लेख

त्याग, विवेक और कर्मठता की त्रिवेणी श्री. रमेश पटेल

डॉ. मधुसूदन (एक)
 त्याग, विवेक और कर्मठता का त्रिवेणी संगम:

त्याग विवेक और कर्मठता का त्रिवेणी संगम, वो भी इस भौतिक अमरिका में प्रत्यक्ष देखने के लिए आपको, विश्व हिन्दू परिषद यु. एस. ए. के कार्यकर्ता श्री. रमेश पटेल के परिवार को मिलने कनेक्टिकट (यु.एस.ए.) राज्य जाना होगा। इस कार्यकर्ता के साथ साथ उनकी (रमेश जी की) अर्धांगिनी  श्रीमती मंजुबहन का भी शत प्रतिशत सहकार इस परिवार की उदारता एवं पूर्व-संस्कार दर्शाता है। और दो सुपुत्र हरीश और राजेश भी इसी में जोड दीजिए। 
यह सच्चा और वास्तविक आलेख शायद (?) अतिशयोक्ति माना जाएगा। यह विरल अवश्य है, इस लिए, संदेह हो सकता है, कि, क्या साधारण संसारी व्यक्ति  ऐसा सांस्कृतिक योगदान कर सकता है? 
पर इस परिवार को मैं ४५ वर्षों से जानता हूँ। यु. एस. ए. की विश्व हिन्दू परिषद संस्था  भी ऐसे सक्षम और सशक्त आधार-स्तंभोपर सफलता के सोपान चढते आई है। यह आलेख कोई अतिशयोक्ति नहीं । 

(दो)
विवेक और कर्मठता

विवेक और कर्मठता का अनुसरण अपनी शक्ति-बुद्धि और विवेक से करनेवाला, और ऐसा आदर्श अपने आचरण में उतारने की चेष्टा करनेवाला व्यक्तित्व!  वो भी इस भोगवादी अमरिका में मिलना , किसी आश्चर्य से कम नहीं। मैं भी इस व्यक्तित्व से अतीव प्रभावित रहा हूँ।
इस व्यक्ति के लिए, सारांश में दो शब्द लिखनेका यह अवसर मेरा भाग्य है।
आपको संदेह हो सकता है। कि, क्या यह कथन प्रामाणिक है? क्या यह सत्य अभिव्यक्ति है? मैं अतिशयोक्ति भरा विधान तो नहीं कर रहा ? कोई माने या न माने? लेखक अपने विचारों की अभिव्यक्ति ही कर सकता है। जो उसे दिखाई देता है, उसे ही उजागर कर सकता है। और मैं  सच-मुच इस व्यक्ति से प्रभावित हूँ।  
प्रचुर सामग्री जो मित्रों ने भेजी है, एक चरित्रात्मक पुस्तक की योग्यता रखती है।  उसपर आगे आलेख डालूँगा। 
(तीन)
विशेष संदर्भ:


