मदर टेरेसा-नोबेल शांति पुरस्कारों के विवादों में!

हरिकृष्ण निगम

कुछ दिनों पहले उन विवादित एवं सर्वत्र चर्चित प्रतिभाओं को जिन्हें पिछले दशकों में स्वीडिश अकादमी ने नोबेल शांति पुरस्कार दिया था जिन्हें एक अमेरिकी सर्वेक्षण में इसके योग्य नहीं माना गया था उनमें एक नाम भारत की परिचित एवं संत की त्याग और करूणा की छवि वाली अल्बानियाई मूल की मदर टेरेसा का था। बेसहारों की सेवा में जीवन समर्पण और वेटिकन द्वारा उनके संतत्व की औपचारिक घोषणा के साथ-साथ हमारे देश में भी उनके ऊपर विशेष डाक टिकट जारी किया गया था। यद्यपि उपर्युक्त समाचार में उनके एक दूसरे विवादित चेहरे की बात उठाई गई हैं, पर जैसा होता रहा है, हमारे देश का कथित प्रबुध्द मीडिया विदेशी बड़े पत्रों में प्रकाशित तथ्यपरक जानकारी देना बहुधा उचित नही समझते हैं। सेवा की इस देवी की क्या यही पूरी कहानी है, इस पर प्रकाश डालने के पहले हम नोबेल शांति पुरस्कारों की प्रकृति व इसके संस्थापक एल्फ्रेड नोबेल की वसीयत की शर्तों पर भी कुछ प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं।

नार्वे के शांति आंदोलन से जुड़े एक विख्यात समाजकर्मी व विधिवेत्ता फ्रेडरिख हेफ्रमेहल के अनुसार सन् 1946 से अब तक आधे से अधिक दिए गए नोबेल शांति पुरस्कार अयोग्य एवं अवैध रूप से राजनीतिक कारणों से चुने गए प्रत्याशियों को दिए गए हैंऔर वे नार्वे और स्वीडन के कानूनों के विरूध्द भी हैं। उनका यह दावा भी है कि एल्फ्रेड नोबेल ने अपनी वसीयत में चयन किए जाने वाले व्यक्ति के लिए जो शर्तें रखी थी उनका भी उल्लंघन हुआ हैं। उन्होंने स्पष्ट लिखा था- ”कि वे चाहते हैं कि उनकी विशाल संपत्ति का एक अंश शांति पुरस्कार के लिए हो जो विरोधी राष्ट्रों के लिए शांति अवधि और सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा को यूरोप में बढ़ावा देने वाले स्त्री-पुरूष को दिया जाए ”। 1896 में अपनी मृत्यु के पहले दी गई शर्तों के अनुसार प्रथम शांति पुरस्कार उनकी अपनी सचिव और जीवन-संगिनी वेथो को 1901 में मिलना था लेकिन उन्हें यह पुरस्कार 1905 में दिया गया था। तब से इस पुरस्कार पर सभी की आंखे लगी रहती है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल की महात्मा गांधी के प्रति वितृष्णा और पहले भी अंग्रेजों के रवैये के कारण महात्मा गांधी को इस पुरस्कार के साथ-साथ साहित्य और अर्थशास्त्र के क्षेत्र के पुरस्कार भी विवादित होते रहे हैं। शांति पुरस्कारों के चयन में बहुधा पश्चिमी विश्व के तात्कालिक राजनीतिक लाभ ही ध्यान में रखे गए।

