टीम अन्ना ने ही अंधे कुएं में धकेल दिया आंदोलन

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तेजवानी गिरधर

जिस अन्ना टीम ने देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त आंदोलन खड़ा किया, उसी ने अपनी नादानियों, दंभ और मर्यादाहीन वाचालता के चलते उसे एक अंधे कुएं में धकेल दिया है। यह एक कड़वी सच्चाई है, मगर कुछ अंध अन्ना भक्तों को यह सुन कर बहुत बुरा लगता है और वे यह तर्क देकर आंदोलन की विफलता को ढ़ंकना चाहते हैं कि टीम अन्ना ने देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण तो पैदा किया ही है। बेशक देश के हर नागरिक के मन में भ्रष्टाचार को लेकर बड़ी भारी पीढ़ा थी और उसे टीम अन्ना ने न केवल मुखर किया और उसे एक राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल दी, मगर जिस अंधे मोड़ पर ले जाकर हाथ खड़े किए हैं, वह आम जनता की आशाओं पर गहरा तुषारापात है। एक अर्थ में यह जनता के साथ विश्वासघात है। जिस जनता ने उन पर विश्वास किया, उसे टीम अन्ना ने एक मुकाम पर ला कर ठेंगा दिखा दिया। अब हम भले ही आशावादी रुख अपनाते हुए आंदोलन की गर्म राख में आग की तलाश करें, मगर सच्चाई ये है एक बहुत बड़ी क्रांति का टीम अन्ना ने सत्यानाश कर दिया।

टीम अन्ना में चूंकि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लोग थे, इस कारण उनमें कभी भी मतैक्य नहीं रहा। उनके मतभेद समय-समय पर उजागर होते रहे, जिसकी वजह से कई बार सामूहिक नेतृत्व के मुद्दे पर उनसे जवाब देेते नहीं बना।

जहां तक स्वयं अन्ना हजारे का सवाल है, वे खुद तो पाक साफ हैं और बने रहे, मगर उनकी टीम कई बार विवादों में आई। कभी अरविंद केजरीवाल पर आयकर विभाग ने उंगली उठाई, तो कभी किरण बेदी पर विमान की टिकट का पैसा बचाने का आरोप लगा। भूषण बाप-बेटे की जोड़ी पर भी तरह-तरह के आरोप लगे। सबसे ज्यादा विवादित हुए अपने घटिया बयानों की वजह से।

टीम अन्ना कितने मतिभ्रम में रही, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कभी जिन बाबा रामदेव से वह कोई संबंध नहीं रखना चाहती थी, बाद में उसी से मजबूरी में हाथ मिला लिया। उसके बाद भी बाबा रामदेव को लेकर भी टीम दो धड़ों में बंटी नजर आई। यही वजह रही कि जब टीम से बाबा से गठबंधन किया तो न केवल उनके विचारों में भिन्नता बनी रही, अपितु मनभेद भी साफ नजर आता रहा। एक ओर बाबा रामदेव गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से गलबहियां करते रहे तो दूसरी और टीम अन्ना के सदस्य इस मुद्दे पर अलग-अलग सुर उठाते नजर आए। हालत ये हो गई कि जो बाबा रामदेव अपने वायदे के मुताबिक टीम अन्ना के ताजा अनशन के पहले दिन कुछ घंटे नजर आए, बाद में गायब हो गए और आखिरी दिन अनशन तुड़वाने के लिए आने पर कहने पर साफ मुकर गए। टीम अन्ना कभी सभी राजनीतिक दलों से परहेज करती रही तो कभी पलटी और कांग्रेस को छोड़ कर अन्य सभी दलों के नेताओं के साथ एक मंच पर आई। टीम अन्ना की नीयत और नीति सदैव अस्पष्ट ही रही। यही कारण रहा कि शुरू में जो संघ व भाजपा कांग्रेस विरोधी आंदोलन होने की वजह से साथ दे रहे थे, वे खुद को भी गाली पडऩे पर अलग हो गए।

टीम अन्ना दंभ से इतनी भरी है कि वह अपने आगे किसी को कुछ नहीं गांठती। उसने कई बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व अन्य मंत्रियों और नेताओं पर अपमाजनक टिप्पणियां कीं। पिछले साल स्वाधीनता दिवस पर खुद अन्ना ने मनमोहन सिंह पर टिप्पणी की कि वे किस मुंह से राष्ट्रीय झंडा फहरा रहे हैं। यहां तक कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान तो प्रणव मुखर्जी पर आरोप लगाए ही, उनके चुने जाने पर इसे देश का दुर्भाग्य करार दिया। यह बेशर्म सदाशयता ही कही जाएगी कि पहले जानबूझकर प्रणब मुखर्जी का चित्र अपने मंच पर लगाया और बाद में खीसें निपोरते हुए उसे कपड़े से ढंक दिया।