अभी अभी रांची मे ३१ जुलाई २०१९ के दिन, अपने भाषण में, सर-संघचालक डॉ. भागवतजी ने संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों से कहा कि 
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“वे अपने कनिष्ठों से खुलकर संवाद करें। कनिष्ठ प्रचारकों की हर समस्या का निवारण करें। संवाद से ही नए विचार सामने आते हैं। (और)संघ प्रमुख ने स्वयंसेवकों को सामाजिक परिवर्तन लाने की दिशा में काम करने का सुझाव दिया। (कहा) आदर्श स्वयंसेवक सेल्फी और आत्मश्लाघा से दूर रहकर कार्य करता है।” 
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सरसंघचालक जी का यह आदेश मुझे इस कार्यकर्ता का स्मरण दिलाता है। जिसने इसी राह पर चलकर कार्य किया, और कार्यका विस्तार  किया। प्रसिद्धि से भी दूर रहा है। उसका परिचय कराने की दृष्टिसे यह आलेख। 
(चार)
अमरिका के भारतीय प्रवासी में सामाजिक परिवर्तन:
१९७०-८० के कालावधि में, यह  पढा लिखा प्रतिष्ठित  और उच्च शिक्षित भारतीय अभियंता (इन्जिनियर)  अमरीका में प्रवासी भारतीय समाज की एक विशेष आवश्यकता अनुभव करता है। और समर्पित प्रतिबद्धता से उस आवश्यकता की पूर्ति करने कमर कसता है। सप्ताह के पाँच दिन व्यवसाय में और घर ग्रहस्थी के कर्तव्यों में बिताने के उपरांत, शनि-रवि (सप्ताहांत) पर एक अभिनव उपक्रम आरंभ करता है। 
क्या करता है वह ? सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति ? 
(पाँच) 
क्या थी समाज की आवश्यकता? 
यह आवश्यकता थी संस्कारी प्रवासी भारतीयों के घरो में विशेष प्रसंगों पर पूजापाठ की। पर यह पुरोहित पूजापाठ तो करता ही करता, और साथ साथ अपनी प्रस्तुति से युवा वर्ग एवं माता पिताओं को सत्संग के साथ साथ संस्कार भी प्रदान करता। व्यासपीठ का ऐसाअधिकार  वक्ता को श्रवणीय बनाने में सहायक होता। ऐसे सत्संग का उपयोग कर इस पश्चिमी देश में यह कर्म से बना ब्राह्मण -पण्डित संस्कार प्रदान करने में सफल हो गया। इस व्यक्ति की प्रसिद्धि विन्मुखता, और ख्याति की चिंता से मुक्त निःस्वार्थी व्यवहार की गाथा सारे कनेक्टीकट और पडोसी राज्यो में बसे प्रवासी भारतीय समाज में फैली है।
(छः)
प्राकृत धर्म दर्शन:
प्राकृत दर्शन में कहा गया है।
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कम्मुणा जाई बभ्भणो। कम्मुणा जाई खत्तियो॥ 
कम्मुणा जाई वैस्यो। (और) कम्मुणा जाई सूद्रो॥
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इस श्लोक को जैन धर्म दर्शन में पढा हुआ स्मरण है। कहा है, (कम्मुणा) कर्म से ही ब्राह्मण (बभ्भणो), क्षत्रिय (खत्री वा खत्तियो) और वैश्य एवं शूद्र बन जाता है। तो जो गुजराती वैश्य परिवार में जन्मा पर कर्म से ब्राह्मण बन गया, ऐसे अपवादात्मक व्यक्ति का परिचय कराने में मुझे  भी एक कर्तव्य पूर्ति का आनंद हो रहा है। इस पुरोहित  की ऐसी सेवा का उपक्रम किसी स्वार्थ से प्रेरित नहीं था। 
(सात)
सात लाख डालरों का दान:
विभिन्न प्रकार के विधि प्रसंग हुआ करते थे। नवजात बालक का नामकरण, सत्य नारायण की कथा वार्ता और पूजा, वाग्दान विधि,विवाह विधि…..  जन्म दिन पर स्‍नेहमिलन, अंत्य विधि, इत्यादि।इन प्रसंगोपर जो  बिना माँगे, स्वैच्छिक दक्षिणा मिलती उसका  एक पैसा भी रखे बिना इस पुरोहित नें ६ से ७ लाख डालर विभिन्न प्रकल्पो में दान कर दिए।  स्वयं एक पेनी भी नहीं रखी। 
अपना सप्ताहान्त दिया, कार से मीलों जाकर ईंधन का खर्च स्वयं उठाया। साथ साथ  श्रीमती मंजु बहन भी सदैव प्रोत्साहक रही। इन सारे घटकों का मूल्य  यदि जोडा जाए, तो इस परिवार का  योगदान दोगुना अवश्य हो जाएगा। प्रायः १५ लाख डालर से भी ऊपर। 
(आठ) कनेक्टिकट का परिसर सारे कनेक्टिकट के परिसर में फैले थे प्रवासी भारतीय। और यह व्यक्ति रहता था कनेक्टिकट के एक नगर में। स्वयं व्यस्त भी था। अपने परिवार का भरण पोषण और बालकों पर सफल संस्कार करने के उपरान्त विश्व हिन्दू परिषद (यु एस ए ) का एक केंद्रीय कार्यकर्ता के नाते सारे उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के पश्चात और कुछ कार्य  जीवन-चर्या में सम्मिलित करना  कैसे संभव हुआ? अचरज तो था, पर इस व्यक्ति ने यह करके दिखाया।
जब अन्य  भारतीय प्रवासी अपनी निजी  और संकीर्ण वैयक्तिक उन्नति की चूहा दौड में डूबे होते थे, और डालरों के पीछे दिन रात भागते  फिरते थे, उस समय यह भगवान का बंदा, भारत पुत्र सेवा व्रत निर्वाह कर रहा था। 
(नौ)
पारिवारिक उत्तरदायित्व 
अपना पारिवारिक उत्तरदायित्व निर्वहन करना, कभी कभी  सप्ताहांत (शनि-रवि) में परिषद की बैठकें भी हुआ करती थी, उसमें भी केंद्रीय नेतृत्व का उत्तरदायित्व संभाल कर, बढ चढ के भाग लेता। इसके उपरांत जो सप्ताहान्त बचते, उनमें यह भारत-पुत्र  अपने आस पास के गांवों के भारतीय घरों में पूजा और आवश्यक विधि के लिए बुलाया जाता।    
विशेष  ये १९७०-८० का काल था, प्रवासी भारतीयों की  संख्या भी विरला ही थी। मन्दिर भी दूर दूर तक स्थापित नहीं हुए थे। 
तब प्रवासी भारतीय समुदाय को इसकी आवश्यकता बडी तीव्रता से अनुभव होती थी।