हेफ्रमेहेल की सन् 2008 में नॉर्वीजियन भाषा में प्रकाशित पुस्तक जिसका शीर्षक हैं ‘नोबेल्स विल’। उसने सारी दुनियां में हलचल मचा दी थी। अब इसका अंग्रेजी संस्करण ग्रीनवुड प्रेस द्वारा ‘पैकिंग-अप-पीसेज’, ‘व्हाई द नोबेल पीस प्राईज वायलेट्स एल्फ्रे ड नोबेल्स विल एंड हाउ टु फिक्स इट’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। पुरस्कार के लिए वसीयत की शर्तों के उल्लंघन में दूसरे लोगों के साथ-साथ मदर टेरेसा के नाम की वैधता पर भी आपत्ति जताई गई हैं जिन्हें यह पुरस्कार 1979 में दिया गया था। उन्होंने अपने सेवाकार्य द्वारा भारत और एशियाई देशों में धर्मांतरण की राह प्रशस्त की थी जिसे वेटिकन का वरदहस्त प्राप्त था। यह आपत्ति लेखक ने अपने उपर्युक्त ग्रंथ में जताते हुए पोलैंड के मजदूर संगठन सॉलिडेरिटी के नेता लेस वलेसा का उदाहरण दिया हैं, जिन्हें 1983 में यह पुरस्कार इसलिए दिया गया था क्योंकि साम्यवादी देशों विशेषकर पोलैंड ईसाई धार्मिकता की वापसी और अंततः सोवियत संघ के विघटन के कारक के रूप में वेटिकन उनकी सराहना कर चुका था। इसके अलावा हेनरी किसिंजर, मेनाचिन बेगिन, यासर अराफात और गोर्बाचोव को दिए पुरस्कारों को भी इसी विवादों के घेरे में डाला गया था। इसी प्रकार जब उस समय के 78 वर्षीय जिमी कार्टर को यह पुरस्कार दिया गया तब अमेरिका प्रशासन की तत्कालीन विदेश नीति खास कर इराक पर आक्रमण की जिद की आलोचना के कारण जिमी कार्टर द्वारा किए गए विरोध को उस समय यूरोप में भी काफी महत्व दिया जा रहा था। भू-राजनीति का वर्चस्व निर्णायकों पर हावी रहता है। शिरिन एबादी का शांति पुरस्कार और अल-गोर का 2003 का पुरस्कार भी राजनीति के विवादों का कारण बना था। शक्तिशाली देशों की भू-राजनीति के मोहरों को पुरस्कृत करना एल्फ्रेड नोबेल की वसीयत का मंतब्य कभी नहीं था। 26 नवंबर, 1985 में लिखी वसीयत में इस पुरस्कार की अर्हता के लिए स्पष्ट उल्लेख था कि यह उस व्यक्ति को दिया जाए जिसने देशों के बीच युध्द की संभावना का उन्मूलन या सैन्यबलों को घटाने में सर्वाधिक योगदान देकर शांति की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया हो। इसे शक्तिशाली देशों की भू-राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने के मंतव्य से विस्मयजनक रूप से प्रयुक्त किया गया है।

विश्व विख्यात अमेरिकी लेखक क्रिस्टोफर हिचिन्स जो हाल में अपनी आत्मकथा ‘हिच-22’ लिए फिर चर्चा के केंद्र बिंदू बने हैं उन्होंने पहले के ग्रंथ ‘द मिश्नरी पोजीशन’ में मदर टेरसा के बारे में जो कुछ लिखा हैं, इस देश में अंग्रेजी मीडिया के प्रभावी वर्ग में उसे उध्दृत करने का भी मनोबल नहीं हैं भले ही सारा अंग्रेजी भाषी विश्व में उनकी लाखों प्रतियां उपलब्ध हैं। इस देश में जिस तरह चर्च एवं सरकारी स्तर पर उनकी छवि प्रचारित होती है वह उससे मेल नहीं खाता है। यदि आज वे तथ्य एक सामान्य भारतीय को ज्ञात होते तो कदाचित हमारी सोच बदल जाती। संत की पदवी मात्र से दया की देवी से संबंधित वे प्रकरण जो उन्हें कुख्यात अमेरिकी आर्थिक अपराधी चार्ल्स कीटिंग या रॉबर्ट मैक्सवेल या गरीब देश हैती में नरसंहार के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम तानाशाह डुवालिए से जोड़ता हैं जिनसे उनहें करोड़ों डालरों का अनुदान मिला था और उसके बदले उन्हे उनका अनुमोदन मिलता था। यही कहानी आपको दूसरे शब्दों में अरूप चटर्जी के ग्रंथ ‘द फाइनल वर्डिक्ट’ में सेवा के विरोधाभासों के रूप में विस्तार से पढ़ने को मिल सकती है। चाहे प्रसिध्द ब्रिटिश प्रशासन लान्सेट के डॉ. राबिन काक्स हो या ऐन सेब्बा का चर्चित ग्रंथ, मात्र उन्हें दुष्प्रचार या निंदात्मक टिप्पणियों का श्रोत कतई नहीं कहा जा सकता है, सत्य की खोज की राह में चलने वाले हर अध्येता को यह पक्ष जानना आवश्यक हैं। विशेषकर आज के उस विषाक्त सामाजिक परिदृश्य के समय जब हमारा मुद्रित व श्रव्य-दृश्य मीडिया और विशेषकर कुछ बहुसंख्यक विरोधी अंग्रेजी पत्र एवं टीवी चैनल अनेक आदरभाव से देखे जा रहे साधु-संतों के विरूध्द स्टिंग आपरेशनों द्वारा उनके हर शब्दों में छिपा मंतव्य ढूंढ़ कर सच झूठ को उजागर करने में इसलिए लगे हैं किस प्रकार हमारी आस्था की छवि धूल-धूसरित हो। उनके स्वीकरण या डिस्क्लेमर की राजनीति आज ऐसी है जिससे घृणित बात करने के बाद भी उनके नैतिक या कानूनी परिणामों से बचने का मार्ग निकाला जा सके ।