जहां तक टीम की एकता का सवाल है, अन्ना हजारे कहने मात्र को टीम लीडर थे, मगर भीतर अरविंद केजरीवाल तानशाही करते रहे। अकेले उनके व्यवहार की वजह से एक के बाद एक सदस्य टीम से अलग होते गए। एक ओर तो टीम अन्ना लोकतंत्र और पारदर्शिता की मसीहा बनती रही, दूसरी ओर खुद कुलड़ी में गुड़ फोडऩे की नीति पर चलती रही। मौलाना शमून काजमी की टीम से छुट्टी उसी का ज्वलंत उदाहरण है। यह वही टीम है, जिसने सरकार के साथ शुरुआती बहस की वीडियो रिकार्डिंग करवाने की जिद की और दूसरी ओर अन्ना हजारे केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद से गुप्त वार्ता करने से नहीं चूके। पोल खुलने पर उनका चेहरा देखने लायक था, जो हर एक ने टीवी पर देखा।

जो आखिरी अनशन आंदोलन के पटाक्षेप और राजनीति की ओर पहल का सबब बना, वह भी बिना किसी रणनीति के शुरू हुआ। इसका दोष भले ही सरकार को दिया जाए कि उसने उनको इस बार गांठा ही नहीं, मगर यह टीम अन्ना की रणनीतिक कमजोरी ही मानी जाएगी कि नौवें दिन तक आते-आते किंकतव्र्यविमूढ़ हो गई। वजह साफ थी। टीम अन्ना की बेवकूफियों व अपरिपक्वता की वजह से आंदोलन जनाधार खो चुका था। जब भीड़ नहीं जुटी तो उस टीम के होश फाख्ता हो गए, जो कि सबसे पहले व दूसरे अनशन के दौरान अपार जनसमर्थन की वजह से बौरा गई थी। जब मीडिया ने भीड़ की कमी को दिखाया तो अन्ना के समर्थक बौखला गए। उन्हीं मीडिया कर्मियों से बदतमीजी पर उतर आए, जिनकी बदौलत चंद दिनों में ही नेशनल फीगर बन गए थे। यहां तक कि सोशल मीडिया पर केजरवाल को भावी प्रधानमंत्री तक करार दिया जाने लगा।

असल में मीडिया किसी का सगा नहीं होता। वो तो उसने इसी कारण टीम अन्ना को जरूरत से ज्यादा उभारा क्योंकि उसे लग रहा था कि टीम एक अच्छे उद्देश्य के लिए काम कर रही है, मगर टीम अन्ना ने समझ लिया कि मीडिया उनका अनुयायी हो गया है। जैसे ही मीडिया तटस्थ हुआ और आंदोलन की कमियां भी उजागर करने लगा तो आंदोलन की रही सही हवा भी निकल गई। इसी के साथ यह भी साफ हो गया था कि पूरा आंदोलन टीवी व इंटरनेट पर की जा रही शोशेबाजी पर टिका हुआ था।

इस बार बलिदान होने की घोषणा करके अनशन पर बैठे अरविंद केजरीवाल की बुलंद आवाज तब ढ़ीली पड़ गई, जब आठ दिन बाद भी उन्हें सरकार ने तवज्जो नहीं दी। हालत ये हो गई कि अपना अनशन खुद ही तोड़ लेने का फैसला करना पड़ा। और बहाना बनाया इक्कीस लोगों की उस चि_ी को, जिस में पार्टी बनाने की कोई सलाह या उस में शामिल होने की कोई इच्छा नहीं लिखी गई थी। आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर आ कर खड़ा हो गया, जहां मुंह बाये खड़ी जनता को जवाब देना जरूरी था। जवाब कुछ था नहीं, सो आखिर विकल्प के लिए वही रास्ता चुना, जिसके लिए वे लगातार आनाकानी करते रहे। अर्थात सत्ता परिवर्तन की मुहिम। व्यवस्था परिवर्तन तो कर नहीं पाए। हालांकि अधिसंख्य अन्ना समर्थक सहित खुद टीम अन्ना भी यह जानती है कि ये रास्ता कम से कम उनके हवाई संगठन के लिए धन के अभाव में कत्तई नामुमकिन है, मगर नकटे बन कर यही कह रहे हैं कि हम सत्ता परिवर्तन कर दिखाएंगे। अनेक ऐसे भी हैं, जो आंदोलन से जुड़ कर अब पछता रहे हैं कि यदि इसी प्रकार राजनीति में आना था तो काहे को समय बर्बाद किया। जिन्हें लोग असली राष्ट्रभक्त के रूप में सम्मान दे रहे थे, उन्हें अब उसी तरह हिकारत की नजर से देखा जाएगा, जैसा कि वे राजनीतिक कार्यकर्ताओं व नेताओं को देखा करते थे।

कुल मिला कर आंदोलन की निष्पत्ति ये है कि गलत रणनीतिकारों की मदद लेने से लाखों लोगों की आशा का केन्द्र अन्ना हजारे की चमक फीकी हो गई है, अलबत्ता उनकी छवि आज भी उजली ही है। बाकी पूरी टीम तो एक्सपोज हो गई है। शेष रह गया है आंदोलन, जो आज भी आमजन के दिलों में तो है, मगर उसे फिर नए मसीहा की जरूरत है