(दस)
यह आवश्यकता आध्यात्मिक थी
वह आवश्यकता आध्यात्मिक थी। धार्मिक थी। सांस्कृतिक थी। क्योंकि मनुष्य  मात्र सामाजिक प्राणी नहीं है। 
उसे आध्यात्मिकता की भी आवश्यकता होती है। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा सारे अंगोपांगों की अपनी अपनी विशेष आवश्यकता होती है।
उन आवश्यकताओं की पूर्ति किए बिना मनुष्य अधुरापन अनुभव करता है। और इस  अधुरेपन की  पूर्ति सारे चतुरपुरुषार्थों के पीछे पडे बिना संभव नहीं होती।
पर  पुरुषार्थ की व्याख्या भी वही हैं, जिनके पीछे पडने से,  सुखकी दिशा में अग्रसर हुआ जाता है। पुरुषार्थ और परशु और अंग्रेज़ी pursue का मूल शब्द भी यही प्रतीत होता है, और  इसी अर्थ में कहा गया है। 
इस पश्चिम के देश और संस्कृति  में अर्थ और काम वासना की पूर्ति पर ही अधिकांश लक्ष्य केंद्रित होता है, इस लिए धर्म और मोक्ष का  मूल्यांकन भी आर्थिक परिमाणों के आधार पर होता है। इसी के चलते मानसिक तनाव इस समृद्ध देश में पनप रहा है।
पर हमारे शास्त्र स्पष्ट कहते हैं।
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आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्येतद पशुभिर्नराणाम्‌॥
इन पाशवी सामन्यताओं से ऊपर उठे बिना और धर्म का पुरुषार्थ जीवन में सधे बिना मनुष्य संतुष्ट नहीं हो सकता। और इन से ऊपर उठने के लिए, समाज को ध्रर्म  की जानकारी भी आवश्यक होती है।
(11)
 चारों पुरुषार्थों की साधना से संतुलित प्रगति 
वास्तव में, चारों पुरुषार्थों के पीछे पडे बिना मनुष्यको संतुलित प्रगति की दिशा ही नहीं मिलती।
इस उद्देश्य से, यह पुरोहित अपने सत्संग में विभिन्न विषयों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य़ में रखता। 
 समाज फैला हुआ था। मंदिर अल्प थे। जो थे वे दूर दूर बडे नगरो में  थे। इच्छुक समाज भी  मंदिर जा नहीं पाता था।
तो यह ’महम्मद ही पर्बत के निकट  जाता और सत्संग कर इस की पूर्ति कर सफल होता।’ 
पूरे संदर्भ  में जानकार जानते हैं; और  धर्मगंथ आगे कहते हैं।
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आहार निद्रा भय मैथुनं च॥
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये घटक तो मनुष्य और पशुओं में समान है । मनुष्य  में
विशेष धर्म का घटक  विशेष है। और कहा है, कि, बिना धर्म का मनुष्य  पशुतुल्य है । जाने अनजाने, इस निष्ठा से प्रेरित समाज भी था। 
 
