राजनीति

मेरी ( आम आदमी की ) उलझनें

-आलोक कुमार-  arvind kejariwal cartoon caricature copy

नए साल की शुरुआत के साथ मैं, एक आम आदमी, अपनी उलझनों के जवाब खोज रहा हूं। बारह महीनों बाद यह साल (2014) भी बीत ही जाएगा । सब नए साल के नए संकल्प ले रहे हैं लेकिन मैं अपने आप को घोर उदासी में घिरा पाता हूं। आस्था का संकट तो है ही, साथ ही एक नैतिक उलझन भी है कि जिस रास्ते पर सब चल रहे हैं, क्या वही एकमात्र सुखद रास्ता रह गया है ? मैं कोई आध्यात्मिक बात नहीं कर रहा। राजनैतिक अनिश्चितता, हजारों करोड़ों के घोटालों, अनगिनत घृणित बलात्कार की घटनाओं के साथ साल 2013 को मैंने विदाई दी है।

नैतिकता, समाज और सत्ता के दलालों या लॉबिस्टों के पक्ष में नित नए तर्क खोजे जा रहे हैं और इन पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही तक कहा जा रहा है, जहां एक ओर विचारों की अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाया जा रहा है, यहां तक कि जेलों में भी डाला जा रहा है। आन्दोलनों-प्रदर्शनों पर दमनात्मक कारवाई की जा रही है , देश में एक नए उग्रवाद को परिभाषित करने की घिनौनी कोशिश की जा रही है , मेरी अस्मिता को ही कठघरे में खड़ा करने की कवायद चल रही है। वहीं दूसरी ओर आखिरी सांस तक सत्ता से मोह रखते हुए मर जाने वाले नेताओं को महान बताने की परंपरा निभाई जा रही है , सार्वजनिक मंचों पर टशुए बहाकर भावनात्मक ब्लैक-मेलिंग का सहारा ले कर रहनुमा बनने की कोशिश की जा रही है, सत्ता रूपी जहर के सौदागर ही सत्ता को जहर बताकर ” छद्म आत्म-चिंतन” कर रहे हैं। इन सबों के बीच मेरी ( एक आम आदमी की ) आत्मा पूछती है कि मैं क्यों गांधी को याद करूं ? मेरे तो नाम में भी “गांधी” नहीं है तो मैं क्यूं गांधी के आदर्शों को ढ़ोनेवाला “ टट्टु “ बनूं… ? मैं भी क्यूं नहीं अपने लिए बनाए हुए दोहरे मापदण्डों पर ” आत्म-मन्थन ” करूं.?

आज के राजनीतिज्ञों को बड़ा गुमान है कि वे ही अपने समय और समाज के पहरेदार हैं । वे ही हैं जो संसद चलाते हैं और वे ही हैं जो संसद के जरिए देश को व्यवस्था देने के लिए अधिकृत हैं। आज की सत्ता के पास नैतिक सत्ता नहीं है, इसलिए तो यहां-वहां मंच पर रोते , दहाड़ते, उलझते दिखते रहते हैं। इनमें इतना भी आत्मबल नहीं है कि मेरी उलझनों को साझा कर सकें। विगत कुछ वर्षों में जब भी मैंने तंत्र के प्रति अविश्वास एवं आक्रोश की आवाज उठायी है। सत्ता ने सदैव उस आक्रोश का प्रत्युत्तर निहायत चालाक संदर्भों के अंबार फेंक कर दिया है। जिम्मेदारी तय करने की बात कौन करे !

आज समाजवाद परिवर्तित हो रहा है व्यक्तिवाद , साम्राज्यवाद और सितारों व् सुंदरियों के ठुमके में, जनहित स्वहित के सामने नतमस्तक है, देशहित विदेशी ” लॉकरों” में बंद है , मेरी स्थिति ” तवायफ़ों ” से भी बदतर है , लोकतंत्र बन चुका ” रखैल” है, जिसका उड़ाया जा रहा माखौल है, व्यवस्था का अस्तित्व एसएमएस का मुहताज है , जन-आंदोलन भी जुटा है सत्ता के मैराथन में , मैं सिसक रहा हूं सचिवालय की फाईलों में, मुझे बना दिया गया सत्ता हथियाने की सीढ़ी फ़िर भी मुझे को दिलासा दिलाया जा रहा है कि “ हो रहा तुम्हारा (मेरा) ही कल्याण है !

मेरी सबसे बड़ी उलझन है व्यवस्था -परिवर्तन, जिस के लिए आत्म-बल और साहस मेरे भीतर आना चाहिए । साहस सत्ता को बदल देने और उसके पाखंड को नष्ट कर देने के लिए आना चाहिए । तमाम तरह के कानून तो पहले से ही मौजूद हैं लेकिन भ्रष्टाचार मुझ पर भारी है । मेरी सारी बीमारियों की जड़ भ्रष्टाचार है , जिसका प्रवाह पानी की तरह ऊपर से नीचे की ओर जारी है । इसका संक्रमण ही मेरी लाचारी है। भ्रष्टाचार के द्वारा मेरे अस्तित्व पर आक्रमण भी निरन्तर जारी है। यक्ष-प्रश्न यह है कि जिस देश के शीर्ष पर भ्रष्टाचार की रंगदारी है, वहां मेरे हितों की क्या कभी आने वाली बारी है ?

यह भ्रष्टाचार ही मेरी ना सुलझने वाली उलझनों जैसे गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, आर्थिक विषमता और शोषण आदि के लिए जिम्मेदार है। मुझे मेरा सशक्तीकरण ही एक मात्र समाधान के रूप में नजर आता है। इसी के माध्यम से मेरी विरोधी स्थितियों का उन्मूलन संभव है। इसलिए आज मुझसे जुड़े किसी भी मसले पर प्रभावी कानून बनाने से पहले पारदर्शी व्यवस्था की जरूरत है ताकि मेरा अस्तित्व बरकार रहे।