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  1. राजनीति में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार विरोध की राजनीति का प्रेशरकूकर के तंत्र की तरह सह अस्तित्व है.प्रेशरकूकर में दबाव(भ्रष्टाचार) एक हद तक बढ़ता है तो सेफ्टीवाल्व (भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम) दबाव कम करता है। जनता को इत्मीनान हो जाता है कि अब अँधेरा छटेगा। फिर और अधिक दबाव के लिए मार्ग प्रशस्त होता है, खाद्य पकता रहता है।
    सन १९७४ ई में जयप्रकाश की जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार और सम्पूर्ण क्रान्ति, १९८८ ई में विश्वनाथप्रताप सिंह का बोफोर्स, फिर टीम अण्णा-सिविल सोसायटी का लोकपाल बिल और बाबा रामदेव का कालाधन— सेफ्टी वॉल्ब के लेबल बदलते रहे हैं। नए नए जननायक अभड़ते रहे। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार विरोध साथ साथ पनपते रहे।

  2. अन्ना जी के आन्दोलन के असफल होने का जो फतवा मीडिया और उसके आका नेताओं ने जारी किया है, उसके बारे में निवेदन है की—————–
    # अन्ना आन्दोलन को असफल कहना एक नासमझी है और या फिर एक शरारत. एक ही पक्ष को बढ़ा-चढा कर पेश करना और बाकी पक्षों की अन्देखी कर देना, इससे लगता है कि शरारत है, नीयत की खोट है.
    # देश की समस्याओं की मुख्य जड़ है, देश की समस्याओं के प्रति जनता का जागरूक न होना . इसका एक ही हल है- जनमत का जागरूक हो जाना. फिर दुष्टों की दुष्टता चल नहीं पाएगी. ज़रा देखे कि जनता को जगाने में अन्ना का आन्दोलन कितना सफल या असफल रहा ? ४,००,००० (चार लाख) में से ९६% ने अन्ना को अपना मत देकर राजनैतिक दल बनाने की सहमती दी है. क्या यह देश की जनता के जागने की पहचान नहीं है ? दम हो तो किसी और मुद्दे पर, किसी अन्य नेता के पक्ष में जनमत संग्रह करवा कर देख लें, सच सामने आजायेगा. पर ऐसा करके ये मीडिया वाले अपनी और अपने नेताओं की पोल खोलने की भूल कभी नहीं करेंगे. अतः अन्ना का आन्दोलन अपने उद्देश्य में आशा से अधिक सफल रहा है. इसे असफल बतलाने के पीछे उन डरे हुओं का हाथ है जो जनमत के मनोबल को तोड़ना चाहते हैं, निराशा फैलाना चाहते हैं, किसी भी इमानदार और देशभक्त नेतृत्व के प्रति विश्वास नहीं बनने देना चाहते. क्यूंकि इसमें तो इन दुष्टों का अंत है.
    # क्या राजनैतिक दल चलाना या बनाना क्या केवल दुष्टों, भ्रष्टों का अधिकार है ? अन्ना द्वारा नए दल के गठन की घोषणा को एक गंभीर अपराध, एक बहुत बड़ी भूल, एक धोखे के रूप में प्रस्तुत करने के प्रयास क्यों कह रहे हैं, समझिये. दुर्जनों के एकाधिकार को मिली इस चुनौती ने इनके सिघासन हिला दिए हैं. घबरा गए हैं ये लोग. इनका अस्तित्वा तभी तक है जबतक कोई इमानदार विकल्प देश में खडा नहीं होजाता. भाजपा पर भी काफी दाग लगे हुए हैं, इसलिए उससे बहुत खतरा नहीं, खतरा तो अन्ना और बाबा रामदेव जैसों से है. ( खैर रामदेव जी की तो बढ़िया घेराबंदी करके घोषणा करवा दी है कि वे किसी भी हालत में राजनैतिक दल नहीं बनायेगे. वे अब जो करना है करते रहें, उनसे भी कोई खतरा नहीं रहा. ) पर जब राजनैतिक विकल्प ही नहीं देंगे तो नापसंद दल व सरकार को बदलेंगे कैसे ? बड़ी नासमझी की बात नहीं है यह तो ?
    # अन्ना द्वारा राजनैतिक दल के गठन को प्राप्त जनमत के ९६% का समर्थन स्पष्ट सन्देश है कि देश की जनता का विश्वास किसी भी वर्तमान दल में नहीं बचा.जनता अब अन्ना जी जैसे किसी साफ़ छवी के के नेतृत्व में नए दल का गठन चाहती है. कई लोगों को इस ९६% के समर्थन पर आशंकाएं हैं. कोई बात नहीं, ग्रामीण जनता और देश के अन्य वर्गों में भी सर्वेक्षण करवा के तसल्ली करलें. दम हो तो करवाईये किसी ‘ज़ी’ जैसे चैनल से सर्वेक्षण, सच सामने आजायेगा. अथवा अन्ना के निर्णय को गलत कहने ( जनमत का अपमान करने की बेईमानी न करते हुए ) के बजाय नए दल के गठन को देश के बहुमत का निर्णय मान लेना ही सही होगा.
    # आवश्यक नहीं कि अन्ना, विशेष कर उनके बाकी के साथी कसौटी पर खरे ही उतरें. पर यह यथास्थिती वाले हालत बदलने चाहियें. देश की जनता बार-बार मूल्यांकन करने और उचित परिवर्तन करने की प्रक्रिया शुरू तो करे. एक को परख कर ज़रूरत पड़े तो दुसरे को अवसर दे. यह क्या कि कांग्रस और भाजपा का फिक्सिंग मैच चलता ही रहे और देश के जनता इन्हें ढोती रहे?
    # लोकपाल जैसे किसी बिल-विल के पास होने से इस सरकार का चरित्र व देश के हालात बदलेंगे , इसकी आशा करना एक नासमझी, इन लोगों के चरित्र और परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करने की अक्षमता का परिचायक है. लोकपाल बिल की मांग का केवल एक ही उपयोग होना था जो कि हुआ, इस सरकार की नीयत पर पडा पर्दा कुछ हटा, जनता जागृत हुई. अन्ना ने भी ऐसा सोचा न होगा. वे इस भ्रम में रहे कि जैसे पहले अनेक आन्दोलन करके वे अपनी अधिकाँश मांगे मनवाने में सफल होते आये, इस बार भी होंगे. पर उन और इन हालात का मूल्यांकन करने वे चूक गए. पर प्रभु की योजना से उनके आन्दोलन को इसी मोड़ पर पहुँचना था और वे पहुँच गए. अबतक की उनकी या कहें कि जनता की सफलता उल्लेखनीय व उत्साह जगाने वाली है. निसंदेह आगे (दिसंबर के बाद) यह सफलताओं का क्रम बड़ी तेज़ गति से चलने वाला है. केवल दिसंबर तक देशभक्तों और सज्जनों के लिए विकट और संघर्ष का काल शेष बचा है. फिर बस विजय ही विजय है.