और अमरिका की ऐसी बदली हुयी परिस्थिति में प्रवासी भारतीय समाज को संस्कारित करने इस प्रतिबद्ध पुरोहित ने जो जीवन भर काम किया, उसका वास्तविक लेखाजोखा ही दे रहा हूँ।
(12)
 विषम परिस्थिति 

 ऐसी विषम परिस्थिति में इस जन्म से नहीं पर कर्म से बने ब्राह्मण ने अपने विवेक का परिचय दिया, और एक अभिनव मार्ग अपनाया। जिस किसे आवश्यकता हो, उसके निवास पर जाकर पूजा और साथ श्रोताओं को संस्कारित करने का प्रचलन प्रारंभ किया। जब पहाड महम्मद के समीप नहीं आ सकता तो महम्मद ही पहाड के निकट जा कर सत्संग करता।साथ साथ फैले हुए समाज को मनोरंजन के साथ साथ संस्कारित करने अवसर का लाभ उठाया। 
स्वयं  गुजराती वैश्य पटेल परिवार में जन्मा था, इस लिए सारे विधियों का पूर्ण अध्ययन किया। उच्चारण शुद्धि भी ध्यान में रखी। । अनेक बिन्दूओं को आधुनिक परिवेश में व्याख्यायित किया। इतिहास संशोधक श्री. हरिभाऊ वाकणकर जी से (जब प्रवास पर आए थे) तब, १९८४ मॆं जनेऊ धारण  किया तो विधिपूर्वक ब्राह्मण बन गया। 
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देश विदेश का विवेक:इस व्यक्ति का विवेक मुझे अतीव मह्त्वपूर्ण लगता है। बदले हुए देश काल और परिस्थिति के अनुसार सुधार कर संस्कार करना अवश्यक था। समाज भारत के बाहर था। विवेक कहते हैं उसे, जो देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदली हुयी स्थिति में अवलोकन कर अपना पैंतरा सुनिश्चित करता है, और आवश्यकतानुसार उनमें सुधार भी कर लेता है। हिंदुत्व के कर्णधारो ने ऐसा विवेक का परिचय कई बार दिया है। मुझे ऐसा विवेक किसी सिद्धांतवादी दकियानुसी से भी अधिक श्रेयस्कर प्रतीत होता है।सारे विधियों को आधुनिक (मॉडर्न) आधुनिक अर्थ देकर व्याख्यायित करने में यह पण्डित सिद्ध हस्त है। 
वास्तव में एक वैश्य परिवार में जन्म लेकर कर्म से यह ब्राह्मण प्रमाणित हो गया। सत्यनाराण की कथा को आज के अभिनव परिप्रेक्ष्य में यदि आप रमेश जी से सुनेंगे तो आप उनके आधुनिक अर्थों के निरुपण से चकित हुए बिना नहीं रहेंगे। बुद्धिमान तो था ही। उच्च शिक्षित था; एक सफल अभियंता भी था। विशेष अन्यों की भाँति डालर के पीछे नहीं पडा। 
कुशलता से  चुनौती स्वीकार कर यह जिस प्रकार प्रवचन देता है, उसे सुनकर आप दंग रह जाएँगे। प्रसन्न हुए बिना रहेंगे नहीं।
रमेश जी पटेल को जानने वाले मित्रों की ओर से अनगिनत संदेश आए हैं। उस पर आधारित आलेख भी सोचा है। समय मिलने पर लिखा जाएगा। टिप्पणियाँ  आप का उत्तरदायित्व  है।