क्या कोई विश्वास करेगा कि चार्ल्स कीटिंग ने एक मिलियन डॉलर (लगभग 4,500 करोड़) मदर टेरेसा को दिए थे। जब उसपर मुकदमा चल रहा था तब उन्होंने जज लांस आइटो को पत्र लिखकर कीटिंग को क्षमा कर के छोड़ने के लिए कहा था। इस पर कैलीफोर्निया के डिप्यूटी डिस्ट्रिक्ट एटॉर्नी पाल टर्ले ने उनकी प्रार्थना को अस्वीकार करते हुए उनकी अनुशंसा को ही आपत्तिजनक माना। मदर टेरेसा के मरणोपरांत न्यूयार्क के ब्रांक्स के एक बैंक में एक खाते में 500 मिलियन डॉलर (दो अरब पच्चीस करोड़ रुपये) पाए गए। पर इनमें से एक कौड़ी भी कोलकाता के गरीबों की चिकित्सा पर नहीं खर्च किया गया जब कि यह दान विश्व भर में कोलकात्ता के गरीबों, असहायों और दरिद्रों के नाम पर एकत्र होता था। इसी तरह रॉबर्ट मेक्सवेल नामक अपराधी ने जिसे जब यह ज्ञात हो गया कि स्कॉटलैंड यथेष्ट प्रमाण जुटा लिया है और वह बच नहीं सकता है उसने आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने भी उन्हें विशाल अनुदान दिया था। यह सिक्के का दूसरा अल्प पहलू है जिसे कम से कम देश के निष्पक्ष मीडिया को सामान्य पाठकों से छिपाना नहीं चाहिए और वे हर प्रचारित बात पर आंख मूंदकर विश्वास न करें।

* लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

2 COMMENTS

  1. जब धर्मांतरण करने के उद्देश्य से काम करने वाली संस्था की संचालिका को नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई, तब भी कुछ विपरित विरोधी प्रमाण तो मिले ही थे। —पर मिडीया ने उसपर न ध्यान दिया, न कुछ संशोधन किया।
    भारत अपने ही पैरों पर कुल्हाडी मारने में जब सक्षम है, तो सारा ईसाई-संप्रदाय(धर्म वह नहीं है) प्रचार-तंत्र उसका लाभ क्यों न ले? भारतको फिरसे परतंत्र बनाने का यह तीसरा विकल्प(अंतर राष्ट्रीय कूटनीति की पाठ्य पुस्तकके अनुसार)– है।सेक्युलरिज़्म की आडमें भारतको (१) खंडित करो, (२) धर्मांतरणसे खोखला करो, (३) सांस्कृतिक दृष्टिसे उसकी परंपराओं को दुरबल करो।चौथा रास्ता वाम वादी भी निभा रहे हैं।
    जैसे, U S S R के १३ टुकडे हो गए, इससे, निर्बल हो गया।कुछ पाठ सीखना है?
    किसी भी सामान्य ज्ञान रखनेवाले बुद्धुको स्थापित हितोंके एजंटो (दलालोंके) बारेमें पता होता है। लेकिन जब हमही बिकने को तैय्यार बैठे थे, तो दुनिया क्या करे?
    जिस सर्व धर्म समभाव मे इसाइयत को भी समाया जाता है, जिस इसाइयत का, सर्व धर्म समभावमें तनिक विश्वास नहीं है। न था। न कभी रहेगा।
    तो ऐसे सर्व धरम समभाव के भरमसे भारतको कौन बचाए?
    मारते रहो अपने पैरोंपर कुल्हाडी, एक दिन क्या कन्याकुमारी के पास समंदर में डूबना चाहते हो?
    मिशनरियोंकी मिटिंगमें जब यह पाया गया कि बुद्धिमान शिक्षित को तर्क से(गोआ में ब्राह्मण पंडितो ने मिशनरियों के छक्के छुडा दिए थे।) इसाइयत जब नहीं फैलाई जा सकती, तब इसे आर्थिक सहायता देकर वनवासी एवं कलकत्ते जैसे शहरों की गरीब बस्तियोंमे फैलाया जाए।यह उनकी कूटनीति (स्ट्रॅटेजी) का परिणाम था, पर भारत तो खुले हृदयसे आत्म हत्त्या पर तुला था।
    शासक है, प्रेरित परदेसी,
    जनता है, सोई सोई,
    मिडिया तो, बिका बिका,
    तो क्या करेगा कोई?
    {टिप्पणीकार ज्यॉर्ज मॅसन युनिवर्सीटी में –कन्वर्ज़न एंड कॉन्फ्लिक्ट रेज़ोल्य़ुशन की कांन्फरन्स में सनातन धर्म के प्रतिनिधि के रूपमे भागी था।) दीर्घ टिप्पणी हो गई।

  2. ऑंखें खुली की खुली रह गयी है बंद होने का नाम नहीं ले रही है

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