    • सामयिक विश्लेषण.ऐसी आशावादिता ही भविष्य के लिए मार्ग दर्शक साबित हो सकती हैआपने ठीक कहा कि ” आवश्यक नहीं कि अन्ना, विशेष कर उनके बाकी के साथी कसौटी पर खरे ही उतरें. पर यह यथास्थिती वाले हालत बदलने चाहियें’ जब तक हम इस यथा स्थिति के चक्र व्यूह से बाहर नहीं आयेंगे,तब तक हम किसी परिवर्तन को सफल नहीं होने देंगे. भारत की जनता को अपनी प्रगाढ़ निद्रा से बाहर आना है.उसे जागना है.सचेत होना है. तभी कुछ अच्छे की उम्मीद की जा सकती है.आपने यह भी ठीक ही कहा कि,” यह क्या कि कांग्रस और भाजपा का फिक्सिंग मैच चलता ही रहे और देश के जनता इन्हें ढोती रहे?”

  3. अन्ना हजारे अपने जन क्रांति आन्दोलन मे सफल है |किरण बेदी पर जो आरोप था वह पूरी तरह गलत , झूठा , निराधार साबित हुआ |पिता और पुत्र की जोड़ी तो शुरु से ही उचित नहीं है टीम अन्ना मे |सरकार अपने कुकृत्य मे सफल हो गयी फिल हाल||यह समय अनसन का नहीं है , हां अहिंसात्मक आन्दोलन करना चाहिए परन्तु अपनी जान की बाजी दाव पर नहीं लगाना चाहिए अनसन और उपवास करके |इस युग की पुकार यही है की अपने को स्वस्थ रखते हुए ही हम देश के लिए काम कर सकते है |मै तो व्यक्तिगत रूप से किसी को भी यह अपनी जान इस तरह से अनसन के द्वारा दाव पर लगाने की सलाह नहीं देती |स्वामी रामदेव जी ने और आचार्य बालकृष्ण जी ने योग और आयुर्वेद की शिक्षा दी हमे | जीना सिखाया और सिखा रहे है |सरकार ने इतनी बडे संत को जेल में रखा है और पता नहीं उनपर क्या गुजर रही है |अन्ना और भारत स्वाभिमान एकसाथ मिलकर देश के लिए काम कर रहे है और करेगे|

