से कोई एक दोषी क्यों न हो परंतु वारेन एंडरसन की फ़रारी को लेकर सोनिया गांधी को आख़िर जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है? क्योंकि वे तो उस समय राजनीति में सक्रिय तक नहीं थीं। दूसरी बात यह कि भोपाल गैस त्रासदी तथा गुजरात दंगों का अलग-अलग विशेषण करने पर इसमें मौत की सौदागरी जैसे लक्षण किस हादसे में नजर आते हैं? भोपाल गैस त्रासदी ने तो कांग्रेस पार्टी को तब भी नुंकसान पहुंचाया था और आज भी नुंकसान पहुंचाने की ही स्थिति बनी हुई है। अत: यहां मौत की सौदागरी वाली बात तो सटीक बैठती ही नजर नहीं आती। क्योंकि इस त्रासदी को लेकर या एंडरसन की फरारी को लेकर कहीं भी कांग्रेस को लाभ मिलता दिखाई नहीं दे रहा है। परंतु गुजरात दंगों के बाद किसे राजनैतिक लाभ हासिल हुआ और आज भी कौन लोग उसी तर्ज पर चलाई जाने वाली राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं यह भी सारा देश देख रहा है। ऐसे में मौत का सौदागर कौन है और कौन नहीं देश की जनता बिना सोनिया गांधी या नरेंद्र मोदी के बताए हुए स्वयं भलीभांति समझने की स्थिति में है। फिलहाल तो यही लगता है कि यदि नरेंद्र मोदी पर मौत के सौदागर होने का ठप्पा न लगा होता तो राजनैतिक अस्पृश्यता के जिस दौर से नरेंद्र मोदी आज गुजर रहे हैं यह दौर उन्हें हरगिज न देखना पड़ता।