कविता

मेरी जीवन रामायण में

alone-man1मनोज नौटियाल

मेरी जीवन रामायण में एक अकेला मै वनवासी

मै ही रावण मै ही राघव द्वन्द भरी लंका का वासी

कभी अयोध्या निर्मित करने की मन में अभिलाषा आये

डूब गयी वह विषय सिन्धु में ,जब तक निर्मित हुयी ज़रा सी ||

 

सुख -दुःख की आपाधापी में जीवन की परिभाषा डोले

मन की कल्पित माया मेरी सही -गलत के पात्र टटोले

समय चक्र को भेद सका ना अब तक कोई जगत निवासी

मै भी कटपुतली हूँ हर पल, मुझे नचाये कण -कण वासी ||

 

धर्म समझ पाऊं भी कैसे , परिभाषाओं की मंडी में

सत्य परत दर परत गूढ़ है , अनुभवशाली पगडण्डी में

सांस -सांस में प्राणवायु के साथ मृत्यु भी प्यासी- प्यासी

जितना चाहूँ भागूं लेकिन सत्य सदा रहता अविनाशी ||

 

मर्यादा के पाठ पढ़े जब रोती -मिली द्रोपदी -सीता

कभी नहीं समझा है कोई एहसासों की सच्ची गीता

ना मै अर्जुन सम योद्धा हूँ ना ही वीर भीष्म विश्वासी

दुनियादारी में उलझा हूँ , कैसे जाऊं काबा -काशी ||

 

पांच इन्द्रियों के छल -बल से कितनी बार हार कर रोया

जीवन पथ पर चलते चलते क्या है पाया क्या है खोया

सोच सोच कर मन भटका है , हुआ बावरा भोग विलासी

पश्चाताप हुआ भी लेकिन, माया ने कर दिया उदासी ||