    • आप गलत कह रही हैं, किरण गेदी ने तो खुद की अपनी गलती स्वीकार कर ली थी

  4. अन्ना और जे पी की कुछ लोग तुलना कर देते हैं जो मेरे विचार में सही नहीं है. जे पी एक उच्च शिक्षित अनुभवी और तपःपूत थे जिन्होंने क्रन्तिकारी से गाँधीवादी फिर समाजवादी फिर सर्वोदयी फिर सम्पूर्ण क्रांति के लम्बे अनुभव प्राप्त किये और अपने हर दौर के विचारों को पूरी स्पष्टता के साथ लिखा और कहा.उनका सम्पूर्ण साहित्य वास्तव में एक मनस्वी की विचार यात्रा का सबल प्रमाण है.सम्पूर्ण क्रांति से पूर्व उन्हें इंदिराजी ने बंगलादेश (उस समय पूर्वी पाकिस्तान) से आये करोड़ों शरणार्थियों के विषय में और पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान में चलाये गए दमन चक्र के बारे में विश्व जनमत जगाने के लिए विभिन्न देशों के राज्याध्यक्षों से वार्ता के लिए अपने विशेष दूत के रूप में भेजा था. दुर्दांत डाकू भी आत्मसमर्पण के लिए उन्ही के समक्ष हथियार डालते थे.१९७३ में उनकी पत्नी प्रभाजी की मृत्यु के बाद उन्होंने रामनाथ गोएंका जी के सहयोग से एक साप्ताहिक विचार प्रधान अख़बार “एवरिमेंस वीकली” निकलना शुरू किया था जिसमे अपने विचारों को स्पष्टता से रखा था और उसमे अपनी प्राथमिकताओं के बारे में ” फर्स्ट थिंग्स फर्स्ट” शीर्षक से प्राथमिकतायें गिनाई थीं. उन्होंने ग्रामीण विकास के लिए “वांटेड ऐ इन्डियन विलेज सर्विस” लेख लिखा था. और ९ दिसंबर १९७३ को देश के युवाओं को देश में लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आने का आह्वान किया था उसके तीन दिन बाद हमने देहरादून में एह बेरोजगार युवा मंच की स्थापना की थी और चार दिन बाद अर्थात १३-१४ दिसंबर १९७३ को अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ में वहां के शिक्षा मंत्री डॉ. अमूल्य देसाई के आगमन पर विद्यार्थियों द्वारा छात्रावास के मेस की फीस वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शन किया जिस पर अमूल्य देसाई को भागने पर मजबू होना पड़ा. जे पी को रास्ता मिल गया और उन्होंने नव निर्माण आन्दोलन शुरू कर दिया. उसके बाद बिहार में डॉ जगन्नाथ मिश्र की सर्कार के खिलाफ आन्दोलन छिड़ गया और नवम्बर १९७४ में पटना में प्रदर्शन का नेतृत्व करते समय पुलिस द्वारा जेपी को मरने की पूरी योजना थी उन पर लाठी का भरपूर प्रहार किया गया था जो यदि उन पर पद जाता तो उनका वृद्ध शरीस शायद झेल न पता और एक और लाला लाजपत राय कांड हो जाता. लेकिन उनके साथ साथ चल रहे नानाजी देशमुख ने देख लिया और उन्हें एक तरफ करके खुद पर वार ले लिया और अपनी हड्डियाँ तुडवा बैठे. जे पी ने इंदिराजी से करप्शन के मुद्दे पर बातचीत के बाद ही घोषित किया था की “टुडे प्राईम मिनिस्टर इज द फाऊंटेन हेड ऑफ़ करप्शन”.लेकिन उन्होंने सबसे पहले ये देखा की उस समय देश में एक सफल आन्दोलन चलाने की क्षमता किस दल या संगठन में है और उसके बाद ही उन्होंने आर एस एस के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरस जी से तथा भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष लाल क्रिशन अडवाणी व नेता अटल बिहारी वाजपेयी से वार्ता की और उनका भरपूर सहयोग लिया. दुर्भाग्यवश इमरजेंसी लगने और सभी नेताओं को जेलों में बंद कर देने के कारन उनका आन्दोलन अपने मूल उद्देश्य से हट गया और इंदिरा गाँधी की तानाशाही सरकार को हटाने के लिए केवल बारह दिन में जनता पार्टी का गठन किया गया.ये अलग बात है की सत्ता परिवर्तन के बाद कुछ नेता के जी बी के षड़यंत्र के तहत उस सर्कार को भीतरघात के जरिये तोड़ने और जे पी के प्रयोग को असफल करने का कारण बने.जे पी की मृत्यु ने उस प्रयोग पर विराम लगा दिया. वास्तव में के जी बी के षड्यंत्र की जानकारी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर द्वारा तत्कालीन भारतीय राजदूत नानी पालखीवाला को दी थी जो उन्होंने अपने हस्तलिखित नोट के जरिये तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को देदी थी लेकिन हमारे मोरलिस्ट प्रधान मंत्री मुरारजी देसाई ने उसे नहीं माना और षड्यंत्र सफल हो गया.
    अन्नाजी को ऐसा कोई व्यापक राजनीतिक अनुभव नहीं है. वो सीधे सादे ग्रामीण हैं जिन्होंने अपने गाँव में एक आदर्श समाज के निर्माण के लिए काम किया और रालेगांव सिद्धि को आदर्श गाँव बनाया. उनके इस कार्य को सबसे पहले देशवासियों के सामने लाने का कार्य उस समय के आर एस एस के सरकार्यवाह हो वे शेशाद्रीजी जी ने अपनी पुस्तक “रालेगांव का एक आदर्श कर्मयोगी” के माध्यम से किया. सारे देश व दुनिया को उनके काम का पता चला. और जगह जगह संघ के स्वयंसेवकों ने उस कार्य से प्रेरणा ली.आज देश भर में संघ के स्वयंसेवकों द्वारा लगभग डेढ़ लाख से ज्यादा पूर्णकालिक सेवा प्रकल्प चलाये जा रहे हैं. है कोई और उदहारण ऐसे प्रसिद्धि से विमुख रहकर समाज के लिए अनवरत काम करने का?लेकिन अन्नाजी ने अपने चाटुकार और घमंडी सहयोगियों के बहकावे में आकर संघ को ही बुरा भला कहा और अपनी साख गिराई. मंच से भारतमाता के चित्र हटाने का कार्य क्या सन्देश देता है? भारतमाता की जय के नारों पर ऐतराज करने वालों के तलुवे चाटना क्या सन्देश देता है?आंध्र प्रदेश में आना के भ्रष्टाचार विरोधी ‘जनआन्दोलन’ के बावजूद जगन मोहन रेड्डी की पार्टी के अठारह में से पंद्रह केंडीडेट का जीतना क्या साबित करता है? यही की अन्ना का आन्दोलन केवल कुछ वर्गों तक सीमित होकर रह गया और इसमें सर्कार द्वारा अन्ना के निकट सहयोगियों के विरुद्ध अनैतिक आचरण के मामलों का प्रकाशित करना भी एक वजह बना जिससे सहयोगियों के कारन अन्नाजी की साख भी गिरी.
    बहरहाल अब देखना है की राजनीतिक पारी में अन्नाजी और उनके साथी कितने कामयाब हो पाते हैं. अभी तो उनका अजेंडा सामने आना बाकि है.

    • बेशक अन्ना में न तो गांधी जी जैसी महानता है और ही जेपी जैसे शिक्षित हैं, इस टीम चला ही केजरीवाल रहे थे

      • ऐसे आपलोग माने या न माने पर अन्ना का करिश्मा केवल गांधी से पीछे है.विद्वता में जेपी गांधी से आगे थे,पर गांधी वाला करिश्मा उनमे नहीं था.आज अन्ना हजारे में वही कुछ देखने को मिल रहा है,जो शायद लोगों को गांधी में दिखा था.अगर विश्वनाथ प्रताप सिंह ,जो कि राजीव गांधी के पाप में भागीदार थे, केवल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस को मात दे सकते थे तो कोई कारण नहीं कि अन्ना के वरद हस्त के साथ बनने वाली नई पार्टी क्रांति नहीं ला सकती?

        • वी पे सिंह अकेले कुछ नहीं कर पाए थे. उनके साथ उस समय चंद्रशेखर,रामधन, रामबिलास पासवान, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव तथा भाजपा और वामपंथी सभी शामिल थे और उनकी सर्कार भी भाजपा और वामपंथियों के बाहरी समर्थन से बनी थी. लेकिन उन्होंने समाज को तोड़ने का पाप किया और सेंकडों नौजवान जातीय संघर्ष में शहीद हो गए. वी पी सिंह का सारा भ्रष्टाचार विरोध प्रधान मंत्री बनते ही समाप्त हो गया और उन्होंने बोफोर्स कांड में कुछ नहीं किया.

          • आप बताने की कृपा करेंगे कि बोफोर्स के मामले में श्री अटल बिहारी बाजपेई के नेतृत्व में एन.डी.ए सरकार ने क्या किया?

  5. तेजवानी जी आपने जो कुछ लिखा है अगर सब पर स्वीकृति की मुहर लगा भी दी जाए,तो आखिर अन्य विलल्प क्या है?
    ऐसे अगर आपको मनमोहन सिंह पर कीचड उछालने में एतराज है तो आप बता सकते हैं कि २जी घोटाले में जब राजा जेल जा सकते हैं तो कोयला घोटाले में मनमोहन सिंह क्यों नहीं?
    टीम अन्ना ने जिस भी मंत्री पर इल्जाम लगाया है,उसमे किस मंत्री पर उन्होंने अकारण इल्जाम लगाया है.?प्राथमिक रूप में किस पर जांच नहीं आरम्भ नहीं किया जा सकता?
    आज की हालात में कौन जांच एजेंसी अपने आकाओं के विरुद्ध जान च कर सकती है?
    कल मैं आप की अदालत में किरण बेदी को देख रहा था .दर्शकों में एक बुजुर्ग दम्पति भी था.उन्होंने कहा कि आन्दोलन चलना चाहिए था,एक केजरीवाल अगर मर जाते तो उनकी जगह कोई दूसरा ले लेता.मैं वहां नहीं था,वर्ना मैं यह पूछता कि क्या आप अपने बेटे को वह जगह लेने को भेजेगी?
    अघर मुझसे पूछिए तो यह एक ऐसा खेल चल रहाथा,जिसमें सरकार उनलोगों को दफनाने का पूरा इंतजाम कर चुकी थी.जनता भी जान चुकी थी कि सरकार इनके मांगों को मानने वाली नहीं.तब ऐसे में अन्ना और उनकी टीम विकल्प क्याथा?/क्या वे जान दे देते या फिर भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से किनारा कर लेते?अगर नहीं तो तीसरा संभावित मार्ग यही था ,जिसपर वे चलना चाहते हैं.हो सकता है कि उनको बहुमत मिल जाए और वे सरकार बनाने में समर्थ हो जाएँ.तब उनकी असली परिक्षा की घड़ी आयेगी.होसकता है कि जनता उनको एकदम नकार दे,उस हालात में उन्हें यह तो पता चल ही जाएगा कि जिनके लिए वे लड़ रहे थे,वे इस वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट हैं औए उसमे कोई परिवर्तन नहीं चाह्ते तब उन्हें जनता के लिए लड़ने की आखिर क्या आवश्यकता?अगर वे कुछ क्षेत्रों में चुनाव जीतने में सफल हो गए और उनमे से कुछ संसद तक पहुँच गए तो कम से कम आज से तो बेहतर पोजीशन में होंगे.कोई उनके पक्ष में आवाज उठाने वाला तो हो जाएगा.
    ऐसे मैंने स्वतन्त्र भारत के सभी चुनाव देखे हैं .प्रथम चुनाव को छोड़कर ,जबकि मैं बहुत छोटा था अन्य चुनावों का अच्छी तरह ज्ञान है,उस अनुभव के बल पर मैं कह सकता हूँ कि अगर ये लोग अगले डेढ़ साल तक अनवरत परिश्रम करके जनता का विष्वास जीतने में सफल हो गए तो इनकी जीत आसान हो जायेगी.पूर्वाग्रह युक्त लोग ये न भूले कि महात्मा गांधी के बाद अन्ना हजारे ही ऐसे नेता सामने आये हैं जिनका करिश्मा जनता तक पूर्ण रूप से पहुंचा है.जयप्रकाशनारायण भी बहुत लोकप्रिय थे पर वे विवादस्पद भी कम नहीं थे.वे समाज वादी पार्टी को छोड़ कर सर्वोदय आन्दोलन के हिस्सा बने थे और सर्वोदय आन्दोलन के जीवन दानियों मेसे एक थे,पर धीरे धीरे जनता उनको भूलती जा रही थी.इसी बीच भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों का जो गुजरात और बिहार में पनप रहा था उनको नेता बनाया गया.बाद में जो हुआ वह तो अब भारतीय इतिहास का एक काला पृष्ठ बन चूका है.जब विश्वनाथ प्रताप सिंह राजीव गांधी के मंत्री मंडल का सदस्य रह कर जनता को भ्रष्टाचार के नाम पर जगा सकते थे तो अन्ना तो उनसे बहुत आगे हैं,अतः उनके टीम द्वारा पार्टी बनाए जाने को कम महत्त्व मत दीजिये.

    • आप वही कह रहे हैं जो मैने कहा है, असल में अपनी गलतियों व लापरवाहियों की वजह से ही टीम अन्ना ऐसी जगह आ कर खडी हो गई, जहां उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था, यह उनकी रणनीतिक भूल ही तो कहलाएगा

      • नहीं,यहीं मेरे और आपके विचारों में अंतर आ जाता है,मैं यही कह सकता हूँ कि आज के राजनीतिक परिवेश को समझने का जहां तक प्रश्न है,मेरी विचार धारा दूसरों से भिन्न है. जहां अन्य लोग किसी न किसी पार्टी के समर्थक हैं या किसी मत से प्रभावित हैं,वहीं भारत में ऐसा कोई राजनीतिक नेता नहीं मिला,जिसपर मैं पूर्ण विश्वास कर सकूं.इस हालात में मैं हमेशा चाहता हूँ कि एक नयी पार्टी बने जो इन सब से अलग हो और वह नैतिक मूल्यों पर आधारित हो.वह लेन देन के व्यापार से कुछ ही देर के लिए सही अलग हो.जनता पार्टी के चुने हुए सांसदों ने जब महात्मा गांधी की समाधि पर शपथ लेकर अपना कार्य काल आरम्भ किया था तो थोड़ी आस बंधी थी.पता नहीं आपलोग उस समय के निर्वाचित प्रधान मंत्री मोरार जी देसाई के बारे में क्या विचार रखते हैं,पर मैं उनको ईमानदारी के सोपान पर बहुत ऊपर मानता हूँ.उनके साथ मैं केवल लाल बहादुर शास्त्री और कुछ हद तक गुलजारी लाल नंदा को ही रखता हूँविश्वनाथ सिंह भी मेरी नज़रों में ईमानदार थे,पर उन्होंने जो अकल्याण भारत का और खास कर हिन्दुओं का किया है ,उसके लिए मैं उनको हमेशा दोषी मानता रहूँगा..
        अब बात आती है, टीम अन्ना के अनशन तोड़ने और पार्टी निर्माण की घोषणा की ..मैं जानता था कि कोई भी पार्टी जन लोक पाल का समर्थन नहीं करेगी.मैंने बहुत पहले अपनी एक टिप्पणीमें लिखा था कि पता नहीं कांग्रेसी इतने मूर्ख क्यों हैं?अगर वे जन लोकपाल के समर्थन में भी खड़े हो जाएँ ,तो एक तीर से दो शिकार कर लेंगे.जन लोकपाल बिल तो फिर भी पारित नन्हीं होगा,पर अन्य पार्टियाँ कठघरे में खडी हो जायेगी,पर ऐसा नहीं हुआ.टीम अन्ना क्या ,पूरी जनता को इत्मीनान हो चूका था कि यह सेट अप जन लोक पाल बिल नहीं लाएगा.तुर्रा यह कि कांग्रेस के नुमाइंदे बार बार इनको चिढा रहे थे कि अगर जन लोक पाल लाने का इतना ही शौक है,तो संसद में आओ और बिल पारित कराओ.मुलायम सिंह के वक्तव्य और राजनीति प्रसाद के संसद के नाटक को भी आपलोग नहीं भूले होंगे.अंग्रेज भले हीं अनशन से डर गए हों,पर ये क्रूर और धूर्त जिन्हें हमने अपना प्रतिनिधि चुना है,उनको किसी के मरने जीने का कोई ख्याल नहीं वे तो इनको दफ़नाने के लिए पूरी तैयारी कर चुके थे,उस हालात में इनके पास अन्य रास्ता कौन बचा था?

        • लीजिए महाशय अब तो टीम अन्ना ही भंग हो गई, इससे बडा धोखा नहीं हो सकता

          • तेजवानी जी शायद आपने अन्ना का सम्पूर्ण व्यक्तव्य नहीं पढ़ा ,नहीं तो आप ऐसा नहीं कहते.टीम अन्ना का गठन जिस खास काम के लिए हुआ था,अब तो सीधे सीधे शब्दों में उसमे बदलाव आ गया है.हो सकता है कि प्पहले वाली टीम के कुच्छ सदस्यों को नया सेट अप उनकी पसंद के अनुरूप नहीं हो या कुछ नए सदस्य नए रूप में इससे जुड़ना चाहें,उस हालात में नयेरूप में टीम का संगठन आवश्यक है.यहाँ स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस के भंग करने के गांधी के सलाह्के साथ तो तुलना नहीं की जा सकती,क्योंकि वहाँ एक उद्देश्य में सफलता हासिल हो चुकी थी,पर अगर कांग्रेस को उस समय भंग कर दिया गया होता तो शायद भारत की दशा आज की अपेक्षा बेहतर होती.

        • ऐसा प्रतीत होता है कि आप भी टीम अन्ना के ही सदस्य है, अघोषित, संभव है आपको केजरीवाल की तरह अन्ना से भी ज्यादा जानकारी हो, इतनी व्याख्या तो खुद अन्ना भी नहीं कर सकते, जितनी आप कर रहे हैं

          • तेजवानी जी,पहले विचार आया था कि मैं आपकी इस टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया न करूँ .फिर सोचा कि आपको निराश क्यों किया जाए?आपने शायद मेरी उस टिप्पणी के प्रारंभिक अंश भी नहीं पढ़े,जहाँ मैंने लिखा है, “नहीं,यहीं मेरे और आपके विचारों में अंतर आ जाता है,मैं यही कह सकता हूँ कि आज के राजनीतिक परिवेश को समझने का जहां तक प्रश्न है,मेरी विचार धारा दूसरों से भिन्न है. जहां अन्य लोग किसी न किसी पार्टी के समर्थक हैं या किसी मत से प्रभावित हैं,वहीं भारत में ऐसा कोई राजनीतिक नेता नहीं मिला,जिसपर मैं पूर्ण विश्वास कर सकूं.इस हालात में मैं हमेशा चाहता हूँ कि एक नयी पार्टी बने जो इन सब से अलग हो और वह नैतिक मूल्यों पर आधारित हो.वह लेन देन के व्यापार से कुछ ही देर के लिए सही अलग हो.जनता पार्टी के चुने हुए सांसदों ने जब महात्मा गांधी की समाधि पर शपथ लेकर अपना कार्य काल आरम्भ किया था तो थोड़ी आस बंधी थी.पता नहीं आपलोग उस समय के निर्वाचित प्रधान मंत्री मोरार जी देसाई के बारे में क्या विचार रखते हैं,पर मैं उनको ईमानदारी के सोपान पर बहुत ऊपर मानता हूँ.उनके साथ मैं केवल लाल बहादुर शास्त्री और कुछ हद तक गुलजारी लाल नंदा को ही रखता हूँविश्वनाथ सिंह भी मेरी नज़रों में ईमानदार थे,पर उन्होंने जो अकल्याण भारत का और खास कर हिन्दुओं का किया है ,उसके लिए मैं उनको हमेशा दोषी मानता रहूँगा..”
            मैं नहीं समझता कि इसके आगे मुझे कुछ कहने की आवश्यकता है.

  6. लेखक की विचार शैली शानदार है और बेवाकी से अपनी बात कही है, लेकिन अन्ना टीम का आगे क्या होने वाला है, इस बारे में उनकी प्रस्तावित पार्टी के एजेंडे के सामने आने के बाद ही ज्ञात हो पायेगा की ये टीम चाहती क्या है? क्योंकि अकेले भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तो कोई भी पार्टी देश की सत्ता या व्यवस्था बदल नहीं सकती?

    • डाक्टर मीणा, मैं भी जानता हूँ कि केवल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चुनाव लड़ना उतना आसान नहीं है,पर आपात काल के पहले का आन्दोलन और १९७७ के चुनाव और उससे भी बढ़कर जनता पार्टी के विघटन के ठीक नौ वर्ष बाद यानि १९८९ में राजीव गाँधी को केवल एक मुद्दे पर हरा देना,इस बात का प्रमाण है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों का जनता बहुत सम्मान करती है,पर कौन कहता है कि ये लोग केवल भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाएं?उनके पास तो बना बनाया घोषणा पत्र है,जिसकी एक झलक प्रवक्ता के पन्नों पर मौजूद है.उस झलक में उनको कुछ सुझाव भी दिए गए हैं.मैं समझता हूँ कि उस घोषणा पत्र में मेरे द्वारा सुझाये गए बातों को भी सम्माहित कर लेँ तो उनका जीतना आसान हो जाएगा.संक्षेप में उन्हें केवल तीन सलोगन अख्त्यार करने हैं.
      १.जन लोक पाल और भ्रष्टाचार का उन्मूलन.
      २.भारत के प्रत्येक घर और प्रत्येक छोटे बड़े उद्योग को वहन करने योग्य मूल्य पर बिजली.
      ३.हर हाथ को काम और हर पेट को रोटी.
      इस पर किसी भी आगे की बहस के लिए मैं तैयार हूँ

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